Newslaundry Hindi
भुखमरी का मुआवजा, 15 किलो चावल, पांच किलो आलू
“वे पचास साल के थे. यह उम्र मरने की नहीं होती बाबू. लेकिन मैंने अपने पिता को आंखों के सामने तड़प कर मरते देखा. अब कई मौके पर बच्चे खाना के बिना बिलबिलाते हैं, तो कलेजा कांप जाता है.जिंदगी की मुश्किलें एक हो तो गिनाएं. पिता की मौत के बाद 15 किलो चावल और बीस हजार रुपए की सरकारी मदद मिली थी. चावल और पैसे पहुंचाने कई साहबहमारी झुग्गी तक आए थे. उन्होंने भरोसा दिलाया था कि बहुत जल्दी सब ठीक हो जाएगा.उसका इंतजार करते साढ़े तीन महीने बीत गए.”
यह सब कहते हुए विदेशी मल्हार का गला रुंध जाता है. उसकी निगाहें झोपड़ी के अंदर बांस पर टंगी पिता चिंतामन मल्हार की तस्वीर पर टिकजाती हैं जिसे इस मजदूर परिवार ने बड़े अरमान से लगा रखा है.
इसी साल 14 जून को विदेशी मल्हार के पिता चिंतामन मल्हार की कथित तौर पर भूख से मौत हुई थी. हालांकि स्थानीय प्रशासन ने इसे स्वभाविक मौत करार दिया था, लेकिन विदेशी मल्हार का पूरा परिवार अब भी यही कहता है कि फांकाकशी के बीच उनके पिता दो दिन से भूखे थे. धूप में वे गश खाकर गिरे और उनकी मौत हो गई.
झारखंड में कथित तौर पर भूख से हो रही लगातार मौतों ने उसे हाल के कुछ महीनों में एक अलग पहचान दी है. भुखमरी की घटनाएं ज्यादातरआदिवासी और दलित परिवारों के बीच हुई हैं. सिस्टम पर कई सवाल भी उठते रहे हैं. दरअसल यह उस राज्य की भी तस्वीर है, जहां चार साल पहले खाद्य सुरक्षा कानून लागू हो चुका है. इसके सुरक्षा के दायरे में सवा दो करोड़ से ज्यादा लोग आते हैं.
क़ानून के मुताबिक़ अति ग़रीब परिवारों को कुल 35 किलो जबकि प्राथमिकता वाली श्रेणी में आनेवाले परिवारों को प्रति सदस्य के हिसाब से पांच किलो राशन दिया जाता है.वैसे इन घटनाओं के बाद अधिकारियों की गाड़ियां पीड़ित परिवार के दरवाजे तक पहुंचती है. दस- बीस किलो अनाज और आर्थिक सहायता के नाम पर कुछ हजार रुपये नकद या चेक देकर वे अपने काम की इतिश्री मान लेती हैं.
कैसा कानून, कैसी मदद
इन मौतों से पहले और बाद में भी सिस्टम का यह भरोसा कितना कारगर और जवाबदेह होता है, पीड़ित परिवारों की स्थितियां कितनी बदल पाती हैं, न्यूज़लॉन्ड्री के लिए इसकी पड़ताल करने हम झारखंड के दूर दराज के इलाके में पहुंचे थे. झारखंड में रामगढ़ जिले के सुदूर मल्हार टोली में चिंतामन मल्हार का परिवार रहता है. मेरे वहां पहुंचने पर कई महिलाएं पूछती हैं कि क्या आप सरकारी बाबू हैं, क्या आप हमारा राशन कार्ड लेकर आए हैं? यानी अभी तक इन लोगों का राशनकार्ड नहीं बना है. तो सवाल पैदा होता है कि इन्हें चार साल पहले लागू हुए खाद्य सुरक्षा क़ानून का फायदा कैसे मिलता है.
इस सवाल पर बलकाही देवी कहती हैं,“कैसा कानून और किसके लिए, जब भूख से अंतड़ियां एंठती रहे. हमें तो सिर्फ वोट के टेम (वक्त) पूछा जाता है.” इसी टोले के मनभरन मल्हार बताने लगे कि चिंतामन मल्हार की मौत से पहले इस टोला के किसी परिवार के पास राशन कार्ड नहीं था. भूख से मौत की ख़बर जब चर्चा में आई तो अधिकारी लोग यहां पहुंचे. इसके बाद हमारा राशन कार्ड बनाने की प्रक्रिया शुरू की गई.
14 परिवारों का राशन कार्ड बना है. बाकी लोगों को अब भी इसका इंतजार है. आगे मुश्किलों की चर्चा करने के साथ मनभरन तमतमाए लहजे में बताने लगे कि उस समय अधिकारियों ने सीना तानकर कहा था कि पानी के लिए चापाकल लगवा देंगे, जमीन देकर बसा देंगे. आंगनबाड़ी खोल देंगे. लेकिन कुछ होता नहीं दिखता. वे हमारा हाथ पकड़ कर कहते है- पूरा टोला घूम लीजिए, बेबसी और गुरबत भरी जिंदगी की तस्वीर दिख जाएगी.
तीन महीने बाद भुखमरी वाले घर की स्थिति
पगडंडियों सेगुजरते हुए हम जब इस टोले में पहुंचे थे, तब विदेशी मल्हार उनकी पत्नी रानी देवी और भाभी निशा देवी बाहर से चुन कर लाए कोयले की बोरियां कस रहे थे. दोनों महिलाओं के हाथ और चेहरे कोयले से काले पड़े थे. निशा देवी बताने लगी कि ये दो बोरियां अगर बिक जाएं, तो सांझ का चूल्हा जल जाएगा. उसके पति प्रेम मल्हार उस वक्त दिहाड़ी पर काम करने बाहर गए थे. निशा को इंतजार था कि पति लौटते समय शायद चावल खरीद कर लाएगा.
सिर पर चढ़ते सूरज की ओर देखते हुए वे बताने लगी किसुबह में भात और मूली का साग पकाया था. वे कहने लगी कि बहुत दुआएं देंगी, अगर सरकार से मुक्कमल मदद दिला दो बाबू, वरना चार महीने जिन हालात में गुजरे हैं मानो इमरजेंसी लगा है.
निशा के चार बच्चे हैं जबकि विदेशी की पत्नी पेट से हैं. पिता (चिंतामन) की मौत के समय यानि जून महीने में ये सभी लोग बिहार के एक ईंट भट्ठे में दिहाड़ी करने गए थे. जबकि चिंतामनघर पर ही थे. 12 जून को बेटे और बहू को ख़बर मिली कि ससुर फांका काट रहे हैं और दो दिन से भूखे हैं.
इसके बाद दो हजार रुपए का इंतजाम कर विदेशी मल्हार को यहां भेजा गया. विदेशी के पहुंचने की अगली सुबह चिंतामन गश खाकर गिर गए. उन्हें स्थानीय अस्पताल ले जाया गया. इसके बाद बड़ा अस्पताल ले जाने को कहा गया. तब तक उनकी मौत हो चुकी थी.
निशा बताती हैं कि ससुर के मरने के बाद सरकार के साहब लोग आए थे. पांच किलो चावल, कुछ आलू और पांच हजार रुपए नकद दिए. फिर दशम (श्राद्ध) से पहले दस किलो चावल और पंद्रह हजार रुपए का चेक दिया. उस पैसे से टोला के लोगों को भोज कराए.उन दिनों दिहाड़ी पर जाना बंद हो गया था तो बचे हुए पैसे से अपने और बच्चों का पेट पालते रहे. विदेशी मल्हार राशन कार्ड का आवेदन दिखाते हुए कहते हैं किआज 28 सितंबर हैं, पिता की मौत के समय जो पंद्रह किलो अनाज मिला था उसके बाद कुछ मयस्सर नहीं.विदेशी से हमने ये भी पूछा कि घटना के बाद जिले के अधिकारियों ने मीडिया से कहा था कि चिंतामन की स्वभाविक मौत हुई है और इस बाबतचिंतामन के बेटे ने लिखित बयान भी दिया था. विदेशी धीरे से कहता है,“कोई गरीब, अनपढ़ और बेबस मजदूर आदमी मुसीबत में कितना तन कर खड़ा सकता है, आप ही बताइए. मुझसे सादे कागज पर अंगूठेका निशान लिया गया था. अब साहब लोग चाहे जो कहें, लेकिन हमलोगों नेसीने में वही दर्द दबा रखा है कि पिता की मौत भूख से हो गई.”
इस बीच 29 सितंबर को जनवितरण प्रणाली के स्थानीय दुकानदार ने विदेशी मल्हार को 15 किलो चावल दिया है. उसकी पत्नी का राशन कार्ड में नाम है, लेकिन आधार कार्ड से लिंकनहीं होने की वजह से उनके हिस्से का पांच किलो चावल इस परिवार को नहीं मिला. विदेशी के भाई प्रेम मल्हार के चार बच्चों का आधार कार्ड नहीं है. लिहाजा राशन कार्ड में उनके नाम भी नहीं चढ़े हैं. इस परिवार की पीड़ा है कि बाल बच्चे और बड़े मिलाकर आठ लोगों के परिवार में 15 किलो चावल दस दिन से ज्यादा नहीं चल सकता. गौरतलब है कि झारखंड में पॉश मशीन के जरिए अंगूठे का निशान लेकर (ऑनलाइन सिस्टम) के तहत अनाज और केरोसिन तेल दिया जाता है. 29 सितंबर की तारीख से ऑनलाइन में यह रिकॉर्ड दर्ज है कि इस परिवार को ढाई लीटर केरोसिन तेल का आवंटन दिया गया है, लेकिन विदेशी का कहना है कि उसने तेल लिया ही नहीं है.
रामगढ़ जिले में मांडू के प्रखंड आपूर्ति पदाधिकारी मनोज मंडल कहते हैं, “विदेशी मल्हार के परिवार के सभी सदस्यों का आधार कार्ड बन जाएगा, तो राशन कार्ड में भी उनका नाम दर्ज हो जाएगा. इसके बाद उन्हें ज्यादा अनाज मिलेगा. केरोसिन तेल वो जब लेना चाहेगा, तो मिल जाएगा.” जबकि मांडू के प्रखंड विकास पदाधिकारी मनोज कुमार गुप्ता का कहना है कि अब तक मल्हार टोला के 22 परिवारों का राशन कार्ड बनवाया गया है. पारदर्शी ढंग से इसका लाभ उनलोगों को मिले इसके लिए मुलाजिमों को आवश्यक निर्देश दिए गए हैं.
गुप्ता का यह भी कहना है कि जब अनाज की सुविधा मिलने लगी और लोगों का आधार कार्ड बनने लगा, तो इधर-उधर रह रहे कई मल्हार परिवार इस टोले में आकर रहने लगे हैं. इसलिए वहां परिवारों की संख्या बढ़ सकती है. लेकिन आवश्यक छानबीन और प्रक्रिया पूरी करने के बाद कुछ और लोगों का राशन कार्ड भी बनाया जा सकता है.
न जमीन और न घर
टोले में रहने वाले बादल मल्हार बताते हैं कि बाप-दादा के जमाने से वेलोग कुंदरिया बस्ती में सरकारी स्कूल के पीछे रहते थे. भूमिहीन होने के कारण लोगों ने उन्हें वहां से हटा दिया. इसके बाद बस्ती में ही दूसरी जगह पर सालों तक रहे. वहां से भी हटा दिया गया. अब बस्ती से दूर इस जंगल में आकर गुजारा कर रहे हैं.
इस टोले में अभी 45 परिवार रहते हैं. बांस-बल्लियों के सहारे प्लास्टिक और फटे-चुथे बोरे से घिरे इनके घरों को झुग्गी-झोपड़ी या तंबू कह सकते हैं. मतलब किसी परिवार के पास पक्का या कच्चा मकान नहीं है. कई लोग जब-तब दिहाड़ी खटने परदेस जाते हैं जबकि कई लोग भीख मांगकर गुजारा कर रहे हैं.
विक्रम मल्हार की टीस है कि चिंतामन मल्हार की मौत एक बहाना था, जो अधिकारी-नेता यहां पहुंचे. वरना हम तो इसी हाल में सालों से जीते रहे हैं. इसका डर हमेशा बना रहता है कि जंगल वाले (फॉरेस्ट विभाग) साहब लोग न जाने कब यहां से भी हटा दें.
इस टोले के लोग पीने का पानी करीब एक किलोमीटर दूर से लाते हैं. वह भी कुएं के मालिक की कृपा से. सामने एक तालाब है वही इनका बड़ा सहारा है.
राजेंद्र बिरहोर की मौत का दर्द
इसी इलाके यानि मांडू ब्लॉक केजरहिया टोली में रहने वाले राजेंद्र बिरहोर (आदिम जनजाति) की पिछले 24 जुलाई को हुई मौत को लेकर कई सवाल उठते रहे हैं.राजेंद्र बिरहोर बीमारी और भर पेट भोजन नहीं मिलने के दर्द से जूझ रहे थे. जबकि आदिम जनजातियों की संरक्षण को लेकर सरकार कई योजनाएं चलाती रही है. राजेंद्र की मौत के समय उनकी पत्नी शांति देवी गर्भवती थीं. 17 अगस्त को उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया है और अब उनके कुल सात बच्चे हो गए हैं. हालांकि शांति देवी को इस बच्चे के जन्म की तारीख याद नहीं है. वो कहती है कि पति की मौत के बाद होश कहां टिक पाता है. रातों में नींद नहीं आती. बड़ी बेटी सयाना हो रही है उसकी चिंता अलग है. अपने दम पर सात बच्चों को पालना बहुत मुश्किल हो रहा है. छोटा बच्चा डेढ़ महीने का है, तो उसे छोड़कर दिहाड़ी खटने नहीं जा सकती.
पति की मौत के बाद सरकार से जो मुआवजा मिला था, उसे बैंक में जमा कराया गया है. अब चावल तो मिलने लगा है, लेकिन चावल भर से जिंदगी नहीं चल सकती. एक कमाने वाला था वही नहीं रहा. आगे सरकार से विधवा पेंशन या कोई रोजी मिल जाती, इसी आसरे में बैठे हैं. एक कमरे के घर में रहने वाले इस परिवार का हाल जानने जिस वक्त हम पहुंचे थे, तो शांति अपने नवजात बच्चे को संभाल रही थी. एक पुराना कंबल जमीन पर बिछा था. हमने पूछा कि क्या सभी लोग जमीन पर ही सो जाते हैं, तो उनकी बेटियों ने सिर हिलाकर हां में जवाब दिया.
राजेंद्र बिरहोर के भाई विनोद बिरहोर की अलग चिंता है कि वह दिहाड़ी खटता है और उसके भी चार बच्चे हैं. इन परिस्थितियों में वे अपना परिवार संभाले या भाई के परिवार को देखे. वो कहते हैं कि इन हालात में सरकार से मुकम्मल मदद की जरूरत है. उनके नाम पर (आदिम जनजाति) जो योजनाएं चलती है वो हमारे घरों तक भी पहुंचे. राजेंद्र बिरबोर की जब मौत हुई थी, तो इस परिवार के पास भी आधार और राशन कार्ड नहीं था. जबकि सरकार ने डाकिया योजना लागू की है, जिसके तहत आदिम जनजातियों के घर तक 35 किलो अनाज पहुंचाया जाता है.इनके अलावा आदिम जनजाति के परिवारों को छह सौ रुपए पेंशन देने का भी प्रावधान किया गया है. तब ये सवाल पूछा जा सकता है कि ये योजनाएं राजेंद्र बिरहोर के घरों तक क्यों नहीं पहुंची?
इसी गांव के एक युवा राजू मुंडा कहते हैं कि राजेंद्र आदिवासी मजदूर था. बेबसी, बीमारी और पोषण की कमी से हार गया. इस आदिवासी परिवार के लोगों ने सूअर बेचकर उसके इलाज पर खर्च के लिए तीन हजार रुपए जुटाए थे. हालांकि राजेंद्र बिरहोर की मौत के बाद सरकार ने मांडू के आपूर्ति अधिकारी को सस्पेंड करते हुए प्रखंड विकास और अंचलाधिकारी को कारण बताओ नोटिस जारी किया था.
भोजन के अधिकार को लेकर ग्रास रूट पर काम करते रहे सामाजिक कार्यकर्ता सिराज दत्ता कहते हैं ये तमाम तथ्य सिस्टम पर सवाल खड़े करते नजर आते हैं. जबकि राजेंद्र बिरहोर की मौत के मामले में कार्रवाई नाकाफी है. सिराज कहते हैं, “गौर कीजिए,चिंतामन मल्हार की मौत 15 जून को होती है और उसके परिवार को आधा-अधूरा अनाज साढ़े तीन महीने बाद मिलता है. इससे पहले तो मल्हार टोला के किसी परिवार के पास राशन कार्ड नहीं था. शोषित वंचित और कमजोर तबके के लिए ही तो खाद्य सुरक्षा कानून बना है.”
सिराज बताते हैं कि कई जन संगठनों के फैक्ट फाइडिंग दल ने पायाकि 39 साल के राजेंद्र बिरहोर साल भर से काम नहीं कर पा रहे थे.उनकी पत्नी को सप्ताह में 2-3 दिनों का ही काम मिल पाता था. पिछले एक साल में परिवार की आमदानी में गिरावट के कारण राजेंद्र बिरहोर, उनकी पत्नी और छह बच्चे पर्याप्त पोषण से वंचित थे. परिवार को नरेगा में आखरी बार 2010-11 में काम मिला था.
सिराज का ये भी कहना है कि झारखंड में पिछले नौ महीनों में भुखमरी से कम-से कम तेरह लोगों की मौत हुई है. इनमें से कमसेकम सात व्यक्तियों की भुखमरी के लिए आधार सम्बंधित समस्याएं जिम्मेवार थी. इन हालात के लिए आला अधिकारियों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए. मांडू के प्रखंड विकास अधिकारी का कहना है कि राजेंद्र बिरहोर की मौत के बाद उनके परिवार को योजनाओं का लाभ देने तथा संरक्षण को लेकर सभी कदम उठाए जा रहे हैं. इस परिवार के नाम पर एक आवास की स्वीकृति दी गई है. राशन कार्ड भी बनवाया गया है.
सामाजिक कार्यकर्ता सिराज इन सरकारी दावों पर कहते हैं कि ये काम तो पहले होना चाहिए था. राजेंद्र बिरहोर के परिवार को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून अंतर्गत राशन कार्ड नहीं मिला था. जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट आदेश दिया है कि “आदिम जनजाति” समुदाय- जिसका हिस्सा बिरहोर समुदाय है- अन्त्योदय अन्न योजना अंतर्गत प्रति माह 35 किलो राशन पाने का हक़ है.
ढेर सारी सरकारी योजनाएं हैं और उन योजनाओं के बीच ढेर सारी भुखमरी से मौतें हैं. फिलहाल झारखंड का यही सच है.
Also Read
-
How Muslims struggle to buy property in Gujarat
-
A flurry of new voters? The curious case of Kamthi, where the Maha BJP chief won
-
क्लाउड सीडिंग से बारिश या भ्रम? जानिए पूरी प्रक्रिया
-
टीवी रेटिंग प्रणाली में बदलाव की तैयारी, सरकार लाई नया प्रस्ताव
-
I&B proposes to amend TV rating rules, invite more players besides BARC