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भाजपा की असफलता और सपा का नुकसान
पिछले शनिवार को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक दुखद घटना हुई. एप्पल कंपनी में कार्यरत मैनेजर विवेक तिवारी की मौत पुलिस की गोली से हो गयी. घटना से क्या सरकार और क्या जनता, सब स्तब्ध रह गए.
मामला लखनऊ से जुड़ा था, सीधे भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर उंगली उठ गयी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कार्यकाल में ख़राब कानून व्यवस्था का मुद्दा विपक्ष द्वारा उठ गया. एकदम से भाजपा के लिए इस घटना से निकलना मुश्किल लगने लगा. हमलावर विपक्ष भी था और जनता में भी आक्रोश. पहली बार भाजपा घिरती दिखाई दी. इस मामले को धीरे से ब्राह्मण बनाम अन्य कर दिया गया. भाजपा की विधायक रजनी तिवारी ने मुख्यमंत्री को चिठ्ठी भी लिख दी. स्थानीय अखबारों में भी खूब लिखा गया.
मुद्दा ऐसा बना कि कांग्रेस की सोनिया गांधी तक ने फ़ोन से विवेक तिवारी की पत्नी कल्पना तिवारी से बात की. समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव भी सांत्वना देने विवेक के घर पहुंचे, बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्षा मायावती ने भी सतीश चन्द्र मिश्र के माध्यम से मदद का आश्वासन दिया. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर भी आगे आगे आये. सोशल मीडिया, फेसबुक, ट्विटर पर तो जैसे बाढ़ सी आ गयी. हर कोई अपनी बात कहने लगा.
उत्तर प्रदेश में हर चीज़ में राजनीति रहती हैं. धरना प्रदर्शन, गठबंधन सब में राजनीति. जब राजनीति होगी तो वह आखिरकार जाति के खांचे में भी फिट होने लगती हैं. हालात यहां तक है कि अब तो माफिया लोग भी अपनी-अपनी जाति को देखने लगे हैं.
विवेक तिवारी की हत्या एक अपराधिक घटना है. इसका भी राजनीतिकरण होने लगा. जाति ढूंढ़ ली गई. बात ब्राह्मणों पर हो रहे अत्याचार पर होने लगी. लेकिन कार्रवाई, मुआवजा और नौकरी का आश्वासन मिलने के बाद स्थिति धीरे-धीरे सामान्य होने लगी. मरहूम विवेक तिवारी की पत्नी कल्पना ने भी भाजपा सरकार पर पूरा भरोसा जताया. रही बात ब्राह्मणों के भाजपा से विमुख होने की तो वो फिलहाल कहीं नहीं दिख रही. आगे सख्त कार्रवाई और इन्साफ दिलवा कर भाजपा इस झटके से उबर सकती है.
सीधे तौर पर यह भाजपा के लिए बहुत ज़रूरी है कि वो किसी तरह की नाराजगी को दूर करने के लिए सख्त कार्रवाई करे. लेकिन अगर राजनीति हुई तो अन्य दल भी इसके चपेट में आएंगे. राजनीति में कभी-कभी जिस घटना से आपका लेना देना न हो वो भी आपको नुकसान पहुंचा जाती है.
विवेक तिवारी की मौत के बाद पैदा हुई राजनीति में शायद समाजवादी पार्टी के साथ यही हुआ. ना सरकार उनकी, ना कानून व्यवस्था से लेना देना. लेकिन सीधे तौर पर इसका सियासी नुकसान उन्हें होता दिख रहा है.
समाजवादी पार्टी :
ये तो बात साबित भी हो चुकी है कि सोशल मीडिया का खेल राजनीति में उठा पटक कर सकता है. सपा के साथ यही हुआ. अभी विवेक तिवारी की हत्या पर सभी लोग गुस्से और दुःख में थे. इसी दौरान अखिलेश यादव का ट्वीट आता है जिसमें वो भाजपा को घेरते हुए, पांच करोड़ का मुआवजा देने की मांग करते हैं. भाजपा पर सीधा निशाना. उसके बात अखिलेश यादव जा कर विवेक तिवारी के परिजनों से भी मिले. इसमें कुछ गलत नहीं था, वो सांत्वना देने गए थे जो सराहनीय है.
लेकिन उसके बाद जो हुआ उसकी कल्पना शायद खिलेश यादव ने नहीं की थी. यकायक सपा के समर्थकों ने अपनी ही पार्टी को घेरना शुरू कर दिया. मुसलमान जो काफी हद तक सपा का कोर वोटर माना जाता है वो एकदम से मुखर हो उठा. सीधे सवाल होने लगे- अलीगढ़ में हुए एनकाउंटर में मारे गए नौशाद और मुस्तकीम के लिए सवाल उठने लगे. सपा मुखिया ने उनके लिए मदद की मांग क्यों नहीं की. इनके पक्ष में क्यों नहीं बोले.
बात यहीं तक नहीं रुकी. आठ महीने पहले नोएडा में जिम ट्रेनर जीतेन्द्र यादव के एनकाउंटर की बात उठने लगी. जीतेन्द्र अभी भी बिस्तर पर हैं. जीतेन्द्र को मुआवजा देने के लिए भी आवाज़ उठने लगी. यादव समुदाय भी इसमें आगे आया और खुल कर लिखने लगा. हालांकि ये बात भी सच है कि इस हादसे के बाद जीतेन्द्र के परिजन अखिलेश यादव से मिले थे और उन्होंने हर संभव मदद का भरोसा दिया था.
एक नज़र डालिए सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी पोस्ट्स पर.
संभल के रहने वाले मुग़ल वासिफ ईरानी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र हैं. वो लिखते हैं- “अलीगढ़ में दो मुस्लिम बेकसूर लोगो का एनकाउंटर हो जाता है और मुस्लिम समाज के नेता बनने वाले आज़म खान, कमाल अख्तर, ऐबाद खान ,अहमद हसन, नफीस अहमद, अबु आज़मी जैसे लोगों ने ब्राह्मणों जैसा दबाव अखिलेश यादव पर क्यों नहीं बनाया? क्यों नहीं अखिलेश यादव को इनके घर ले गए? क्या 5 करोड़ के ट्वीट के ये हक़दार नहीं हैं? क्यों नहीं मुस्लिम समाज इन नेताओं से पूछता. किसी एक ने भी आवाज उठाई हो तो बताये कब तक इनकी गुलामी करते रहोगे?”
मोहम्मद सुलेमान अफरीदी अखिलेश यादव के ट्वीट के जवाब में लिखते हैं- “अखिलेश भैय्या मुसलमानों के लिए भी कुछ बोल दिया करें, अलीगढ़ में जो फर्जी एनकाउंटर हुआ है या फिर आप मुसलमानों की कुर्बानी कुर्बान करवाते हैं अपने ऊपर आप कब मुसलमानों पर क़ुरबानी देंगे.”
शरून खान शम्मी लिखते हैं अखिलेशजी मैं आपसे सहमत हूं, लेकिन ऐसा ही मुआवजा अलीगढ़ में हुए फेक एनकाउंटर के विक्टिम को भी मिलना चाहिए.
अखिलेश ने घटना के दिन 29 सितम्बर को एक ट्वीट किया- “उप्र सरकार को असंवेदनशील रवैया छोड़कर तत्काल मृतक की पत्नी के लिए सरकारी नौकरी व बच्चियों के भविष्य के लिए 5 करोड़ की आर्थिक मदद की लिखित घोषणा करनी चाहिए. परिवार की ज़िम्मेदारी क्या होती है, ये बात परिवारवाले ही जानते हैं. दुख की इस घड़ी में हम शोकाकुल परिवार के साथ खड़े हैं.”
उसके बाद मामला गरमा गया. मुसलमान अलीगढ़ एनकाउंटर को इसी के बराबर मुआवजा के लिए इनको टैग करने लगे. उसके बाद अखिलेश यादव ने एक अक्टूबर को फिर ट्वीट किया- “स्व. विवेक तिवारीजी के परिवार से मिलकर उनके दर्द को करीब से जाना. सरकार ने जिनका सहारा छीना है उनके परिवार को 5 करोड़ की आर्थिक मदद देनी ही चाहिए. साथ ही फ़र्ज़ी एनकाउंटर में मारे गये अन्य लोगों के परिवार को भी मदद पहुंचानी चाहिए. भाजपा की ये एनकाउंटर संस्कृति समाप्त होनी चाहिए.
इस वाले ट्वीट में अखिलेश ने फर्जी एनकाउंटर में मारे गए अन्य लोगो के परिवार को भी मदद देने की बात शामिल किया. यहीं नहीं आनन फानन में सपा कार्यालय पर प्रेस कांफ्रेंस की और भाजपा की एनकाउंटर संस्कृति पर सवाल उठाया. वहां भी उन्होंने फेक एनकाउंटर का ज़िक्र किया.
क्यों मुसलमान घेरने लगे सपा को :
सपा के मूलतः दो कोर वोटर हैं- मुसलमान और यादव. छब्बीस साल पहले सपा को मुलायम सिंह ने बनाया था. उसके ठीक अगले साल यानी 1993 में सपा की साझा सरकार बन गयी थी. वो दौर था बाबरी मस्जिद के गिरने का. मुसलमान पूरी तरह से सपा के समर्थन में. मुलायम की दीवानगी उस समय से चली आ रही है. ये दीवानगी अभी तक है. मुसलमानों की एक वो पीढ़ी जो 6 दिसंबर 1992 के समय थी आज भी वो सपा के प्रति नरम रहती हैं. इसकी एक बानगी देखिये- राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल सपा के खिलाफ लड़ती है. इसके अध्यक्ष मौलाना आमिर रशादी बताते हैं कि कैसे वो अपने गृह जनपद आजमगढ़ में मुलायम के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे और प्रचार कर रहे थे. तब एक बूढ़ी मुस्लिम महिला ने उनसे कहा- “तुमहू मुसलमान, मुलायमो मुसलमान, काहें अलग-अलग लड़त हो.” ये बात भले एक अनपढ़ बूढ़ी महिला की हो लेकिन इसकी गहराई बहुत है.
आल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रवक्ता अदील अल्वी कहते हैं, “ये एक मरीचिका की तरह है. नेता ये समझते हैं कि किसी ऐसे मुद्दे पर ना बोलो जिससे हिन्दू नाराज़ हो जाये इसीलिए अवॉयड करते हैं. लेकिन अब मुसलमानों में अवेयरनेस आ रही है. वो अपना एजेंडा सेट करेगा. अब सिर्फ बीजेपी को हराने के लिए वोट नहीं करेगा. इसीलिए वो इनसे जवाब भी मांग रहा है और घेर भी रहा है.”
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दीनियात के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ रेहान अख्तर इस मुद्दे पर कहते हैं, “देखिये जो भी एनकाउंटर्स हुए हैं उनमें सबका रुझान हिन्दू-मुस्लिम की तरह हो जाते हैं. यह भेदभाव है. अब आप मुसलमानों के मसीहा बने हैं तो जवाब भी देना होगा और देना पड़ेगा. अच्छा रहता अगर ये दूसरे एनकाउंटर्स जो संदिग्ध हैं वहां भी जाते, उन पर भी बोलते.”
लेकिन अगर सपा को बने हुए 26 साल हो गए हैं तो फिर बाबरी मस्जिद की घटना को भी 26 साल हो चुके हैं. मुसलमानों की एक नयी पीढ़ी आ चुकी हैं. उसके सामने बाबरी मस्जिद की घटना नहीं हुई थी, इसीलिए वो उससे इतना शिद्दत से, भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ी है. इधर समय भी बदला हैं, सोशल मीडिया और मोबाइल फोन सबके हाथ में है. जुड़ाव इनका भले सपा से हो लेकिन ये अपनी बात में उसको घेरने में पीछे नहीं हटते.
दूसरी बात अब सपा के सामने उसको मुस्लिम मुद्दों पर घेरने के लिए तमाम ग्रुप्स और छोटी पार्टियां भी आ गयी हैं. जैसे एआईएमआईएम को ही लीजिये. इसके नेता असदुद्दीन ओवैसी सपा पर काफी आक्रामक रहते हैं. जवाबदेही अब सपा की बढ़ती जा रही है. अगर उसके कोर वोट मुस्लिम में ज़रा सा भी धक्का लगता हैं तो सपा के लिए ये मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी.
सपा की पूर्व प्रवक्ता पंखुड़ी पाठक इस मुद्दे पर काफी मुखर हैं. वो कहती हैं, “सपा की लाइन एक महीने से बदल गई है. अब वो मुसलमानों का मुद्दा उठाने से बचने लगे हैं. ऐसे में मुसलमान सवाल तो पूछेगा ही. इतने सारे फेक एनकाउंटर हुए लेकिन किसी में भी वो गए नहीं.”
पूर्व मंत्री शिवपाल यादव द्वारा नवगठित समाजवादी सेक्युलर मोर्चा के प्रवक्ता दीपक मिश्र मानते हैं कि सपा अब भटक चुकी है. वो कहते हैं, “सपा पूरी तरह भटक गई है. डॉ राम मनोहर लोहिया के कथन- कमज़ोर के साथ खड़े हो- अब नहीं रहा. मुसलमानों का मोह भंग हो चुका है. पहले वो मुलायम की वजह से सपा के साथ था, अब नहीं है.”
समाजवादी पार्टी के एमएलसी और प्रवक्ता सुनील सिंह साजन इन बातों से सहमत नहीं हैं. वो कहते हैं, “जो सवाल उठ रहे हैं वो बेबुनियाद हैं. राष्ट्रीय अध्यक्षजी ने हमेशा हर फर्जी एनकाउंटर पर आवाज़ उठाई हैं चाहे वो अलीगढ़ एनकाउंटर हो या फिर नॉएडा का जीतेन्द्र यादव को गोली मारना, सुमित गुर्जर या फिर मुकेश राजभर का एनकाउंटर. बस इस घटना में मीडिया ने ज्यादा हाइप दे दिया. सपा और हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष हमेशा से हर फेक एनकाउंटर पर उंगली उठाते रहे हैं. जो हमसे जवाब मांग रहे हैं वो सब एक कोरी बयानबाज़ी के सिवाय कुछ नहीं है.”
ऐसा नही है कि मुसलमानों की नई पीढ़ी सिर्फ अखिलेश की सपा के खिलाफ बोलती हैं. सपा के मुसलमान नेता भी जब तब निशाने पर आते रहते हैं. आज़म खान से बड़ा मुस्लिम चेहरा सपा में नहीं है. उन्होंने एक सार्थक पहल की और 2 अक्टूबर को रामपुर में शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया. जिसमें उन्होंने भाजपा को घेरा. हाथ में तख्ती लिए जिस पर राफेल, महंगाई, एनकाउंटर, कानून व्यवस्था से सम्बंधित नारे थे. संयोग से आज़म खान के हाथ में जो तख्ती थी उस पर लिखा था- “योगीजी विवेक तिवारी के हत्यारों को फांसी तक पहुंचाने की घोषणा करो.”
आजम खान की ये फोटो वायरल हो गयी. एएमयू के छात्र शर्जील उस्मानी ने यही फोटो शेयर करते हुए लिखा- “नॉट माय नेता.”
ये एक इशारा है नई पीढ़ी के मुसलमान का. सपा के लिए ये अच्छा संकेत कतई नहीं है. भले ही ये कहा जाय कि जनता की याददाश्त छोटी होती हैं, समय के साथ ये बात भी किनारे हो जाएगी. भाजपा को हराने के लिए मुसलमान सपा को वोट देगा लेकिन बात धीरे-धीरे उठ कर मुद्दा बनते देर नहीं लगती. अगर मुसलमान छिटका फिर सपा के पास क्या बचा? सिर्फ यादवों के भरोसे सपा कहां तक जा सकती है. ध्यान रहे उत्तर प्रदेश में यादव उतना ही है जितना कुर्मी. अंतर सिर्फ ‘मौलाना’ मुलायम के साथ जुड़े मुसलमानों से आता है. पता नहीं अखिलेश इस बात को समझ रहे हैं या नहीं.
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