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ठाकुर का कुआं है राजस्थान पत्रिका का आरक्षण पर महासर्वेक्षण

राजस्थान पत्रिका ने 2 अक्टूबर के दिन अपने तमाम संस्करणों में एक महासर्वे छापा है. सर्वे का पहले पेज पर शीर्षक है– “सामाजिक वैमनस्य बढ़ा, क्रीमी लेयर का आरक्षण खत्म हो.” जयपुर संस्करण में एक पूरा पेज इस सर्वे के बारे में है और उस पेज का शीर्षक है- “78% सामान्य वर्ग और 39% एससी-एसटी वर्ग चाहता है- आर्थिक आधार पर हो आरक्षण.”

यह सर्वे तीन राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में किया गया है. खास बात यह बताई गई है कि इस सर्वे में सवर्ण जातियों (पत्रिका उन्हें “सामान्य वर्ग” लिखता है) के साथ ही एससी और एसटी यानी अनुसूचित जाति और जनजाति के आंकड़े भी जुटाए गए हैं. पत्रिका का दावा है कि सर्वे में जितने सवर्णों को शामिल किया गया, उतने ही एससी-एसटी को भी.

सर्वे में ये आठ सवाल पूछे गए, जिनके जवाब इस प्रकार हैं-

  1. क्या आरक्षण ने जातिगत वैमनस्यता बढ़ाई है?  जवाब में सामान्य वर्ग के 64 फीसदी लोगों ने हां कहा. एससी-एसटी के 46 फीसदी लोगों ने भी यही जवाब दिया.
  2. क्या क्रीमी लेयर को आरक्षण मिलना चाहिए? जवाब में सामान्य वर्ग के 66 फीसदी और अनुसूचित जाति के 50 फीसदी लोगों ने कहा नहीं.
  3. देश में आरक्षण होना चाहिए या नहीं? जवाब में सामान्य वर्ग के 72 फीसदी और एससी-एसटी वर्ग के 19 फीसदी लोगों ने कहा कि नहीं.
  4. क्या आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए? इसके जवाब में सामान्य वर्ग के 78 फीसदी और एससी-एसटी के 39 फीसदी लोगों ने कहा हां.
  5. क्या आरक्षित वर्ग को आरक्षण का पूरा फायदा मिला? जबाव में सामान्य वर्ग के 31 और एससी-एसटी वर्ग के 40 फीसदी लोगों ने कहा कि नहीं.
  6. क्या आरक्षण से आरक्षित वर्ग/सामान्य वर्ग से आपके संबंध बिगड़े? जवाब में सामान्य वर्ग के 46 और एससी-एसटी वर्ग के 42 फीसदी लोगों ने कहा हां.
  7. क्या आरक्षण से समाज में आर्थिक समानता आई? जवाब में सामान्य वर्ग के 40 और एससी-एसटी वर्ग के 38 फीसदी लोगों ने कहा कि नहीं.
  8. सरकारी नौकरी में आरक्षण से क्या आपका जीवन स्तर सुधरा? जबाव में सामान्य वर्ग के 50 और एससी-एसटी वर्ग के 31 फीसदी लोगों ने कहा कि नहीं.

पूरा सर्वे राजस्थान पत्रिका के 2 अक्टूबर के ईपेपर पर देखा जा सकता है.

इस सर्वे के साथ पत्रिका के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का संपादकीय लेख भी है. इस संपादकीय में सर्वे की प्रणाली यानी मैथडोलॉजी के बारे में सिर्फ यह जानकारी मिलती है कि सर्वे 2 लाख 62 हजार लोगों के बीच किया गया है. 

राजस्थान पत्रिका के आरक्षण और जाति पर क्या विचार हैं, ये किसी से छिपा नहीं है क्योंकि पत्रिका ने उसे कभी छिपाया नहीं है. आरक्षण के सवाल पर पत्रिका में कई संपादकीय पहले भी छप चुके हैं. 30 अगस्त 2015 को गुलाब कोठारी ने बाकायदा संपादकीय लिखा था कि “आरक्षण से अब आज़ाद हो देश.

फिर भी यह मानकर चलना चाहिए कि ये सर्वे ईमानदारी से किया गया है. प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य राजस्थान पत्रिका की नीयत पर शक करना नहीं है. मौजूदा सर्वे की प्रणाली को लेकर कुछ प्रश्न जरूर हैं, जिनका जवाब राजस्थान पत्रिका अगर दे दे, तो उससे सर्वे की विश्वसनीयता बढ़ेगी.

  1. यह सर्वे किसने किया है? क्या इसके लिए किसी एजेंसी को काम सौंपा गया या राजस्थान पत्रिका के कर्मचारियों ने खुद ही दो लाख 62 हजार लोगों से बात की? ये सर्वे किस समय अवधि में किया गया है, इसकी जानकारी भी नहीं दी गई है.
  2. अगर यह सर्वे किसी एजेंसी ने किया, तो वो एजेंसी कौन सी है?
  3. यह सर्वे किस तरह किया गया, क्या सर्वे करने वाले लोगों के पास खुद गए या टेलीफोन से बात की या ईमेल से जवाब मंगाया गया? क्या लोगों ने अपने फॉर्म खुद भरे या उनसे पूछकर सर्वे करने वालों ने ये फॉर्म भरे?
  4. जिन लोगों का सर्वे किया गया, उनका चयन कैसे किया गया? उनमें कितने शहरी और कितने ग्रामीण थे? उनकी शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति क्या थी? आर्थिक स्थिति जानना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आर्थिक आधार पर आरक्षण और क्रीमी लेयर जैसे सवाल उनसे पूछे गए हैं.
  5. सर्वे का दावा है कि इसमें सामान्य वर्ग और एससी-एसटी के लोग समान संख्या में थे, तो क्या हर व्यक्ति से पूछा गया कि वे किस वर्ग के हैं?
  6. सामान्य वर्ग का क्या मतलब समझा गया? चूंकि ओबीसी या पिछड़ी जातियां भी आरक्षण के दायरे में हैं तो वे सामान्य हैं या नहीं? क्या सर्वे करने वालों ने ओबीसी उत्तरदाताओं को बताया कि आप भी आरक्षण के दायरे में है?
  7. क्या सर्वे में ओबीसी को अलग से गिना गया?  अगर उन्हें सामान्य वर्ग में गिना गया तो सर्वे में कितने सवर्ण और कितने ओबीसी थे?
  8. क्या जवाब देने वालों को मालूम था कि सवाल पूछने वाले किस जाति समूह के हैं? यानी वे सामान्य वर्ग के हैं या एससी-एसटी के?
  9. सवाल पूछने वालों की सामाजिक संरचना क्या थी? उनमें से कितने सामान्य वर्ग के और कितने एससी-एसटी वर्ग के थे?
  10. इस रिपोर्ट को संकलित करने वाले दीपेश तिवारी और इस पर संपादकीय लिखने वाले गुलाब कोठारी किस समूह से हैं? सामान्य या एससी-एसटी?

सर्वे के मेथड संबंधी इन सवालों का जवाब जाने बगैर यह कह पाना मुश्किल है कि यह सर्वे कितना विश्वसनीय है. इस सर्वे और उसकी प्रणाली के बारे में चूंकि हम सब बहुत कम जानते हैं इसलिए फिलहाल सर्वे की विश्वसनीयता पर कोई टिप्पणी करना उचित नहीं होगा.

लेकिन इस सर्वे में जो छपा है, उसके आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं?

  1. इस सर्वे की यह बुनियादी कमजोरी है कि इसके लिए सवाल तैयार करने वालों ने आरक्षण संबंधी संविधान के प्रावधानों को या तो पढ़ा नहीं है, या फिर उसकी भावना को समझने में असमर्थ हैं. आरक्षण के बारे में संविधान के अनुच्छेद 16(4) में जो लिखा है, उसका मतलब है कि आरक्षण वंचित समुदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए है. इसका मकसद आर्थिक समानता लाना या किसी को लाभ पहुंचाना नहीं है. आरक्षण गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम नहीं है. उसके लिए सरकार के पास कई और योजनाएं हैं. इसलिए आरक्षण संबंधी किसी सर्वे में यह पूछना कि “सरकारी नौकरी में आरक्षण से क्या आपका जीवन स्तर सुधरा” या कि “क्या आरक्षण से आर्थिक समानता आई” अपने मूल में ही गलत सवाल है. आरक्षण जीवन स्तर सुधारने या आर्थिक समानता लाने की योजना है ही नहीं.
  2. एक संकेत यह भी मिलता है कि यह सर्वे पूर्व निर्धारित जवाब पाने के मकसद से किया गया है. इसके हिसाब से ही सवालों की भाषा तय की गई है. मिसाल के तौर पर इस सवाल को लीजिए कि क्या आरक्षण से सामाजिक वैमनस्य बढ़ा है तो इसका स्वाभाविक जवाब होगा कि हां ऐसा हुआ है. यह जवाब समाज के सभी वर्गों से आएगा. लेकिन क्या इसकी वजह से आरक्षण खत्म कर देना चाहिए तो एससी-एसटी वर्ग के सिर्फ 19 फीसदी लोगों का जवाब है कि आरक्षण खत्म कर देना चाहिए. पत्रिका ने अपने सर्वे में अगर हर शैक्षणिक समूह के लोगों को लिया है तो मुमकिन है कि ये वो लोग हों, जो निरक्षर हों और जो आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान और उसकी उपयोगिता के बारे में न जानते हों. सर्वे की हेडलाइन लिखते हुए इसका जिक्र नहीं है कि एससी-एसटी के बहुत ही कम लोग आरक्षण के खिलाफ हैं. 
  3. सर्वे में एक सवाल है कि “क्या आरक्षित वर्ग को आरक्षण का पूरा फायदा मिला?” मध्य प्रदेश के सर्वे में सामान्य वर्ग के 60% लोगों ने इसका जवाब हां में दिया. लेकिन इसकी हेडलाइन ये लिखी गई- मध्य प्रदेश में सामान्य वर्ग के 60%  लोगों का कहना था कि “आरक्षित वर्ग को आरक्षण का पूरा फायदा मिल चुका है.” पूरा फायदा मिला है की बात सवाल में थी जो हेडलाइन में आकर कुछ ऐसी हो जाती है मानों उनको पूरा लाभ मिल चुका है और अब और लाभ मिलने की जरूरत नहीं है.
  4. कई बार लीडिंग सवाल पूछकर मनचाहा जवाब पा लिया जाता है. मिसाल के तौर पर अगर एससी-एसटी के किसी आदमी को ये न मालूम हो कि आर्थिक आधार पर आरक्षण होने से वह खुद आरक्षण के दायरे से बाहर हो जा सकता है तो वह यह जवाब दे सकता है कि आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए. लेकिन यह उसका सुचिंतित या इनफॉर्म्ड जवाब नहीं है. सही जवाब पाने के लिए प्रश्नकर्ता को ये बताना होगा कि आर्थिक आधार पर आरक्षण का क्या मतलब है और ये कैसे लागू होता है. पत्रिका के सर्वे में ये नहीं बताया गया है कि सवाल पूछने वालों ने ये काम किया था या नहीं.
  5. आरक्षण से वैमनस्य बढ़ने वाला सवाल भी लीडिंग क्वेश्चन है. इससे ये पता नहीं चलता है कि जब आरक्षण नहीं था तब क्या उनके संबंध बहुत सौहार्दपूर्ण थे. जब नौकरियों में एससी-एसटी बिल्कुल नहीं होते थे, तब क्या उनके और सामान्य तबकों के संबंध मधुर हुआ करते थे? जिसे सवाल पूछने वाला संबंध बिगड़ना कह रहा है, वह कहीं सामाजिक गतिशीलता तो नहीं है? आरक्षित वर्ग में आरक्षण को लेकर कड़वाहट नहीं हो सकती. इस कड़वाहट का स्रोत गैर-आरक्षित समुदाय है. अगर सवाल को इस तरह से पूछा जाए कि क्या आरक्षण की वजह से आप अन्य समुदाय से नफरत करते हैं तो जवाब कुछ और आएगा.

दरअसल इस तरह के सर्वे या जातिगत दुर्भावना से भरे लेख भारतीय मीडिया की सामाजिक संरचना और उसके रेवेन्यू मॉडल की वजह से भी हो सकते हैं. मीडिया स्टडीज ग्रुप ने 2006 में राष्ट्रीय मीडिया की सामाजिक संरचना जानने के लिए एक सर्वे किया तो पता चला कि मीडिया के निर्णायक पदों पर ज्यादातर हिंदू सवर्ण जातियों के लोग हैं. इसके बाद कई राज्यों में मिलते जुलते सर्वे में ऐसे ही नतीजे आए और अब यह सर्वमान्य है कि भारतीय मीडिया में दलित, आदिवासी और ओबीसी खासकर बड़े पदों पर अनुपस्थित हैं. इसके अलावा मीडिया की आर्थिक संरचना भी इसकी एक संभावित वजह है. भारतीय मीडिया के रेवेन्यू मॉडल में आमदनी का मुख्य स्रोत विज्ञापन हैं और विज्ञापनदाता ऐसा अखबार चाहते हैं, जिसे उच्च वर्ग और मध्य वर्ग के लोग पढ़ते हों.  मुमकिन है कि राजस्थान पत्रिका के ज्यादातर पाठक एससी-एसटी और ओबीसी हों. लेकिन उसके खाते-पीते पाठक ज्यादातर सवर्ण तबकों के हो सकते हैं. शायद इसलिए राजस्थान पत्रिका ऐसी सामग्री छाप रहा है, जो सवर्ण जनमानस को पसंद आए. एससी-एसटी-ओबीसी की नाराजगी उसके लिए खास आर्थिक नुकसान का सबब नहीं है.

क्या राजस्थान पत्रिका के मालिक-संपादक का दिमाग इसी तरह काम कर रहा है?  अगर राजस्थान पत्रिका सचमुच जातिवाद के खिलाफ होता तो इस सर्वे से सिर्फ दो दिन पहले 30 सितंबर को पूरे दो पेज पर जाति आधारित शादी के रिश्तों के विज्ञापन न छापता!     

(लेखक एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के एक्जिक्यूटिव कमेटी मेंबर हैं और इंडिया टुडे के मैनेजिंग एडिटर रहे हैं. उनकी किताब मीडिया का अंडरवर्ल्ड को सूचना और प्रसारण मंत्रालय का भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान मिला है)