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गांधी जयंती: शहर के हाशिये पर खड़ा आम आदमी अपने गांव को देखता है

जनमानस में राष्ट्रीयता की भावना पैदा करना गांधी का देश को सबसे बड़ा योगदान था. गांवों से लेकर शहरों तक, सबको एक विचार को साकार करने के लिए जोड़ देना उनका अहम प्रयास था. गांधीवाद क्या है? और कहां है आज का वो जनमानस जो उनकी आवाज़ पर उठ खड़ा हुआ था?

हाल ही में देश के बड़े हिंदी अखबारों में से एक के मुखपृष्ठ की ख़बर का आशय था कि जीडीपी के बढ़ने से जॉब, आय और जीवन स्तर में कोई अंतर नहीं आया है. अखबार ने तिमाही आकंड़ों के आधार पर ये बात कही है. पर आख़िर सत्तर सालों का भी रिकॉर्ड कोई विशेष तो नहीं कहा जा सकता. पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजना के बाद राष्ट्रीय आय में 42% की वृद्धि हुई थी, पर प्रश्न तब भी यही था, फ़ायदा किसको हुआ? क्या गांधी का अर्थव्यवस्था पर दर्शन इस सवाल का हल हो सकता है कि आख़िर इतने सालों में भी क्यूं आम आदमी हाशिये पर खड़ा रह गया?

गांधी की कोई विशेष अर्थ नीति नहीं थी और न ही वे जॉन केयींस, जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे अर्थशास्त्री थे. गांधी ने अर्थव्यवस्था को आम जनता के नजरिए से समझा और समझाया क्योंकि अर्थव्यवस्था तो इन बड़े-बड़े महारथियों के पहले भी थी और बाद में भी रहेगी. जेबी कृपलानी लिखते हैं, ‘गांधी के जीवन दर्शन में आर्थिक वर्गीकरण, यानी क्लासेज़, की कोई जगह नहीं थी. यहीं उनका दर्शन मार्क्स या अन्य अर्थशास्त्रियों से अलग हो जाता है. गांधी सामाजिक सम्पत्ति (सोशल वेल्थ) की बात करते हैं, उनके मुताबिक कोई भी व्यक्ति अकेले रहकर कुछ नहीं निर्मित कर सकता. इस निर्माण प्रक्रिया से उसके सामाजिक रिश्ते बनते हैं. इसलिए इस सोशल वेल्थ का सब में बराबर बंटना उन्हें ज़रूरी लगता था. उनका मानना था, अगर ये संभव नहीं है, तो समानुपात में बंटे. गांधी के आर्थिक दर्शन का मूल था अमीर गरीबों के ट्रस्टी हैं.

गांधी के ग्रामीण और कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करने के विचार को हिन्दुस्तान के कई बुद्धिजीवियों ने नाकारा. आप भी कहेंगे कि क्या घिसी-पिटी बात लेकर बैठ गए? हो सकता है ये घिसी-पिटी बात हो, और सबको मालूम भी हो. पर हम क्यों भूल रहे हैं कि गांव के गांव खाली हो रहे हैं, पलायन हो रहा है? क्यों चुप हैं कि देश की 90 प्रतिशत से ज़्यादा सम्पति कुछ विशेष हाथों में केंद्रित है? क्यों नहीं बोलते कि नक्सलवाद का एक कारण अपने इलाकों से आदिवासियों का बेदख़ल किया जाना भी है? इसलिए, अब जब अर्थशास्त्री कहने लगे कि समाज को बचाने के लिए पूंजीवाद का मानवीय चेहरा होना आवश्यक है, तो मान लेना चाहिए कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई है. शायद गांधी की उस घिसी-पिटी बात में इन मुश्किलों का हल मिले, तो एक फिर से उनके विचारों को देख लेना लाजिमी होगा.

अंग्रेज़ो के आने से पहले भारत की जो आर्थिक सम्पदा थी वो गांवों और घरों से आती थी. कपड़े, मसाले इन्हीं जगहों से निकलकर यूरोप और एशिया के बाजारों में जाते थे. गांवों के समूह आपस में एक दूसरे पर निर्भर थे. अंग्रेज़ों ने आते ही इस व्यवस्था को बड़ी चालाकी से ख़त्म कर दिया. गांधी इसी व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की बात कहते थे. क्योंकि गांव देश की इकाई है और इकाई मज़बूत है, तो देश मज़बूत है.

आज़ादी के तुरंत बाद नेहरु ने बड़े स्तर पर औद्योगीकरण की पहल की, पर उनके सलाहकारों ने उन्हें इसके विपरीत राय दी. उनका मानना था कि शहरी उद्योगों को गांवों से मज़दूर मिलेंगे जिससे पलायन बढ़ेगा. जब शहर इस पलायन को संभाल नहीं पायेंगे, तो असंतोष बढ़ेगा. नेहरु दूरदृष्टा थे, उन्होंने अपनी इच्छा को दरकिनार कर कृषि पर अपना ध्यान केंद्रित किया. विशेषज्ञों का मत है कि भारत जैसी भौगोलिक व्यवस्था वाले देशों में जहां आज़ादी के बाद बनी लोकत्रांतिक सरकारों ने औद्योगीकरण पर ज़ोर दिया, वो नाकामयाब रहीं. उन देशों में लोकतंत्र लड़खड़ाने और तानाशाही के पांव जमाने की एक वजह यह भी रही. भारत में लोकतंत्र के बचे रहने में ग्रामीण व्यवस्था का मज़बूत होना एक बड़ी बात मानी जाती है. आप कहेंगे कि इसके लिए पंचायती राज व्यवस्था ज़िम्मेदार है. तो इसका जवाब ये है कि गांव बचेंगे तो ही पंचायतें भी बचेंगी.

गांधी पर ये भी इल्ज़ाम लगे कि वो तकनीक और व्यापक उत्पादन के ख़िलाफ़ थे. ख़ुद गांधी ने एक इंटरव्यू में कहा था, “मेरा ये मानना नहीं था, ये मेरे ख़िलाफ़ फैलाई गयी बात है, जिसे कुछ अखबारों ने हवा दी है. मेरा विरोध मशीनों द्वारा उन व्यापक उत्पादनों के ख़िलाफ़ है, जिन्हें गांव आसानी से बना सकते हैं.”

मशीनों के प्रति अपने तथाकथित विरोध का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था, “जब मानव एक बेहद शानदार मशीन है, तो मैं कैसे इनका विरोध कर सकता हूं? मेरा विरोध उस मशीनरी को लेकर है जो मजदूरों से रोज़गार छीन लेंगी.” अब गांधी की ये बात हमें शायद रुढ़िवादी लगे. पर आज के सफलतम बिजनेसमैन जैसे जैक मा, एलन मस्क या मशहूर वैज्ञानिक स्वर्गीय स्टीफन हॉकिंग्स जैसे लोग मानते थे कि आर्टिफ़ीशियल इंटेलिजेंस बेरोज़गारी को बढ़ाएगी.

गांधी ने कहा था, “भारी उद्योग जैसे बिजली परियोजनाएं, जहाज-रानी, स्टील की फक्ट्रियां गांवों के उद्योगों के सहारे पनपे तो बेहतर होगा.” कुटीर उद्योग को मज़बूत करने के लिए उन्होंने बिजली के इस्तेमाल की बात कही जिससे कामगारों का समय बचे, उत्पादन बढ़े और वो ज़मीन से अलग न हों. कृपलानी लिखते हैं, “गांधी प्रत्येक घर को एक फैक्ट्री बनाना चाहते थे.” 60 से 70 के दशक में जापान में जो हुआ वो इसका उदहारण हो सकता है.

देखा जाए तो नेहरु औद्योगीकरण प्लान का सार यही था; भारी उद्योगों द्वारा पूंजीगत वस्तुओं और ग्रामीण उद्योगों द्वारा उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण, जिससे बड़े पैमाने पर रोज़गार सृजन हो. कई सालों बाद, मनमोहन सिंह की सरकार ने इसी मॉडल को लागू किया पर उसमें से गांव को हटा दिया. उसके बाद जो हुआ, वो सबके सामने है. गांधी गांवों को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे. सरकारों ने पहले गांवों को लाचार बनाया और फिर स्कीमें चलाकर लीपापोती की. गांधी होते, तो इसकी ख़िलाफ़त करते.

भारत पहला और आख़िरी देश नहीं है जहां औद्योगीकरण हुआ. ऐसे में देख लें कि जिस समस्या से आज हम दो-चार हो रहे हैं, क्या पहले विश्व में कोई और भी हुआ है? महान विचारक बरट्रेंड रसल अपनी पुस्तक ‘अधिकार और व्यक्ति’ में स्कॉटलैंड में हाथ से बुने जाने वाले ट्वीड (खुरदरा कपडा जिससे कोट बनता है) के कुटीर उद्योग के ख़त्म होने पर लिखते हैं, “पहला, एक कौशल ख़त्म हो गया जिसका इस्तेमाल लोगों ने खुद को व्यक्त करने, आत्मनिर्भर रहने और जो मुश्किल वक्त में जीवनयापन में काम आता. दूसरा, मशीन से उत्पाद की ख़ूबसूरती उस दर्ज़े की नहीं है और तीसरा, स्थानीय उद्योगों के क़त्ल किये जाने से हुआ पलायन शहरों को बेतरतीब ढंग से बढ़ाएगा. आज़ाद बुनकर किसी बीमार शहर की एक बीमार मिल में इकाई बनकर रह जाएगा. बुनकर अपने हुनर के सहारे आर्थिक रूप से स्वतंत्र न रहकर, अन्य ताक़तों पर निर्भर हो जाएगा. वो किसी एक ऐसी संस्था (फैक्ट्री) में खोकर रह जाएगा जिसके असफल होने पर बुनकर ख़त्म हो जाएगा.”

रसल ने इसी बात को भारत के परिप्रेक्ष्य में कहा, “भारत गांवों का देश है. औद्योगीकरण की ताक़तें अगर यहां के पारंपरिक उद्योगों का विनाश कर देतीं हैं, तो ये बड़े अफ़सोस की बात होगी.” वो आगे कहते हैं, “हिमालय की नदियों से बनने वाली बिजली शहरों के उद्योग में खपाए जाने से बेहतर है कि गांवों के उद्योगों को आबाद करे, नहीं तो केन्द्रीय औद्योगीकरण सदियों से चले आ रहे रिवाज़ों और तौर तरीकों को बदल देगा.”

गांधी भी इसी इकाई की बचाने की बात करते हैं. पंक्ति में अंतिम खड़े हुए व्यक्ति, यानी इकाई, तक हर विचार को पहुंचाने की प्रक्रिया को गांधीवाद कह सकते हैं. फिर वो चाहे अहिंसा, सत्याग्रह या अर्थव्यवस्था ही क्यों न हो? शहर के हाशिये पर खड़ा ग्रामीण समझ तो रहा था, पर व्यवस्था के आगे बेबस हो गया.