Newslaundry Hindi
‘मंटो’: बुरी ख़बर देने की तमीज़
नंदिता दास निर्देशित फ़िल्म ‘मंटो’ को सार्वजनिक हुए एक सप्ताह गुज़र गया है. इस दरमियान तमाम तरह की तारीफ़ें और मलामत उसके हिस्से आई है. अभिनय, संगीत और एक लेखक के जीवन को हिंदी सिनेमा का विषय बनाने की बातें इसकी प्रशंसा का आधार हैं और इसका कमज़ोर संपादन, गड़बड़ रिसर्च और अपने केंद्रीय किरदार को समग्रता में न व्यक्त कर पाने की बातें इसकी मलामत का.
इस स्थिति से इतर इस फ़िल्म को समझने में इस फ़िल्म का ही एक दृश्य कुछ मददगार हो सकता है. इस दृश्य में मंटो की विवादित कहानी ‘ठंडा गोश्त’ पर अश्लीलता के मुक़दमे की कार्यवाही के दौरान जब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से पूछा जाता है कि क्या वह इस अफ़साने को फ़हश मानते हैं, तब वह कहते हैं कि यह अफ़साना फ़हश तो क़तई नहीं है, लेकिन यह लिटरेचर के पैमाने पर खरा नहीं उतरता. फ़िल्म ‘मंटो’ के बारे में अगर इस तरह ही कुछ कहने की कोशिश करें तो कह सकते हैं कि यह फ़िल्म ख़राब तो क़तई नहीं है, लेकिन सिनेमा में बायोपिक के पैमाने पर खरी नहीं उतरती है. यह न उतरना इसलिए दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि यह फ़िल्म सिनेप्रेमियों के लिए बहुत कम और मंटोप्रेमियों के लिए बहुत ज़्यादा है. यह संयोग नहीं है कि इसके कई शो रद्द करने पड़े हैं. महानगरों तक में इसे देखने के लिए लंबी यात्राएं करनी पड़ी हैं, क्योंकि यह आस-पास कहीं नज़र नहीं आई. पूरे दिन में इसके एक या दो शो ही दिखे, जिनमें सीटें बेतरह ख़ाली रहीं.
सिनेमा में बायोपिक के पैमाने पर खरा न उतर पाने का ‘मंटो’ का यह दुर्भाग्य तब और बड़ा हो जाता है, जब महज़ 42 वर्ष की उम्र पाए मंटो का जीवन और लेखन इस फ़िल्म में समग्रता से न भी सही, लेकिन टुकड़ों-टुकड़ों में भी सही से बयां नहीं हो पाता. यों लगता है कि एक बेहद दिलचस्प और अर्थपूर्ण जीवन का खंडित या कहें अधूरा कोलाज़ सामने है. इस संसार में कला के संसार में एक कलाकार के संघर्ष की ऊंचाइयां, उसकी बेचैनियों का कोई साफ़-सही-समग्र वृत्तांत ही जब आपके पास नहीं है, तब आपके चुनाव पर संदेह होता है और यहां आकर ‘मंटो’ बग़ैर बड़ी तैयारी के सिनेमा में साहित्यिक नज़र आने की आकांक्षा का दुष्परिणाम प्रतीत होती है.
मंटो के वर्ष भारतीय इतिहास और अदब के भी महत्वपूर्ण वर्ष हैं. वे कभी भुलाए न जा सकेंगे. इनमें वैसा ही कोलाहल है, जैसा कि मंटो के जीवन और लेखन में. उस दौर के साहित्य और सिनेमा के सबसे ज़रूरी हस्ताक्षरों से मंटो की नज़दीकियां थीं. वह मृत्यु तक उस दर्द से त्रस्त रहे जिसे अब ‘विभाजन की विभीषिका’ कहा जाता है. वह उन लेखकों में हैं जिन्हें अपने लेखन के बचाव में अदालतों में सफ़ाई देनी पड़ी. जेल और जुर्माने के साए में रहना पड़ा. वह अल्कोहलिक हुए और पागलख़ाने में उनका इलाज चला.
इस तरह देखें तो मंटो में वह सब कुछ है जिसे लेकर एक यादगार फ़िल्म बनाई जा सकती है, लेकिन हिंदी सिनेमा में ख़राब बायोपिक्स की अब एक परंपरा-सी ही बनती जा रही है. इन्हें सराह पाने का सिर्फ़ एक तर्क हो सकता है, वह यह कि इन्हें इनके केंद्रीय किरदार और विषय से काटकर एक अलग कहानी या फ़िल्म की तरह देखा जाए. इस सिलसिले में वही हिंदी फ़िल्में व्यावसायिक स्तर पर ज़्यादा कामयाब भी नज़र आती हैं, जो अपने केंद्रीय किरदार और विषय को सूक्ष्मता और सच्चाई से व्यक्त करने के बजाय एक मुंबइया फ़िल्म होने में ख़ुद को ख़र्च कर देती हैं.
‘मंटो’ के साथ समस्या यहीं से पैदा होती है कि वह ख़ुद को इस तरह ख़र्च नहीं करती है, वह इसके समानांतर होने की कोशिश करती है. लेकिन इसका दर्शक कौन है? इस सवाल पर सोचते हुए सीधे यह ध्यान आता है कि जैसे राजकुमार हिरानी की ‘संजू’ के दर्शक संजय दत्त की फ़िल्में पसंद करने वाले दर्शक होंगे ही, वैसे ही ‘मंटो’ के दर्शक मंटो के पाठक ही होंगे, अगर वे सिनेमा देखते हैं तो… यह फ़िल्म मंटो के नए पाठक बनाने नहीं जा रही, क्योंकि इसकी ऐसी कोई योजना और पहुंच नहीं है. फ़िल्म और लिटरेचर फ़ेस्टिवल्स जहां प्रबुद्धता और संदिग्धता का अजब संगम होता है, वहां यह फ़िल्म ज़रूर कुछेक वर्ष जीवित रहेगी.
हिंदी सिनेमा के लिए अब तक साहित्य एक दोयम और हाशिए की शै है. इसलिए इस इलाक़े में ‘मंटो’ सरीखे कमतर प्रयत्न भी आपको अलहदा बनाने के लिए पर्याप्त हैं. यह करके आप सिनेमा के संसार में बौद्धिक और बौद्धिकों के संसार में साहित्य की फ़िक्र करने वाले फ़िल्मकार आसानी से नज़र आ सकते हैं. दोनों तरफ़ आपकी आवाजाही शुरू हो सकती है. एक बड़ी दुनिया जिसमें आपकी एक मामूली दुनिया है, को एक छोटी दुनिया से जोड़कर जो आपकी दुनिया ही नहीं है—आप अपने लिए एक अलग दुनिया बना सकते हैं. इससे कुछ सार्थक कर लेने का सुकून बना रह सकता है.
इन दिनों जब दीन और देश भीषणतम मुश्किल में घिरे हुए हैं, ‘मंटो’ इतिहास में जाकर उन बुरी ख़बरों को तमीज़ से सुनाने की कोशिश है, जो नए-नए चेहरों के साथ आज भी सुनाई देती रहती हैं. लेकिन ‘मंटो’ का मंटो अगला बाल ठाकरे है. वह ‘मंटो’ के प्रीमियर की तुलना में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम और संघ प्रमुख के साथ नज़र आने को ज़्यादा प्रमुखता देता है. आख़िर रचना में गहराई और स्मृति में बस जाने लायक़ असर कहां से पैदा होगा, जब आपका आचरण ही आपकी रचना के विरुद्ध है.
मंटो को लिखे एक ख़त में श्याम के शब्द हैं: ‘‘जब प्रेमी के पास शब्द समाप्त हो जाते हैं, वह चूमना आरंभ कर देता है और जब किसी वक्ता के पास शब्दों का भंडार ख़त्म हो जाता है, तो वह खांसने लगता है.’’ (देखें: मीनाबाज़ार) यहां यह कहने की ज़रूरत है कि ‘मंटो’-प्रेमियों को अब इसे चूम लेना चाहिए और इसके निंदकों को खांसने लग जाना चाहिए.
Also Read
-
Decoding Maharashtra and Jharkhand assembly polls results
-
Adani met YS Jagan in 2021, promised bribe of $200 million, says SEC
-
Pixel 9 Pro XL Review: If it ain’t broke, why fix it?
-
What’s Your Ism? Kalpana Sharma on feminism, Dharavi, Himmat magazine
-
महाराष्ट्र और झारखंड के नतीजों का विश्लेषण