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पार्ट 2: उन्नीसवीं सदी में हिंदी पत्रकारिता की विकास यात्रा

भारत के पहले अख़बार “बंगाल गजेट” (अंग्रेजी) 1780 में प्रकाशित होने के 46 वर्षों बाद हिन्दी को अपना पहला साप्ताहिक अख़बार मिला. इन 46 वर्षों के अंतराल में खड़ी बोली के विकास की शुरुआती सुगबुगाहट मिलने लगी थी. इसका एक संकेत इस तथ्य में देखा जा सकता है कि भाषाविदों ने खड़ी बोली में पहली पुस्तक का प्रकाशन वर्ष इसी अंतराल में बताया है.

उषा माथुर के शोध खड़ी बोली विकास के आरंभिक चरण (इलाहाबाद, 1990) के अनुसार खड़ी बोली में लिखी गई पहली कुछ पुस्तकों में से एक थी प्रेमसागर जो 1803 में प्रकशित हुई. भागवत पुराण की कथा पर आधारित यह पुस्तक खड़ी बोली में होते हुए भी ब्रज बोली से प्रभावित थी. इसके लेखक कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज से जुड़े हुए लल्लूलाल थे. ईस्ट इंडिया कंपनी के युवा अधिकारियों का प्रशिक्षण इस संस्थान में होता था और भारतीय भाषाओँ के अध्ययन के लिए पुस्तकें भी यहां तैयार होती थी. इसी श्रृंखला में लल्लूलाल ने ये पुस्तक लिखी.

खड़ी बोली, जिसमें आधुनिक हिन्दी का प्रारूप देखा जा सकता है, आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ और उसके आस-पास की बोली थी. लेकिन भारत के उत्तर, मध्य और पूर्व के कुछ इलाकों में विस्तार की प्रक्रिया में उस पर ब्रज के साथ-साथ अवधी, फ़ारसी और उर्दू का भी असर दिखा. चूंकि हिन्दी की बोलियां या उपभाषाएं प्रकृत से हैं आई हैं, इसलिए प्राचीन भाषा संस्कृत का प्रभाव उन पर स्वाभाविक ही था. यह जानना भी रोचक है कि भाषाविद अमृत राय के अनुसार (अ हाउस डिवाइडेड, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1984) 1800 के आस-पास ही एक भाषा के रूप में उर्दू शब्द का उल्लेख मिलता है.

पहली पुस्तक की तरह ही हिन्दी भाषी क्षेत्र से दूर हिन्दी का पहला अख़बार भी कलकत्ता (आज का कोलकाता) से प्रकाशित हुआ. इसके कई कारण दिखते हैं. तत्कालीन भारत की राजनीतिक राजधानी होने के साथ कलकत्ता उस समय की वाणिज्यिक राजधानी भी थी. उत्तर भारत के हिन्दी भाषी बड़ी संख्या में कलकत्ता में रहते थे. फ्रांसेस्का ओर्सीनी (हिंदी पब्लिक स्फेयर, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2002) के अनुसार बंगाल में विकसित प्रकाशन उद्योग और मारवाड़ी व्यापारियों का पूंजी निवेश भी इसका कारण हो सकता है, खासकर तब जब मारवाड़ी समुदाय हिन्दी को देश के विभिन्न भागों में व्यापारिक-भाषा के रूप में प्रयोग कर रहा था. हिन्दी में लिखने वालों का भी एक समूह कलकत्ता में तैयार हो चुका था.

हज़ारीप्रसाद द्विवेदी (हिन्दी साहित्य – उद्भव और विकास, राजकमल प्रकाशन) इसके पीछे एक और कारण की ओर भी संकेत करते हैं. उनके अनुसार क्रिस्चियन मिशनरियों के प्रयासों ने भी हिंदी में प्रकाशन को बल दिया. भारतीय भाषाओं में बाइबल के प्रचार के लिए इन संस्थानों ने हिन्दी भाषा में प्रकाशन को प्रोत्साहित किया. इसी सन्दर्भ में मीडिया विश्लेषक सेवंती नाइनन (हेडलाइंस फ्रॉम द हार्टलैंड, सेज, 2007) ने द्विवेदीजी के पुस्तक का उल्लेख करते हुए लिखा है कि 1799 में विलियम कैरी ने कलकत्ता के सेरामपुर में डेनिश मिशनरी की स्थापना किया. यहां बाइबल को हिन्दी, बघेली, छत्तीसगढ़ी. कन्नौजी और भोजपुरी में अनुवाद करने की प्रक्रिया में लिपि के फ़ॉन्ट्स भी विकसित हुए.

30 मई 1826 को कलकत्ता में वकालत कर रहे कानपुर के वकील जुगल किशोर सुकूल (शुक्ल) ने हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन शुरू किया. वह इसके संपादक भी थे. वित्तीय समस्याओं के कारण यह पत्रिका करीब डेढ़ वर्ष तक ही प्रकाशित हो सकी, इसलिए भुला ही दी गई थी लेकिन मॉडर्न रिव्यु के सह-संपादक बृजेन्द्र नाथ बनर्जी ने 1931 में अपने लेख के द्वारा उदन्त मार्तण्ड को फिर से जन-स्मृति में ताज़ा किया.

पहले अंक में अपने सम्पादकीय में जुगल किशोर ने लिखा कि हालांकि अंग्रेजी, बंगाली और फ़ारसी में समाचार पत्र कई हैं, ऐसे प्रकाशन उन तक ही सीमित हैं जो ये भाषाएं जानते हैं. एक ऐसे समाचारपत्र की ज़रुरत है जिसे हिंदुस्तानी खुद पढ़ सकें. जुगल किशोर उदन्त मार्तण्ड के पहले अंक में संस्कृत में श्लोक और ब्रज भाषा के कुछ दोहे भी प्रकाशित हुए थे. नाइनन के अनुसार इस अख़बार की भाषा में इसके संपादक का खड़ी बोली, संस्कृत, फ़ारसी और ब्रज भाषा का ज्ञान दिखता था.

लेकिन जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी (हिंदी पत्रकारिता का इतिहास, प्रभात प्रकाशन, 2004) ने इस अख़बार की भाषा के बारे में कुछ और कहा है. उनके अनुसार उदन्त मार्तण्ड में प्रमुख रूप से दो भाषाओं का प्रयोग हुआ, ब्रज और मध्य भारत की एक बोली जिसे मध्यदेशिया भाषा कहा जाता था.

उदन्त मार्तण्ड के बाद हिंदी अख़बार प्रकाशन में कुछ और प्रयोग हुए. इनमें से एक था बंगदूत जो समाज सुधारक राजा राममोहन रॉय ने अंग्रेजी, बंगाली, फ़ारसी के साथ-साथ हिंदी में भी मई 1829 से प्रकाशित करना शुरू किया. जुगल किशोर शुक्ल ने एक बार फिर से नया हिंदी अख़बार समयादण्ड मार्तण्ड 1852 तक प्रकाशित किया.

कलकत्ता में इसके साथ-साथ एक और चीज़ देखने को मिली. हिन्दी को बहुभाषीय अख़बारों का हिस्सा बनना पड़ा. 1846 से प्रकाशित इंडियन सन में हिन्दी के लिए अंग्रेजी, बंगाली, उर्दू और फ़ारसी के साथ पांच सामानांतर स्तम्भों में एक स्तम्भ दिया गया. किसी दैनिक समाचार पत्र में हिंदी का प्रयोग भी एक द्विभाषीय अख़बार में ही हुआ- 1854 से प्रकाशित समाचार सुधावर्षण में कुछ अंश बंगाली और कुछ हिन्दी में लिखे जाते थे.

कलकत्ता के बाहर हिंदी भाषी प्रांतो में उन्नीसवीं शताब्दी में फ़ारसी और उर्दू पत्रकारिता की प्रमुख भाषाएं थी. कुछेक अख़बार ही इन प्रांतों में हिंदी में प्रकाशित हो रहे थे. इनमें के एक 1845 से वाराणसी में प्रकाशित बनारस अख़बार था जिसकी लिपि तो देवनागरी थी किन्तु भाषा उर्दू. मध्य भारत में यह 1849 से मालवा अख़बार के नाम से इंदौर में प्रकाशित हुआ.

यह वह समय भी था जब फ़ारसी से ज्यादा उर्दू इन प्रांतों में प्रशासनिक रूप से महत्वपूर्ण हो गई थी क्यूंकि 1837 में इन प्रांतों में उर्दू को अदालत की भाषा के तौर पर फ़ारसी की जगह दे दी गई थी. इससे उर्दू में प्रकाशन में भी बढ़ोतरी आई. इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इस शताब्दी के अंत में उर्दू में 73 प्रकाशन मौजूद थे जबकि हिंदी के केवल 20.

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जो अख़बार आए उनमें खड़ी बोली का कोई निश्चित और स्थायी रूप नहीं था. यह स्थायित्व एक लम्बी प्रक्रिया से आया. जिसका बीज उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में साहित्यिक पत्रकारिता ने डाला. भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र की साहित्यिक पत्रकारिता इसी समय की उपज थी.

भारतेन्दु ने आधुनिक और प्राचीन साहित्यिक रचनाओं को पहले मासिक पत्रिका कविवचन सुधा में स्थान दिया (जो बाद में साप्ताहिक बनी) और फिर 1874 में हरिश्चंद्र पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया. इस काल की हिंदी पत्रकारिता का अध्ययन करते हुए रामरत्न भटनागर (द राइज एंड ग्रोथ ऑफ़ हिंदी जर्नलिज्म 1826-1945) लिखते हैं कि इस पत्रिका में समकालीन सामाजिक और आर्थिक विषयों पर भी टिप्पणियां रहती थीं. भारतेन्दु ने हिंदी में महिलाओं के लिए पहली पत्रिका बाला बोधिनी भी प्रकाशित की.

भारतेन्दु की पत्रिकाओं में, खासकर कविताओं में, ब्रज बोली का प्रयोग काफी हुआ है, किन्तु गद्य में खड़ी बोली को महत्वपूर्ण स्थान मिला. एक और उल्लेखनीय बात थीं कि भारतेन्दु ने उभरती हुई राष्ट्रीय चेतना में मातृ-भाषा से लगाव पर बल दिया. वह कोई संकीर्ण भाषाई राष्ट्रवाद की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि विश्व भर के विचार, ज्ञान और कला ग्रहण कर अभिव्यक्ति और प्रचार के लिए मातृ-भाषा की वकालत कर रहे थे. मातृ-भाषा में सहजता और प्राकृतिक दायित्व के आयाम को उन्होंने सामने रखा. उनकी एक कविता की इन पंक्तियों में यह सरल सन्देश स्पष्ट है:

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल.
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल.
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार.”

लेकिन हिंदी का प्रशासनिक कार्यों में प्रयोग की लड़ाई पहली बार पटना से छपने वाली बिहार बंधु (जो 1872 तक कलकत्ता से छपती थी) ने लड़ी थी. बालकृष्ण भट्ट और केशवराम भट्ट द्वारा स्थापित इस अख़बार को आरंभिक वर्षों में मुंशी हसन अली ने सम्पादित किया था. 1874 में इसका प्रकाशन पटना से शुरू हुआ और अदालतों में हिंदी के प्रयोग के लिए एक सफल अभियान का नेतृत्व इस अख़बार के पन्नो ने किया.

भारतेन्दु की पहल के बाद कई हिंदी साहित्यिक पत्रिकाएं शुरू हुई और बंद भी हुई लेकिन खड़ी बोली को आकर देकर आधुनिक हिंदी भाषा के ढांचे को स्थापित करने का कार्य अभी बाकी था. यह एक तकनीकी चुनौती थी और ऐतिहासिक भी, विशेष तौर पर हिंदी भाषी प्रांतों के उन लोगों के लिए जो हिंदी को राष्ट्रीय चेतना के माध्यम के रूप में देखते थे.

नई सदी के आरम्भ में सरस्वती पत्रिका का आगमन, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की सक्रिय भूमिका, हिंदी साहित्य सम्मलेन और नागरी प्रचारिणी सभा की भूमिका आधुनिक हिंदी के विकास में उल्लेखनीय बनी. महात्मा गांधी ने जहां हिंदी के महत्व को समझकर इसे अपने ढंग से राष्ट्रीय चेतना में जगह दी वहीं साहित्यिक पत्रकारिता के साथ-साथ हिंदी में विकसित हो रही मुख्यधारा की समाचार- पत्रिका हिंदी के आधुनिक प्रयोग को दिशा देने में लगी थी. यह वह समय था जिसे भाषा के इतिहासकारों ने हिंदी राष्ट्रवाद का भी नाम दिया और कुछ समाज शास्त्रियों ने इसे हिंदी का एक देवी के रूप में देखे जाने की प्रवृति की ओर भी संकेत दिए. हम इस काल के कुछ पहलुओं को अगले भाग में पढ़ेंगे.

(हिंदी दिवस पार्ट-1: साहित्यिक पत्रिकाओं और समाचार पत्रों की आपसी कदमताल