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विष्णु खरे: उन्हें परवाह थी अपने ज़मीर की
हिंदी के सुपरिचित कवि-आलोचक-अनुवादक और पत्रकार विष्णु खरे का कल दोपहर साढ़े तीन बजे दिल्ली के गोविंद वल्लभ पंत अस्पुताल में देहावसान हो गया. 11 सितंबर की रात में किसी वक़्त उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ, लेकिन सुबह 11 बजे उन्हें अस्पताल पहुंचाया जा सका, क्योंकि दो महीने पहले ही वह अपने परिवार को मुंबई में छोड़ एक अरसे बाद दिल्ली लौटे थे- हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में. यह लौट आना तब है, जब गए एक-दो बरस में हुए शारीरिक आघातों की वजह से डॉक्टरों ने उन्हें परिवार से दूर न रहने की सलाह दी हुई थी. लेकिन मुंबई में उनका मन कभी लगा नहीं और वह दिल्ली के लिए तड़पते रहे, क्योंकि वह मुंबई में मरना नहीं चाहते थे- भले ही उनका परिवार मुंबई में था.
दिल्ली विष्णु खरे की कर्म और साहस-भूमि थी. यहां उनका असल संसार था. इस महानगर को छोड़कर जाने की वजहें बहुत दर्दनाक और पारिवारिक हैं, उनका ज़िक्र समयानुकूल नहीं होगा. वैसे विष्णु खरे के विषय में बहुत सारी बातों का ज़िक्र अभी समयानुकूल नहीं होगा, लेकिन लगभग एक हफ़्ते में सामने आई यथार्थबोध से कटी हुई अतार्किक शुभकामनाओं को एक तरफ़ रख दें, तब यह कह सकते हैं कि विष्णु खरे की मृत्यु एक आमंत्रित की गई मृत्यु लगती है. वह अपने ही विरुद्ध हो गए थे. इसका विश्लेषण आगे के वाक्यों पर छोड़ते हुए यहां यह कहना ज़रूरी है कि जीवन के सभी मोर्चों पर यह वक़्त उनका सबसे जर्जर वक़्त था.
भरपूर समझ और सामर्थ्य रखने के बावजूद उन्होंने आलोचना में कोई ख़ास काम कभी नहीं किया. प्रशंसात्मक ब्लर्ब-भूमिका-लेखन और यहां-वहां दिए गए विवादात्मक वक्तव्यों तक स्वयं को सीमित करते हुए वह प्रतिक्रिया के धरातल पर जीवित रहे. जब तलक यह बहुत साफ़ हो पाता कि उन्होंने अपनी मेधा और ऊर्जा का ज़्यादातर अंश व्यर्थ में व्यय किया है, तब तक बहुत देर हो चुकी थी, इतनी देर कि उनकी हालिया टिप्पणियां इतनी हल्की हो गई थीं कि वे कमपढ़ भी उन्हें एक फूंक में उड़ाने लगे थे, जो क़रीब सात रोज़ से बहुत सदाशयता में उनकी पक्षाघात और अस्सी प्रतिशत नाकाम मस्तिष्क से ग्रस्त ज़िंदगी के बचने की दुआएं करते नज़र आए.
सारे देवताओं को एक ही ढंग से पूजने वाले हिंदी के शोकविह्वल-शब्दतत्पर सज्जनों को संभवतः इस तथ्य का इल्म अब तक नहीं है कि हिंदी में विष्णु खरे के जितना मस्तिष्क रखने वाला कवि-लेखक अब हिंदी में दूसरा नहीं है. इस अवसर पर इसमें अतिशयोक्ति न खोजी जाए, लेकिन जब बुद्ध, कबीर, निराला और मुक्तिबोध नहीं रहे होंगे, तब भी उनके रचना-समय को कुछ ऐसा ही लगा होगा. भाषाएं इस प्रकार दरिद्र होती हैं, सिर्फ़ ‘अलविदा विष्णु खरे!’ लिख देना भर पर्याप्त नहीं होता. विष्णु खरे होने का अर्थ समझना पड़ता है.
विष्णु खरे ने अपने मस्तिष्क का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल किया. उनकी जीवन-स्थितियां बचपन से ही उन्हें इसके लिए विवश करती रहीं. विष्णु खरे सरीखे मस्तिष्क उन घरों से नहीं आते हैं, जिन घरों के बच्चों के लिए सब कुछ शुरू से ही बहुत आसान होता है और आख़िर तक बहुत आसान बना रहता है. विष्णु खरे सरीखा मस्तिष्क पूरे समय लड़ता और जूझता रहता है, उसके पास समय, सुविधाएं और संसाधन बेहद कम होते हैं. लेकिन उसके पास प्रतिभा का लोहा होता है, जिसे वह मनवाना चाहता है. वह ज़माने की रफ़्तार में पिछड़ना नहीं चाहता, इसलिए उसके सामने रोज़ एक नई लड़ाई होती है. उसकी ये लड़ाइयां उसे अपने समाज में सारे ब्रह्मांड को समझने की आकांक्षा रखने वाला, अपनी दुनिया को प्रत्येक पल व्यापक करने वाला, अपनी शर्तों पर जीने वाला, किसी और के खेल में शामिल न होने वाला, अपने नियमों से अपना खेल खेलने वाला, सही समझ में आने वाली बात को मजमे के बीच कह देने वाला, सामने वाले की पूर्व-स्थिति को भंग कर देने वाला, मूर्खता और धूर्तता को किसी भी क़ीमत पर बर्दाश्त न करने वाला, ग़ुस्सैल, ख़तरनाक, विद्रोही, विदूषक, क्रूर, उद्दंड, बेवकूफ़, अहमन्य, तीखा, तुनुकमिज़ाज, सनकी, पागल और पीड़ित बना देती हैं.
विष्णु खरे के साथ अविनाश मिश्र
विष्णु खरे की ये विशेषताएं आख़िर तक आते-आते कुछ क्षीण पड़ गईं. बीच-बीच में तब भी यह क्षीणता नज़र आई, जब वह अपनी नकारात्मकता को कुछ कम करके अपने नामलेवा दल को बड़ा करने के लिए ग़ैरज़रूरी और हास्यास्पद कोशिशें करते रहे. यह ध्यान देने की बात है कि हिंदी विभागों और उसके प्राध्यापकों की सख़्त आलोचना, और बहुत बड़े पदों और पुरस्कारों से वंचित रह जाने के बावजूद संस्थानबद्धता उन्हें आख़िरी दिनों तक आकर्षित करती रही.
अब शोक के स्थल से बाहर आकर, शेष शोक शोक-सभाओं के लिए छोड़ते हुए अगर विष्णु खरे की कविता की बात करें तो कह सकते हैं कि उन्होंने अपना डिक्शन अपनी शुरुआती शाया कविताओं में ही पा लिया था. वे कविताएं एक कुशल कवि की निर्मिति लगती हैं. लेकिन उनके कवि को स्वीकृति बहुत देर से मिली. इस देरी की वजह आठवें दशक की चालाक मीडियोक्रिटी का विराट विस्फोट था, जिसे समय रहते पहचाना नहीं गया. वह अब भी अपना विस्तारवादी भ्रम बनाए हुए है.
विष्णु खरे अंत तक इस काव्य-निर्मिति को एक ऊंचाई देते रहे. इस मायने में वह हिंदी के उन बहुपुरस्कृत कवियों से बेहद अलग हैं जिनकी उम्र बढ़ती रही, लेकिन कविताओं का ग्राफ गिरता रहा. एक गंभीर काव्य-संघर्ष की सतत उत्तेजना विष्णु खरे की कविता का प्रधान गुण है. उनकी कविता ‘नैतिक विनाश’ को दर्ज किए बग़ैर पूरी ही नहीं होती है. वह अपने समय और संसार के नैतिक विनाश को अपने पूरे फ़िक्र-ओ-फ़न के साथ बहुत शिद्दत से देखते हैं. उनके पत्रकार ने भी इस तरह देखने में उनके कवि को सहायता और शक्ति दी है. लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि उनकी कविता, कविता में गद्य बर्दाश्त न कर सकने वालों के लिए नहीं है. गद्य उनकी कविता का प्राण है. हिंदी आलोचना और सांस्थानिकता की समकालीन स्थिति इस बात का प्रमाण है कि विष्णु खरे की कविता उसके दायरे और बयान के बाहर की चीज़ है, क्योंकि उनकी कविता ‘कवितापन’ से मुक्ति की कविता है.
विष्णु खरे से क़रीब एक वर्ष पहले इन पंक्तियों के लेखक ने साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ के लिए एक लंबा साक्षात्कार लिया था. इस साक्षात्कार का शुरुआती हिस्सा दिल्ली में और बाक़ी का मुंबई में रिकॉर्ड हुआ. इस साक्षात्कार का शिल्प आत्मकथा/जीवनी का शिल्प है. विष्णु खरे का यह अंतिम साक्षात्कार ‘पहल’ के आगामी अंक (114) में पूरा पढ़ा जा सकेगा. यहां उन्हें याद करते हुए प्रस्तुत है इस साक्षात्कार से एक प्रश्न और उसका उत्तर:
आप ग़ुलाम भारत में पैदा हुए. अपने जन्म के समय के बहुत सारे ब्यौरे आपने अपने आत्मकथ्य ‘मैं और मेरा समय’ में दिए हैं. जैसे:
‘‘1940 के उस चालीसवें दिन भी भारत ग़ुलाम था. विक्टर अलेक्जेंडर जॉन रोप, मार्क्वेस ऑफ़ लिन्लिथगो, भारत का वाइसरॉय और गर्वनर-जनरल था. हिटलर पोलैंड पर क़ब्ज़ा कर चुका था, उसके साथ संधिबद्ध सोवियत संघ स्तालिन के नेतृत्व में फिनलैंड पर हमला किए हुए था. पहली लड़ाई की तरह दूसरी लड़ाई में भी हिंदुस्तानी फ़ौजी मित्र-राष्ट्रों के लिए लड़ रहे थे- कुछ फ्रांस में तैनात थे. हिटलर ने यहूदियों का संहार शुरू कर दिया था. ब्रिटेन और फ्रांस ने अभी जंग का ऐलान नहीं किया था. गांधी कह रहे थे कि भारत ख़ुद फ़ैसला करेगा कि उसकी ज़रूरियात क्या हैं, लेकिन लड़ाई को देखते हुए अभी सविनय अवज्ञा न करने का भरोसा भी दे रहे थे. नेहरू ने ब्रिटिश सरकार से कहा कि कोई रिश्ते नहीं रखे जाएंगे. एमएन रॉय ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव न लड़ने का फ़ैसला दिया. जिन्ना की पाकिस्तान की मांग ज़ोर पकड़ चुकी थी और कुछ नेता उसका विरोध भी करने लगे थे.
बड़ी मंडियों में उस दिन तैयार गेहूं का भाव 3 रुपए 1 आने मन था. चांदी जो पिछले बरस 52 रुपए 5 आने 6 पाई सेर थी, वह 56 रुपए 6 आने हो गई थी. सोना पिछले बरस के 37 रुपए 3 पाई तोले से बढ़कर 42 रुपए 4 आने 3 पाई पर चल रहा था. अहमदाबाद में आम हड़ताल थी, लेकिन सेंट्रल प्रॉविंसेज में बस कर्मचारी काम पर नहीं आए थे, इसलिए छिंदवाडा से नागपुर-जबलपुर मोटर यातायात 64 था. ‘अछूत’, ‘जवानी की रात’, और ‘पुकार’ रुपहले पर्दे पर कामयाबी हासिल कर रही थीं. संभ्रांत दर्शक ‘मिस्टर स्मिथ गोज टू वाशिंगटन’, ‘द्विजर्ड ऑफ ऑज’, ‘कन्फैशंस ऑफ ए नात्सी स्पाई’ और मार्क्स ब्रदर्स की ‘एट दि सर्कस’ देख रहे थे. नागपुर यूनिवर्सिटी के उस साइंस ग्रेजुएट को यह सब पता था या नहीं, कह नहीं सकते, लेकिन किसी तुफ़ैल में उसकी दिलचस्पी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में थी. 9 फ़रवरी 1940 को, जिस दिन सूर्योदय 7.11 को हुआ और सूर्यास्त 6.36 को, जब शाम 7.10 को वह दुबारा एक बेटे का बाप बना तो उसने उसका नाम अपने प्रिय गायक विष्णुपंत पागनीस से मिलता-जुलता रखा.’’
यह लंबा उद्धरण यहां यह सहूलियत देता है कि यह कहा जा सके कि आपने ‘देखने’ पर सदा बहुत ज़ोर दिया है. इस साक्षात्कार को ले रहे व्यक्ति ने जब 2007 की एक सर्द दुपहर में आपसे यह जानना चाहा था कि कविता लिखने के लिए सबसे ज़रूरी क्या है? तब आपने उस ठीक से युवा भी नहीं हुए कवि से कहा था- ‘देखना’. आपको देखते और कविता लिखते हुए एक उम्र हो गई है. ग़ुलाम भारत से आज़ाद भारत में आज़ादी मांगते हुए युवाओं की इस नई सदी तक आप आ गए हैं. आपका देखना इस बीच कैसे-कैसे प्रभावित हुआ है?
इस प्रश्न की व्याख्या अपने आप में एक आत्मकथा हो जाएगी. मेरी ज़िंदगी का यह सबसे त्रासद पक्ष है कि जब मैं केवल छह साल का था, तब मेरी मां की मृत्यु हो गई. मां की स्मृतियां बहुत कटी-छंटी और सलेक्टिव हैं. मां की मृत्यु के बाद मेरी दोनों बुआओं की मृत्यु हुई. मेरे बारह साल के होते-होते औरतें हमारे परिवार से एकदम साफ़ हो गईं. औरत नाम की चीज़ ही नहीं बची. मेरे पिता संसार के सबसे चुप्पे लोगों में से एक थे. तुम जिसे मेरा ‘देखना’ कह रहे हो, वह इस सबके बीच शुरू हुआ और समझ में आया कि यह दुनिया क्या है और किस तरह आप इसमें अकेले और अलग पड़ जाते हैं. यह जो सुलूक करती है- आपके और आपके परिवार के साथ और इसमें जो आपका शहर बदल रहा है, आस-पास के लोग बदल रहे हैं. मैं थोड़ा आगे जाऊं तो कह सकता हूं कि जब मैं छिंदवाड़ा छोड़ कर गया, तब तत्काल छह या सात रोज़ बाद कुछ करने के लिए लौटा. मैंने देखा कि मैं वहां एलियन हो गया हूं. मैं कुछ भी नहीं हूं अब. कुछ हूं ही नहीं मैं. यह मेरे लिए एक बड़ा भारी ऑब्जर्वेशन था कि कैसे आप अपनी आइडेंटिटी खो देते हैं और कैसे उसे पुन: अर्जित करना पड़ता है और कैसे वह ज़्यादा प्रॉमिनेंट होती है और कैसे इसके लिए आपको अंदर जाना पड़ता है. दरअसल, बाहर की आइडेंटिटी कोई मायने नहीं रखती और अंदर की आइडेंटिटी बहुत पेनफुल होती है, क्योंकि वह हमेशा देखती रहती है कि आप क्या हैं, संसार की आंखों में आप क्या हैं, अब आप क्या हो गए, अब आप क्या नहीं रहे.
इसलिए मैं कह रहा हूं कि दुनिया को लेकर मेरा अनुभव बहुत अजीब है. यह अनुभव नकारात्मक नहीं है, लेकिन मैं दुनिया को बहुत पहले पहचान गया था कि दुनिया कितनी निर्मम हो सकती है- आपको लेकर. मैं जब पिपरिया से छिंदवाड़ा लौटा, तब मैंने देखा कि अब तो मेरे लिए कुछ बचा ही नहीं है. मेरे दोस्त मुझसे बात करने नहीं आ रहे हैं. तब बचता कौन है- मुहल्ले की औरतें जो आपकी मां को जानती थीं. उनमें प्रेम है आपके लिए, लेकिन आपके दोस्त आपके साथ विश्वासघात कर गए हैं. आज अगर कोई मुझसे पूछे तो छिंदवाड़ा के कुछ लैंडस्केप्स के सिवाय मेरी स्मृति में वहां का कुछ बचा नहीं है.
एक देखने का तरीक़ा मुझे खंडवा में भी मिला, जब मैं किशोर हुआ और समाज के और अंदर गया. तब मैंने ख़ुद को और समाज को एक अलग ढंग से देखा. जब मेरे पास पैसे आने लगे, तब मैंने दुकानदारों का, दोस्तों का और उनके परिवारों का सुलूक देखा. इसके बाद जब मैं राजनीतिक हुआ, तब पार्टियों का सुलूक देखा. कम्युनिस्ट तो कोई था ही नहीं खंडवा में, शायद इकलौता कम्युनिस्ट मैं ही था. बहरहाल, मुझे धीरे-धीरे लगने लगा कि समाज के साथ बहुत समस्याएं हैं और मेरे साथ भी. दरअसल, यह समाज एक बीमार समाज है. तब इतना बीमार नहीं था, जितना आज हो गया है. अब तो समाज देखा नहीं जाता. तब समाज में प्यार था, प्यार करने वाले लोग भी थे. अब सब कुछ बिखर गया है.
नौकरी मिलने के बाद भी आपका देखना बदलता है. आपके अचानक कुछ रिश्तेदार हो जाते हैं और इससे आपका एक समाज हो जाता है और यह समाज आपको एक अलग नज़रिए से देखने लगता है. लेकिन समस्या यह है कि अगर आप एक लिखने-पढ़ने-सोचने वाले व्यक्ति हैं, तब समाज और आपका रिश्ता कभी सहज हो ही नहीं सकता, क्योंकि आप हर वक़्त क्रिटिकल हैं- समाज को लेकर. आपकी फैकल्टीज़ बंद नहीं हुई हैं. आप हर आदमी के बारे में कुछ और देख रहे हैं, जो कि वह दिखने में नहीं हैं. इस तरह देखने से आपको समाज का, अपने दोस्तों और रिश्ते-नातेदारों का एक बहुत ही अजीब रूप नज़र आता है. समाज खुलता है आप पर और आपको यह बताता है कि वह कितना निष्ठुर है. मैं समझता हूं कि देखने की यह जो प्रक्रिया है, एक ख़ास समय तक आपके साथ चलती है- आपके मुलाज़िम और आपके शादीशुदा होने तक. इसके बाद आपका देखना एक मक़ाम पर आकर बंद हो जाता है और समाज आपके ऊपर पूरी तरह से भर्राकर गिरता है.
गृहस्थी का बसाना भी आपको बदलता है, और समस्याएं पैदा करता है आपके सामने. आपका जो संबंध है अपनी पत्नी से, आपकी पत्नी का आपसे… यह आपके देखने पर असर डालता है. आपके बच्चे अगर हैं तो वे भी आपके देखने पर असर डालते हैं और उन्हें लेकर आपकी चिंताएं भी कि पैसे कहां से लाएं, मकान कैसे लें, इन्हें अच्छे से अच्छा कैसे खिलाएं, इनके बदन पर अच्छे कपड़े कैसे हों, इन्हें अच्छे स्कूल में कैसे भेजें, समाज में आपकी इज़्ज़त कैसे हो, समाज में आपकी बेइज़्ज़ती कैसे न हो… और फिर आप चूंकि पॉलिटिकली अवेयर भी हैं तो आपको लगता है कि समाज क्या कहेगा- यह जो शोषित समाज बैठा हुआ है, जो आपसे हज़ार गुना ज़्यादा बदहाली में है.
मेरे पास अगर आज मुंबई में एक तीन बेडरूम का घर है, तो मैं कम से कम भारत के 95 करोड़ लोगों से तो बेहतर हूं, 80 करोड़ मान लीजिए. यह बात जब आप जानते हैं, यह आपको परेशान करती है और एक राजनीति आपको खींचती है. अगर नहीं खींचती है तो आप वही होकर रह जाते हैं जो ज़्यादातर लोग हैं. आप दूसरी पार्टी, दूसरी विचारधारा की तरफ़ चले जाते हैं. मुझे क्या मतलब 40 करोड़ ग़रीबों से, मेरा क्या संबंध है उनसे, मैं क्यों उनके प्रति ज़िम्मेदारी महसूस करता हूं, क्यों… क्यों… क्यों मैं रोता हूं उनके बच्चों को देखकर, उनकी तकलीफ़ सुनकर… यह है क्या? यह एक अलग देखना है. इसके बाद आपको तमाम मानवता दिखने लगती है कि यह जो भुखमरी का, अभाव का, बीमारियों का, मृत्यु और अकालमृत्यु का समाज है… यह क्यों है, और तुम्हारी समझ और प्रतिबद्धता से भी हो क्या रहा है? लेकिन फिर भी तुम्हें इस बात की तसल्ली है कि कम से कम तुम उन राक्षसों में से तो नहीं हो, जिन्हें इनके बारे में कुछ सूझता ही नहीं है.
देखो, आज अगर मैं प्रतिबद्ध हूं तो मैं कर क्या पा रहा हूं! लेकिन यह एक राहत है मेरे लिए कि मैं इनके साथ हूं, वे जानें या न जानें, मुझे परवाह नहीं है उनकी, मुझे अपनी परवाह है- अपने ज़मीर की. मैं तो कुत्ते की मौत मर जाऊंगा, अगर मैं उनके बारे में न सोचूं. मेरी ज़िंदगी का एकमात्र मकसद है यह. मानव-जीवन का भी एकमात्र मकसद है यह कि आप इनके बारे में सोचें. बाक़ी मैं सारी निरर्थकता जानता हूं- मानव-जीवन की. मैं जानता हूं कि यह भी व्यर्थ है, लेकिन यह मेरे सामने है और मुझे खींचता है, मुझे तोड़ता है, बर्बाद करता है, तहस-नहस करता है मुझे, कभी एक पल चैन से रहने नहीं देता… इसका इतना असर है मुझ पर, इसलिए यह असल है और इसलिए मेरा इनके साथ होना असल है. ये देखने के सोपान हैं और मैं आज इस बिंदु पर बिल्कुल कन्विंस हूं कि मानव-जीवन का एकमात्र सत्य यह है कि आप मानव के साथ हैं या नहीं. भूल जाओ यह कि जीवन क्षणभंगुर है, वह तो है. अर्थहीन है… है हां है, तो! लेकिन मैं कह रहा हूं कि जिनके जीवन में यह अर्थ नहीं है, उनके जीवन का कोई अर्थ नहीं है. आप चाहे जितना दर्शन बघार लीजिए, अगर यह नहीं है तो कुछ नहीं है.
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