Newslaundry Hindi

जाति ने सीवर में ढकेला, सिस्टम ने मौत के मुंह में

वर्ण व्यवस्था को समझे बिना भारत के हिंदू समाज को नहीं समझा जा सकता. इस समाज में सदियों से जाति आधारित पेशे का चलन है. (ब्राह्मण- शिक्षक, बुद्धिजीवी, पंडित, क्षत्रिय- शासक, योद्धा, प्रशासक, वैश्य- खेतिहर मजदूर, व्यापारी, शुद्र- मजदूर, गंदगी उठाने वाले, सेवा प्रदान करने वाले).

सामाजिक विसंगतियों के जरिए मोटे तौर पर व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का भी अंदाजा हो जाता है. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मिलकर सवर्ण कहलाते हैं. सत्ता और आर्थिकी पर परंपरागत रूप से इनका नियंत्रण है. शुद्र के साथ भेदभाव का आलम यह रहा कि उनके लिए रास्तों से लेकर पीने के पानी की व्यवस्था भी अलग थी. अर्थव्यवस्था, समाज सुधार आंदोलनों और राजनीतिक आंदोलनों के बाद एक हद तक ऊंची जातियों का वर्चस्व टूटा. लेकिन सवर्ण जातियों के जातीय दंभ के कारण शुद्रों को सम्मानजनक जीवन आज तक नसीब नहीं हो सका है.

देश की राजधानी दिल्ली में दिन-दहाड़े गटर साफ करने के दौरान एक सप्ताह के भीतर 6 लोगों की मौत हो चुकी है (इनमें से 5 लोगों की मौत दिल्ली के मोती नगर इलाके में हुई थी). यह महज एक छोटा सा आंकड़ा है. मैला ढोने और शहरों में सीवर सफाई का काम दशकों से दलित जातियां करती रही हैं. नेशनल कमीशन फॉर सफाई कर्मचारी के एक आंकड़े के मुताबिक, “जनवरी 2017 से लेकर अब तक, 123 लोगों की जान गटर साफ करने के दौरान हो चुकी है. मतलब, हर पांच दिन पर एक सफाईकर्मी (मैनुअल सकैंवेंजर- हाथ से मैला उठाने/ सीवर साफ करने वाला व्यक्ति) मारा जाता है.”

शुक्रवार, 20 सितंबर को, इन्हीं सरकारी आंकड़ों में डाबरी निवासी अनिल (37) का भी नाम दर्ज हो गया.

हरिद्वार का रहने वाला अनिल बीते 11 वर्षों से दिल्ली में रह रहा था. वह मैला ढोने और गटर की सफाई का ही काम किया करता था. डाबरी एक्सटेंशन में उसने बैनर भी लगवा रखे थे- ‘अनिल गटर सफाई वाला.’ बैनर पर अनिल का चेहरा और नंबर हुआ करता था. डाबरी एक्सटेंशन में रहने वालों के बीच अनिल को उसके नाम से नहीं बल्कि ‘गटर साफ करने वाला अनिल’ के नाम से जाना जाता था. दरअसल, इस नए नाम के साथ अनिल की जातीय पहचान स्पष्ट हो जाती थी कि वह वाल्मीकि जाति से ताल्लुक रखता है.

अनिल अपने पीछे तीन बच्चों और अपनी पार्टनर कुसुम (बदला हुआ नाम) को छोड़ गया. पहले यह परिवार डाबरी मोड़ के पास लांबा पब्लिक स्कूल के पास रहता था. सितंबर महीने की 2 तारीख को ही वह डाबरी एक्सटेंशन में भाड़े के कमरे में रहने आया था.

अनिल ने शुक्रवार को ही गौरव (11 वर्ष) का दाखिला डाबरी के प्राथमिक स्कूल में, कक्षा तीन में, करवाया था. “वह उस दिन बहुत खुश था. हमेशा कहता था, गौरव को इतना पढ़ाना-लिखाना है कि वह ‘स्टैंडर्ड’ बन जाए. उसे सीवर में उतरने नहीं दूंगा,” कहते हुए कुसुम फफक कर रो पड़ती है. कुसुम, अनिल को बाबू कहकर बुलाया करती थी. “बाबू, मुझसे बहुत प्रेम करता था. जब वह काम से लौटता तो जबरदस्ती मेरा पैर दबाता था,” कुसुम के लिए अनिल की मृत्यु किसी सदमे से कम नहीं है. अनिल की मौत से ठीक सात दिन पहले कुसुम और अनिल के चार महीने के बच्चे शिवम की मृत्यु हो गई थी.

अनिल जिसकी मौत सीवर में गिरकर हुई

7 साल की बेटी लक्ष्मी को यह समझ नहीं आ रहा है कि उसकी मां क्यों दहाड़े मारकर रो रही है. वह मां को चुप कराने की असफल कोशिश करती है, “पापा, आ जाएगा. रो मत.” यह कहकर लक्ष्मी गमछे का एक टुकड़ा कुसुम को पकड़ा देती है, “मां, आंसू पोंछ.” कुसुम की सबसे छोटी बेटी 2 साल की सुमन है. उसे व्यस्त रखने के लिए गौरव उसकी प्लास्टिक की बोतल में दूध भरता है. वह बच्ची को लगातार व्यस्त रखता है.

शुक्रवार का मनहूस दिन

शुक्रवार, शाम करीब 4 बजे, सतबीर काला नाम का युवक अनिल को बुलाकर ले गया था. सतबीर के घर की सीवर पाइप जाम हो गई थी. अनिल के साथ उसका सहयोगी रमेश भी था. “मैं चार बजे तक अपने काम से फारिग हो चुका था. जब सतबीर अनिल को लेने आया, मैं भी उसके साथ हो लिया कि अनिल की मदद करके, 50-100 रुपये और कमा लूंगा. जब हम साइट पर पहुंचे तो मैंने गटर देखकर सतबीर को बोला, गटर रात भर खुला छोड़ दे ताकि गैस बाहर निकल जाए और सफाई सुबह हो जाएगी. लेकिन सतबीर जिद पर अड़ गया,” रमेश ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया.

रमेश के मुताबिक सतबीर ने उसे डांटते हुए कहा, “मुझे अनिल को पैसे देने हैं, तू बीच में क्यों पड़ रहा है?” जब सतबीर, अनिल के कमर में गांठ पड़ी रस्सी बांध रहा था, तब भी मैंने उसे चेताया. सतबीर ने मेरी एक न सुनी.”

रमेश के मुताबिक, अनिल को सीवर में उतरे हुए मुश्किल से एक मिनट हुआ होगा, उसने अनिल की चीख सुनी और महसूस किया कि उसके कमर से बंधी रस्सी टूट गई है. सतबीर ने तुरंत पुलिस को फोन किया. फायर स्टेशन को भी सूचना भेजी गई. जब तक अनिल को निकालने के प्रयास किए जाते, अनिल बीस फीट गहरे गटर में धंस चुका था.

डाबरी क्षेत्र में सड़क के बीचो-बीच बने हैं गटर

दिल्ली पुलिस और इस मामले के जांच अधिकारी जोगिंदर ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (गैर इरादतन हत्या), धारा 304ए (लापरवाही के कारण हत्या) और प्रोहिबिशन ऑफ इंप्लॉयमेंट ऐंड मैनुअल सकैवेंजर एंड रिहैब्लिटेशन ऐक्ट, 2013 के अंतर्गत मामला दर्ज किया गया है.”

जोगिंदर ने आगे बताया, “सतबीर को गिरफ्तार कर लिया गया है. अनिल की मौत के बाद से ही उसे पैनिक अटैक आ रहे हैं, इसीलिए उससे पूछताछ करने में पुलिस को दिक्कत आ रही है.”

“मैं कहती थी, कोई और काम कर लीजिए”

“मैं बाबू को समझाती रहती थी, कोई और काम करो. ये काम खतरनाक है. हम लोग नमक रोटी खा लेंगे लेकिन कुछ और काम करो,” कुसुम बताती हैं.

“बाबू भी क्या करता? उसे मालूम था कि सीवर में जानें जाती हैं. पर कोई और काम मिले तब तो? सारे डाबरी एक्सटेंशन में अनिल की यही पहचान थी कि वह अनिल गटर साफ करता है, कोई उसे घर की सफाई का काम नहीं देता था,” कुसुम शहरों में होने वाले एक अदृश्य भेदभाव का जिक्र करती हैं.

मैला ढोने वालों को काम पर रखने और शुष्क शौचालयों का निर्माण (निषेध) अधिनियम, 1993 के अनुसार, सिर पर मानव मल को ढोने को अमानवीय बताया गया है. इस अधिनियम के प्रावधानों, नियमों व निर्देशों के उल्लंघन के लिए दंड का प्रावधान भी है.

कुसुम, गौरव, लक्ष्मी और सुमन

इसी अधिनियम का विस्तार है प्रोहिबिशन ऑफ इंप्लॉयमेंट एस मैनुअल स्कैवेंजर एंड रिहैब्लिटेशन ऐक्ट, 2013. इस कानून के मुताबिक सीवर की सफाई के लिए बिना सुरक्षा (प्रोटेक्टिव गियर) के इंसानों का इस्तेमाल पूर्णत: प्रतिबंधित है. सफाई के काम पर रखने वाले व्यक्ति को कठोर सजा दी जा सकती है. साथ ही सफाई कर्मचारियों, जो पहले मैला ढोने या सीवर सफाई से जुड़े रहे हैं, के पुनर्वास की व्यवस्था की गई है.

दुर्भाग्यवश या दुर्भावनावश, एक कानून जो स्पष्ट रूप से सफाई कर्मचारियों के जीवन को बेहतर करने के लिए लाया गया था, वह सिर्फ कागजों तक सिमटकर रह गया. आज भी सीवर की सफाई बिना किसी सुरक्षा के, थोड़े से पैसे पर करवाई जा रही है.

मुआवजे का पेंच और सामाजिक असुरक्षा

सीवर सफाई के बदले सतबीर ने अनिल को 250 रुपये देने का वादा किया था. 250 रुपये के लिए जिंदगी दांव पर लगाने वाले अनिल के लिए जिंदगी न रहने के बाद लाखों रुपए का दान मिल रहा है. पार्टनर कुसुम, बच्चे गौरव, लक्ष्मी और सुमन के बेहतर भविष्य के लिए लोग सामने आ रहे हैं, लेकिन इस मदद की राह में एक कानूनी अड़चन भी है.

दिल्ली सरकार ने अनिल के परिवार को 10 लाख रुपये की आर्थिक सहायता देने का ऐलान किया है. अधिकारियों के लिए दिक्कत यह खड़ी हो गई है कि अनिल का परिवार किसे माना जाय? अनिल के माता-पिता और कुसुम दोनों ही सहायता राशि पर दावा कर रहे हैं.

चूंकि कुसुम और अनिल साथ रहते थे, लिहाजा आस-पड़ोस के लोगों ने स्वत: ही उन्हें पति-पत्नी मान लिया था. हकीकत यह है कि कुसुम और अनिल लिव इन रिलेशन में रहते थे. उन्होंने आधिकारिक तौर पर शादी नहीं की थी.

कुसुम की शादी करीब 12 साल पहले हुई थी. लेकिन पति से अनबन के बाद वह उससे अलग हो गई थी. पिछले तीन साल से वह अनिल के साथ ही रह रही थी. “वह (पहला पति) मुझे बहुत मारता-पीटता था. शराबी था. बच्चों का ख्याल भी नहीं रखता था. इसीलिए मैंने उसे छोड़ दिया,” कुसुम बताती है.

“तीन साल से मैं अपने तीनों बच्चों के साथ बाबू के साथ ही रहती थी. बच्चे भी बाबू को पापा बुलाते थे. अब अपना रिश्ता और प्रेम साबित करने के लिए और क्या सुबूत दूं?” कुसुम खीझ कर बताती हैं.

दूसरी ओर अनिल का परिवार है जिसमें उसके मां, बाप, भाई और बहन हैं. जब से सरकार की तरफ से मिलने वाली 10 लाख की सहायता राशि की घोषणा हुई है, यह परिवार भी आगे आ गया है. उसका दावा है कि सहायता राशि कुसुम को नहीं दी जाए. उनका कहना है, “अनिल का खून का रिश्ता हम लोगों से है, सहायता राशि कुसुम को कैसे दी जा सकती है.”

डाबरी में मृतक अनिल की पड़ोसी बबिता बताती हैं, “अनिल के मां-बाप सोमवार शाम को कुसुम और अनिल के घर पहुंचे थे. वहां उन्होंने कुसुम और बच्चों के साथ मारपीट की. हम लोगों ने इन्हें बचाया.” बबिता उसी इलाके में रहती हैं जहां अनिल किराये पर रहता था.

डाबरी एक्सटेंशन की गली नंबर तीन 3 में अनिल की अमानवीय मौत पर लोगों की संवेदना कम दिखती है. वहां इस बात का शोर है कि “नाले में गिरकर अनिल तर गया.” इसका संदर्भ है, दिल्ली सरकार द्वारा दी जाने वाली 10 लाख रुपये की सहायता राशि.

पड़ोसियों से बातचीत में सुंदर महतो कहती हैं, “अनिल मरा जरूर लेकिन कुसुम को महारानी बना गया. मंत्री, मीडिया, पैसे सब दिलवा गया. अब जीवन भर ऐश करेगी.”

सरकारी मुआवजे के अलावा देश भर से लोग कुसुम और उसके बच्चों की मदद करने के लिए आगे आ रहे हैं. हिंदुस्तान टाइम्स के रिपोर्टर शिव सन्नी ने अपने ट्विटर पर अनिल के मृत शरीर के साथ बच्चे गौरव की तस्वीर डाली थी. इस भावनात्मक फोटो के आने के बाद तकरीबन 2,337 दानकर्ताओं ने अनिल के परिवार के लिए 50 लाख रुपये इकट्ठा किया है.

यह रकम केट्टो ऑर्गेनाइज़ेशन ने क्राउडफंडिंग के जरिए जमा की है. केट्टो को अनिल की मृत्यु की जानकारी उदय फाउंडेशन द्वारा दी गई थी. यह रकम अब केट्टो और उदय फाउंडेशन की ओर से गौरव के बैंक खाते में जमा की जाएगी.

सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवार के लिए इतनी बड़ी रकम अपने आप में मुसाबित की वजह बन जाती है. कुसुम और गौरव भी इससे अछूते नहीं हैं. लिहाजा इन्हें किसी भी तरह की मुसीबत से दूर रखने के लिए उदय फाउंडेशन ने कुछ उपाय किए हैं.

उदय फाउंडेशन के एक कर्मचारी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “हमें मालूम है कि कुसुम और अनिल की शादी नहीं हुई थी. लेकिन देशभर से लोगों ने गौरव की तस्वीर देखकर पैसे भेजे हैं. लिहाजा इस रकम पर गौरव का ही अधिकार है. हम गौरव का एक बैंक खाता खुलवाएंगे और साथ ही सारी राशि को उसके नाम से फिक्स डिपोजिट करवाएंगे. जब गौरव बालिग हो जाएगा, तब वह इस पैसे का इस्तेमाल करने के लिए अर्ह हो जाएगा.”

सहायता राशि के मद्देनज़र कुसुम और बच्चों की सुरक्षा बेहद अहम हो गई है. कुसुम डाबरी एक्सटेंशन में नहीं रहना चाहती है. उदय फाउंडेशन इनके लिए एक सुरक्षित जगह की खोज कर रहा है. जल्द ही उन्हें किसी दूसरी सुरक्षित जगह पर बसाया जाएगा.

जाति की दीवार

अनिल के मित्र राजू भी पहले सीवर की सफाई का ही काम करते थे. तीन साल पहले उत्तम नगर में गटर सफाई के दौरान वह बाल-बाल बचे थे. तब से उन्होंने घरों में रंग-रोगन का काम शुरू कर दिया. आज भी आजीविका चलाने के लिए उन्हें बीच-बीच में गटर में उतरने को मजबूर होना पड़ता है. “किसे मल-मूत्र में घुसकर खड़ा होना पसंद होगा? सभी लोग ये काम छोड़ना चाहते हैं. पर छोड़कर करें क्या? भंगी, चूड़ा, वाल्मीकि जानकर कौन आपको कुर्सी पर बैठने वाला रोजगार देगा?” राजू उस अनिश्चितता को रेखांकित कर रहे हैं, जो भारत में दलित जाति में पैदा होने पर अपने आप आ जाती है.

वह पुर्नवास की व्यवहारिक दिक्कतों का उदाहरण पेश करते हैं. “जब उत्तम नगर का हादसा हुआ तो मैं कुछ दिनों तक अनाज ढोने का काम करने लगा. वहां जैसे ही लोगों को मालूम हुआ कि मैं भंगी समाज से हूं, उसी दिन से मुझे काम से निकाल दिया गया. भंगी होकर अन्न कैसे छू सकता हूं?”

राजू की बात सुनकर कुसुम कहती है, “अनिल कभी काला कपड़ा नहीं पहनता था. न ही कभी पीली दाल खाता था. उसे काले और पीले रंग से घिन था. वह कहता था कि काले कपड़े को देखकर ही उसे बदबू आने लगती है.”

रिपोर्टरों और एनजीओ वालों की आवाजाही के बीच कुसुम बार-बार हाथ जोड़कर विनती करती रहती हैं, “आपलोग सीवर बंद करवा दीजिए. आज मेरा बाबू उसमें गिरकर खत्म हो गया, कल को किसी और गरीब परिवार का आदमी खत्म हो सकता है.”