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गोरखपुर यूनिवर्सिटी छात्रसंघ चुनाव टलने की वजह दलित-पिछड़ा उत्कर्ष?
गोरखपुर यूनिवर्सिटी का छात्रसंघ चुनाव लगातार दूसरे साल स्थगित कर दिया गया है, मतदान के ठीक दो दिन पहले आए इस फैसले के कई मायने निकाले जा रहे हैं. पिछले साल भी चुनाव कार्यक्रम जारी होने के बावजूद चुनाव स्थगित कर दिया गया था. यूनिवर्सिटी के आदेश के बाद भी छात्रों ने अभी हार नहीं मानी है, छुट्टी होने के बावजूद वह लगातार प्रदर्शन व ज्ञापन के जरिए चुनाव कराने की मांग कर रहे हैं.
भले ही यह छात्रसंघ का चुनाव था लेकिन इसमें आमने-सामने सीधे तौर पर सपा व भाजपा थी. मार्च 2018 के लोकसभा उपचुनाव में भाजपा की परंपरागत लोकसभा सीट जीतने के बाद सपा छात्रसंघ चुनाव के जरिए उसे एक और झटका देना चाहती थी, वहीं भाजपा छात्रसंघ में जीत हासिल कर अपनी साख बरकरार रखना चाहती थी. दोनों ही पार्टियां छात्रसंघ चुनाव को 2019 की तैयारियों से जोड़ कर देख रही थीं. पार्टियों ने छात्रसंघ चुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था. यही कारण है कि जब नाटकीय तरीके से अंतिम वक्त में चुनाव स्थगित किया गया तब इस बात की अटकलें लगाई जा रही हैं कि क्या एबीवीपी को हार से बचाने के लिए चुनाव स्थगित कराया गया है?
पिछले साल भी चुनाव नहीं होने के कारण इस बार छात्र छात्रसंघ चुनाव की मांग को लेकर काफी समय से धरना-प्रदर्शन, कुलपति का घेराव कर रहे थे. अंतत: जब यूनिवर्सिटी प्रशासन नहीं झुका तब छात्र अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठ गए. हार मानकर यूनिवर्सिटी ने चुनाव का प्रस्ताव उत्तर प्रदेश सरकार को भेजा, जिसे मंजूर कर लिया गया. चुनाव की तारीख आने के बाद टिकट के बंटवारे को लेकर राजनीति शुरू हुई. एबीवीपी ने रंजीत सिंह श्रीनेत को टिकट दिया था और समाजवादी छात्र सभा ने अन्नू प्रसाद को, इनके अलावा अध्यक्ष पद पर एनएसयूआई से सचिन शाही, अम्बेडकराइट स्टूडेंट यूनियन फॉर राइट्स से भास्कर चौधरी थे. साथ ही अनिल दुबे, ऐश्वर्या पांडेय, प्रिंस सिंह व इंद्रेश यादव निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर मैदान में थे.
उपाध्यक्ष, महामंत्री व पुस्तकालय मंत्री सहित सभी पदों पर 32 अन्य उम्मीदवार दांव आजमा रहे थे. अध्यक्ष पद पर 8 दावेदारों के बावजूद सीधी लड़ाई एबीवीपी और समाजवादी छात्र सभा के बीच मानी जा रही थी, इस कारण सबकी नजरें इन्हीं दो छात्र संगठनों पर टिकीं थीं.
घटनाक्रम
9 सितम्बर को निर्दलीय प्रत्याशी इंद्रेश यादव के समर्थकों ने चुनाव अधिकारी को सूचना दी कि इंद्रेश का अपहरण हो गया है. इंद्रेश पूर्व में समाजवादी छात्र सभा के सक्रिय सदस्य रह चुके हैं. इंद्रेश के समर्थकों ने आरोप लगाया कि अपहरण के पीछे अन्नू प्रसाद का हाथ है. यह पर्चा वापसी का आखिरी दिन था. नाटकीय तरीके से इंद्रेश यादव शाम होते-होते सपा कार्यालय जा पहुंचे और सपा के जिलाध्यक्ष व अन्नू प्रसाद के साथ प्रेस वार्ता करते हुए अन्नू को चुनाव में समर्थन की घोषणा कर दी. कुछ देर बाद ही अखिलेश यादव के साथ इंद्रेश की फोटो सोशल मीडिया के जरिए वायरल होने लगी. इन्द्रेश पर्चा तो वापस नहीं ले पाये लेकिन कैंपस से लापता हो गये.
इधर, एबीवीपी ने रंजीत सिंह श्रीनेत को टिकट दे दिया, जबकि अनिल दुबे लम्बे समय से एबीवीपी के सक्रिय कार्यकर्ता थे. अनिल को टिकट नहीं मिलने से कार्यकर्ताओं में काफी नाराजगी थी जिसका सोशल मीडिया पर उन्होंने इजहार भी किया. कैंपस में यह चर्चा खुलकर होने लगी कि एबीवीपी कार्यालय का नवीनीकरण और कास्ट फैक्टर के कारण रंजीत को टिकट दिया गया.
एबीवीपी के इस कदम से गोरखपुर यूनिवर्सिटी कैंपस का माहौल जातिवादी धड़ों में बंट गया. ऐसा लगा कि कैंपस में ठाकुर और ब्राह्मण वर्चस्व की लड़ाई वाले पुराने दिनों की वापसी हो गई. अनिल दुबे खुद भी अपना टिकट कटने पीछे विपक्षी (रंजीत सिंह) के धनबल और जाति को कारण बताते हैं.
दूसरी ओर समाजवादी छात्रसभा के प्रत्याशी मजबूत स्थिति में थे. यही रिपोर्ट 10 सितम्बर को गोरखपुर दौरे पर आए भाजपा के प्रदेश महामंत्री पंकज सिंह को दी गई. इसके बाद पंकज सिंह ने नगर पार्षदों तक को एबीवीपी प्रत्याशी के समर्थन में प्रचार करने के लिए कहा. अगले दिन पूर्व मेयर सत्या पांडेय व कुछ भाजपा नेता कैंपस गए भी.
13 सितंबर को मतदान होना था. 11 सितम्बर को एबीवीपी की ओर से अध्यक्ष पद के प्रत्याशी रंजीत सिंह श्रीनेत के समर्थक नारेबाजी करते हुए विधि विभाग पहुंचे, शिक्षकों के मना करने पर अभद्रता की. विभाग में क्लास कर रहे छात्रों को सूचना मिली तो उन्होंने उपद्रवियों की पिटाई कर दी. पीटने वालों में एबीवीपी के बागी प्रत्याशी अनिल दूबे के समर्थक भी शामिल थे. दोनों पक्षों में आधे घंटे तक हाथापाई होती रही. इस हिंसक घटना के बाद तत्काल सभी कक्षाएं बंद करवा दी गईं. अगले 2 घंटों के अंदर ही शिक्षक संघ ने छात्रसंघ चुनाव के बहिष्कार की घोषणा कर दी. इसे यूनिवर्सिटी के कर्मचारी संघ ने भी समर्थन दे दिया.
आनन-फानन में चुनाव सलाहकार समिति की बैठक में छात्रसंघ चुनाव स्थगित करने के साथ ही 13 सितम्बर तक छुट्टी की घोषणा कर दी गई. बाद में छुट्टी को दो दिन के लिए बढ़ा दिया गया. छात्रसंघ चुनाव में दो पक्षों के बीच मारपीट कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी लेकिन जिस तरह इसे बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया वह इशारा करता है कि सबकुछ सुनियोजित तरीके से हुआ. यूनिवर्सिटी छात्रसंघ चुनावों के इतिहास से परिचित कोई भी व्यक्ति “घटित घटना व परिसर में उत्पन्न अशांत वातावरण” के तर्क के आधार पर चुनाव स्थगित करने के फैसले को आसानी से स्वीकार नहीं कर सकता.
2017 में भी इसी नाटकीय तरीके से चुनाव स्थगित कर दिया गया था. तब भी चुनाव की संभावना कम थी, लेकिन छात्रों के दबाव में यूनिवर्सिटी प्रशासन को हामी भरनी पड़ी थी.
जिन परिस्थितियों में चुनाव स्थगन का फैसला लिया गया वह कई सवाल खड़े करता है. मसलन, चुनाव प्रचार के दौरान सैकड़ों बार लिंगदोह कमेटी के सिफारिशों की धज्जियां उड़ाई गईं, तब प्रशासन मौन था, अचानक यह सख्ती क्यों?,
दूसरा, यूनिवर्सिटी में विवाद के बाद छुट्टी करना, शिक्षक संघ का छात्रसंघ चुनाव बहिष्कार करना, कर्मचारी संघ का उन्हें समर्थन देना और चुनाव स्थगित कर दो दिनों की छुट्टी करना यह सब क्या महज इत्तेफाक था?
तीसरा, जिस तत्परता से चुनाव स्थगित किया गया, उसी तरह दोषियों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की गई जबकि वायरल वीडियो में सभी के चेहरे साफ दिख रहे हैं?
चौथा, मतदान से ठीक दो दिन पहले आनन-फानन में चुनाव स्थगित करने की जल्दी एक स्वाभाविक सवाल खड़ा करती है. क्या यूनिवर्सिटी प्रशासन पर “ऊपर” से दबाव था?
पांचवा, चुनाव कैंसिल होने की स्थिति में क्या यूनिवर्सिटी प्रशासन प्रत्याशियों के वाजिब खर्चों की क्षतिपूर्ति करेगा?
2016 में दलित-पिछड़े छात्रों की एकता ने तोड़ा था सवर्ण वर्चस्व
2016 में गोरखपुर यूनिवर्सिटी छात्रसंघ चुनाव में पहली बार कोई ओबीसी छात्रसंघ का अध्यक्ष बना था. अरविंद यादव उर्फ अमन यादव ने एबीवीपी के प्रत्याशी को हराया था. इस नतीजे ने पूरे प्रदेश को चौका दिया था कारण कि अभी तक यहां अध्यक्ष पद पर ब्राह्मण या ठाकुर ही अध्यक्ष होते आए थे. ऐसा संभव हुआ दलित व ओबीसी छात्रों की एकजुटता के कारण, लेकिन यह अचानक नहीं था. 2014 के बाद से ऊना कांड, रोहित वेमूला की मौत व बढ़ते दलित उत्पीड़न की घटनाओं के कारण पूरे देश में सामाजिक न्याय के तहत दलित, ओबीसी व अल्पसंख्यक एकजुटता के नारों के प्रभाव से गोरखपुर भी अछूता नहीं रहा.
जीत से विश्वास बढ़ा तो कैंपस में डॉ. बीआर अंबेडकर, ज्योतिबा फूले, फूलन देवी, वीपी मंडल, सावित्री बाई फूले की जयंती व श्रद्धांजलि सभा आयोजित किए जाने लगे. यहां तक कि जेएनयू प्रकरण के दौरान जेएनयू के समर्थन में यहां प्रदर्शन आयोजित किए गए, जिसमें बड़ी संख्या में छात्रों ने हिस्सा लिया. 2017 के छात्रसंघ चुनाव आते-आते कैंपस में सवर्ण बनाम अन्य का मुद्दा हावी हो चुका था. दलित, पिछड़े छात्रों की एकता जैसे-जैसे यहां मजबूत हुई, एबीवीपी कमजोर होता गया.
पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष अरविंद उर्फ अमन यादव बताते हैं कि दलित व पिछड़े छात्रों के साथ यहां भेदभाव किया जाता है. मैंने खुद यूनिवर्सिटी में जातिगत दंश को झेला है, मेरे जीतने से पहले यहां पर अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने के लिए दलित व पिछड़ी जाति के छात्रों को सौ बार सोचना पड़ता था. लेकिन अब काफी बदलाव हो गया है इस बार अध्यक्ष पद के लिए दो दलित प्रत्याशी न केवल मैदान में थे बल्कि जीत के दावेदारों में भी थे.
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