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हिंदी, हमारी हिंदी

हमारी हिंदी, जिसमें अब सब केवल दूसरों की समस्या देखते हैं, अपनी समस्या कोई नहीं देखता और जिसमें अब कोई भूखा नहीं सोता, कोई पागल नहीं होता, कोई आत्महत्या नहीं करता! ये पंक्तियां जो आगे भी इसी तरह बढ़ती चली जाएंगी, इनमें भी दूसरों की ही समस्या है, अपनी नहीं. इस आरंभ के आलोक में देखें तो अब यही सबसे बड़ी समस्या है कि हिंदी में अपराधबोध की भावना कम हुई है, और आरोप और आरोपी बढ़ते गए हैं.

हिंदी समय की सबसे तेजस्वी आवाज़ें अब संदिग्ध हैं, कोई उत्तरजीवन उनके पास बचा नहीं है. हिंदी की पत्रकारिता और साहित्य के वे मठाधीश- प्रतिभाएं कभी जिनके आस-पास मंडराया करती थीं- अब लगभग ख़त्म हो चुके हैं. उनमें से कुछ ने अपनी स्मृति का प्रबंधन कर लिया, उन्हें वर्ष में एक-दो बार याद किया जाता है, बाक़ियों को लोग भूल चुके हैं या भूल रहे हैं. उनकी आवाज़ अब मद्धम हो गई है या बंद हो गई है या बदल गई है. बहुत सारे सिलसिलों में यह अपने से नहीं हुआ है, इसके पीछे समकालीन राजनीतिक क्रिया-विशेषण सक्रिय हैं.

लेकिन हिंदी में आवाज़ें अब भी उठती हैं. वे इस अनिवार्य असहायताबोध से उपजती हैं कि अब और कुछ नहीं किया जा सकता, आवाज़ उठाने के सिवाय. वे इस तथ्य से प्रेरणा लेती हैं कि आख़िर जब भी कहीं कुछ बदला है, आवाज़ उठाने से ही बदला है. वे अपना पक्ष तय करती हैं और रक्त का रंग पहचानती हुई, आदमी के साथ खड़ी नज़र आती हैं.

इस सबके बावजूद हिंदी में सबसे ज़्यादा काम आने वाली चीज़ अब भी शक्ति-केंद्रों की नज़दीकी हासिल करके छोटी-सी ही सही, अपनी एक दुकान खोल लेना है- 24×7:

‘‘जिनके पास ख़ूब साधन हैं ख़ूब सुनहरे दिन-रात
मौज-मज़े के एकांत और उचित ऊब
जिलाने और मारने की क्षमताएं तरह-तरह की
उनमें से कई जब-तब कविता वग़ैरह में दिलचस्पी दिखाते हैं

हिंदी में हो तो भी’’

साल 2002 से आज तक हिंदी के बौद्धिक वर्ग की केंद्रीय समस्या नरेंद्र मोदी हैं. किसी के पास करने के लिए और कोई बात नहीं है. कुछ असाहित्यिक से लगते साहित्यिक विवाद न हों तो एक क्षण के लिए भी हिंदी ख़ुद को मोदी-मुक्त न बना सके. जबकि यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि तानाशाह भी कविता लिखने की इच्छा रखते रहे हैं:

‘‘राजधर्म का निबाह करते-करते
जब कविता की ओर उन्मुख होते हैं शासक
कवि चुनते हैं अपनी निरापद कविताएं
क़िसिम-क़िसिम के धुंधलके में
पराधीन होते जीवन का
विराट वैभव दिखाने वाली
छायाएं ढूंढ़ती शरणस्थलियां तलाशती
भीगे-भीगे प्रेम की, उदास घाटों की
परे खिसकाते हुए
नैतिकता के सवाल, बदलाव के स्वप्न
आवेग की अग्निसंचारी शिराएं’’

इस दृश्य में ही गए दिनों हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं से संबंधित कुछ विवाद सामने आए. इस सिलसिले में ख़ुद को प्रकाशित कर लेने-देने की तात्कालिक सहूलियतों के बीच कुछ इस प्रकार के एक प्रतिक्रिया-संसार ने जन्म लिया, जिसमें पुस्तक और पत्रिकाएं ख़त्म हो चुकी हैं और सारा ज्ञान 5-6 इंच की स्क्रीन तक सिमट चुका है. बाज़ार यह बात जान चुका है, लेकिन बाज़ार से गुज़रने वाले नहीं. इसका ही निष्कर्ष है कि इस प्रकार के विवाद होते ही, साहित्यिक पुस्तकों-पत्रिकाओं से पूरी तरह दूर एक पाठक-वर्ग (?) यह कहते हुए पाया जाने लगता है कि ये सनसनी फैलाकर पत्रिका बेचने के हथकंडे हैं. यह हिंदी का वह समाज है, जिससे हिंदी के बौद्धिकों के दूर होते चले जाने के प्रश्न उठते रहे हैं.

यह भ्रामक समाज यह नहीं देख पा रहा कि जब ‘इंडिया टुडे’ जैसी चकाचक पत्रिका लगातार कई सालों से सेक्स-सर्वे करवाकर उस पर अंक निकालने के बावजूद अपनी गिरती प्रसार-संख्या पर कोई लगाम नहीं लगा पा रही है, तब गंदले-मटमैले-धुंधले पन्नों पर छपने वाली, प्रूफ़ और तथ्यों की बेशुमार ग़लतियों से भरी, रचनात्मकता को अवकाश और कार्यमुक्ति बख़्शती हुईं ‘पाखी’ सरीखी साहित्यिक पत्रिकाएं भला इस बैसाखी से कितनी दूर जा पाएंगी? 15 सालों के बाद गत वर्ष आई ‘इंडिया टुडे’ की साहित्य वार्षिकी की गति-स्थिति भी अब किसी से छुपी हुई नहीं है.

हिंदी लेखकों का जीवित संसार ऊपर वर्णित हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में मुफ़्त में लिखता है और मुफ़्त में जब तक जीवित है पत्रिका अपने पते पर पाता है. हिंदी के उत्थान के लिए इन पतों को सबसे पहले डाकियाविहीन कर देने ज़रूरत है. हिंदी दिवस के मौके पर यह कहने की इजाज़त दीजिए कि यहां कुछ मूलभूत बातें याद आ रही हैं.

इस प्रसंग में बड़े-बड़े मीडिया घरानों में कार्यरत हमारे साहित्य-विरोधी संपादकों और पत्रकारों पर एक नज़र डालिए, जिन्हें अक्सर हिंदी का साहित्यकार बनने का शौक़ भी सताता रहता है. वे कभी-कभी अपने को प्रतिबद्ध और प्रगतिशील दिखलाने के लिए जिन विमर्शों का ज़िक्र करते हैं, वे आज से लगभग 30 बरस पहले एक साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘हंस’ ने केंद्रीयता के साथ शुरू किए- संपादक थे राजेंद्र यादव. ‘हंस’ भी मटमैले-धुंधले पन्नों पर छपती थी, लेकिन उसकी बहसें और विषय-वस्तु विचार के स्तर पर इतने उत्तेजक होते थे, कि उसने एक पीढ़ी का निर्माण किया, जिसके बारे में अब बेशक यह कहा जा सकता है कि वह हिंदी की आख़िरी साहित्यिक पीढ़ी है. हिंदी का पढ़ने-लिखने वाला संसार अब रीत चुका है. हिंदी के नाम पर जो भी चमक-दमक दिखती है, वह ऐसी लगती है कि जैसे फ्यूज़ बल्बों में रंगदार पानी भरकर सजावट के लिए तागे से लटका दिया गया हो! [शैली साभार: धूमिल] नई हिंदी के नाम पर ईस्ट इंडिया कंपनी के काले मुसाहिब उछल-कूद कर रहे हैं:

‘‘भाषा और पीड़ा के बीच कलात्मक परदे लटकाते
इंकार की जगह चापलूस मुस्कानें बिछाते हुए

ऐसे ही बहुतों की बहुत-सी कविताएं वग़ैरह
उनकी अनोखी हिंदियां देखते-देखते
मैं बोल पड़ा ग़ुस्सा दिलाते उदास करते
बेतुके समय के बारे में अपनी बोली में
तो बाहर किया गया’’

अब सारी बहसें कुछ और हैं. राज्य के मार्फ़त प्रायोजित ‘विश्व हिंदी सम्मेलन’ के अतीत और वर्तमान को यहां ध्यान में रखिए :

‘‘हारे हुओं की छाप लिए अक्सर सिर झुकाए
लुटी-पिटी गत-हत-यौवना
बलत्कृता
झलफांस साड़ी में बदरंग
चाहे जितनी भी अनुपयोगी हो हिंदी
जय-जयकार तो यहीं करानी होती है आख़िरकार’’

अब हिंदी में जो कुछ भी सुंदर और प्रतिबद्ध है, वह हाशिए पर है. राज्य-सत्ताओं ने इस सदी में हिंदी के साथ क्या-क्या किया है और निजी हाथों में भी उसका क्या हाल हुआ/हो रहा है, इसके विवरण व्यक्त करना ख़ुद को दुहराती हुई एक अश्लीलता को आमंत्रित करना है, इसलिए इन विवरणों को यहीं रोक देना चाहिए, क्योंकि:

‘‘रोचक हैं उसके बाद के अनेक विवरण
जो दिलचस्प बनाते हैं कवि को
मगर कविता को नहीं
धूसर लोकतंत्र में
मेरे बाद उनमें से कोई हिंदी-प्रेमी
फूल और संदेश न भिजवाए कहीं मरघट में
इसका यत्न करना चाहिए मुझे अपनी हिंदी के लिए.’’

(प्रस्तुत आलेख में प्रयुक्त कविता-पंक्तियां हिंदी कवि पंकज सिंह की कविता ‘अपनी हिंदी के लिए’ से ली गई हैं.)