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धारा 377: हिंदी मीडिया का सतर्क आशावाद और उत्साह

साहित्यिक पत्रिका हंस को पुनर्जीवित करने वाले उपन्यासकार और संपादक राजेंद्र यादव ने अपने निधन से कुछ वर्ष पूर्व यह संकेत दिया था कि आने वाले समय में किस तरह से भारतीयों के व्यक्तित्व में बिना किसी खास प्रतिरोध के परिवर्तन की प्रक्रिया आकार ले लेगी. उनका तर्क था कि अन्य कारणों के साथ-साथ बाकी दुनिया के साथ अर्थ-व्यापार करने से विभिन्न विचारों और जीवन के तरीकों को भी आसानी से स्वीकृति मिल जाएगी. शायद यह स्वीकृति नागरिक समानता के वैश्विक अभियानों की स्वीकृति को भी बढ़ाता है. दशकों से, नागरिक अधिकारों के मुद्दों पर हिंदी प्रेस की प्रतिक्रिया इसकी गवाही है.

भले ही उनके दृष्टिकोण में मतभेद हों, लेकिन हिंदी समाचार पत्रों के सम्पादकीय पन्नों से व्यक्तिगत स्वतंत्रता की वकालत झलकती है. इस प्रक्रिया में हिंदी के अखबार राष्ट्रीय मीडिया में अपने अंग्रेजी समकक्षों के विचारों का समर्थन करने लगते हैं. ऐसा तब और स्पष्ट हो गया जब हिंदी मीडिया ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को, जिसमे समलैंगिकता को वैध करार कर दिया और औपनिवेशिक काल के समय के प्रावधानों को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 से ख़त्म कर दिया.

लंबी हेडलाइन देते हुए दैनिक जागरण ने फैसले पर अपनी सम्पादकीय टिप्पणी की (समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर उन देशों पर भी पड़ेगा जो भारतीय लोकतंत्र से प्रेरित हैं, 7 सितंबर), “यह फैसला समय की मांग है क्योंकि समलैंगिकता को विकार के रूप में देखने या अलग यौन इच्छाओं वाले नागरिकों को समानता का अधिकार ना देने का कोई तार्किक आधार नहीं है.”

हालांकि, अख़बार का मानना था कि न्यायिक स्वीकृति के बाद भी, सामाजिक स्वीकृति के लिए लड़ाई में अधिक समय लगेगा. अख़बार ने समझाते हुए लिखा, “समाज के उस वर्ग के विचारों को बदलने में कुछ समय लगेगा जो अलग यौन इच्छा रखने वाले लोगों को असामान्य और विकृत समझते हैं. इस तरह का रवैया रखने वाले लोगों को अलग यौन इच्छा रखने वाले लोगों को, जो अपनी जिंदगी अपनी इच्छा के अनुसार जीना चाहते हैं, सम्मान देना चाहिए. उनके प्रति इस तरह के दृष्टिकोण को मजबूत किया जाना चाहिए.”

दैनिक जागरण ने इस फैसले पर अपने सम्पादकीय को सुप्रीम कोर्ट के वकील द्वारा लिखे गए ऑप-एड से भी स्थापित किया. उसमे तर्क दिया गया कि औपनिवेशिक काल के अनाचारी कानूनों को ख़त्म करने या सुधारने के लिए पहल की जानी चाहिए.

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर दैनिक भास्कर का सम्पादकीय विक्टोरियन काल के मानदंडों से भारतीय कानूनों को निकालने के विषय में था (सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक पहल और अनुदार समाज, 7 सितंबर).

अख़बार ने कहा, “भारतीय समाज को आईपीसी से यह धारा, जो लार्ड मैकॉले के प्रयासों के बाद 1860 में अस्तित्व में आयी थी, को हटाने में 158 साल लग गए. यह कानून विक्टोरियन काल के मूल्यों पर आधारित था. हकीकत में, भारतीय समाज में कभी भी अलग यौन इच्छाएं रखने वाले लोगों के खिलाफ दंड का प्रावधान नहीं था… इसलिए, भारतीय समाज को, जो कि विक्टोरियन मूल्यों के साथ रहते रहते अपनी वास्तविकताओं को भूल गया, अब इस प्रगतिशील फैसले को स्वीकार करने और इसका मतलब समझने में चुनौती का सामना करना पड़ रहा है.”

हिंदुस्तान के सम्पादकीय (समानता के लिए, 7 सितंबर) में समलैंगिकता को वैध करार करने वाले इस फैसले को भारतीय न्यायिक विचारों के आधुनिकीकरण के बड़े व्याख्यान के एक पहलू के रूप में व्याख्या करते हुए कहा, “धारा 377 ख़त्म करना सिर्फ समलैंगिकता के मुद्दे तक सीमित नहीं है, यह भारतीय न्यायिक प्रणाली को उन आधुनिक मूल्यों के अनुरूप करने का विषय है जो कि किसी के निजी जीवन, विचारों या विश्वास में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं देता. ना केवल धारा 377, बल्कि कई ऐसे कानून हैं जो अनावश्यक रूप से न्यायिक और प्रशासनिक तंत्र के बोझ बने हुए हैं. अब समय आ गया है कि हमें इनसे छुटकारा पा लेना चाहिए. यह समाज के सभी वर्गों के न्याय दिलाने के लिए जरूरी भी है.”

इस फैसले को समलैंगिक लोगों के प्रति बदलते व्यवहार के अगुआ के रूप में देखते हुए, जनसत्ता इसके सामाजिक स्वीकृति के प्रभाव के बारे में आशावादी लग रहा था. अपनी सम्पादकीय टिप्पणी (निजता का सम्मान, 7 सितंबर) में अख़बार कहता है, “समलैंगिकता के प्रति स्वीकृति बढ़ाकर, सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर समाज की संकीर्ण सोच को बदलने की दिशा में एक सराहनीय कदम भी उठाया है. जब समलैंगिक लोग समाज में आराम से रहना शुरू करेंगे, तो उनके लिए सामाजिक दृष्टिकोण में भी बदलाव आएगा.”

नवभारत टाइम्स के सम्पादकीय (देर आये, दुरुस्त आये, 7 सितंबर), में समलैंगिक लोगों के अधिकार को भारतीय संवैधानिक ढांचे का हिस्सा बनाये जाने के अभियान का असर दिखा. इस सम्पादकीय में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा का बयान जो उन्होंने फैसला सुनाते हुए कहा था कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति संवैधानिक विश्वास को व्यक्त करने वाला एक दृढ़ निर्णय है, भी छापा. अख़बार ने टिप्पणी करते हुए कहा, “हमें सभ्य समाज के रूप में खुद को बनाये रखने के लिए संवैधानिक नैतिकता को बनाये रखने का संकल्प दोहराना होगा.”

उस पल में जब भारत ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति अपनी वचनबद्धता की पुष्टि की, प्रमुख हिंदी दैनिक समाचार पत्रों के सम्पादकीय पृष्ठों में उत्साह के साथ-साथ एक सतर्क आशावाद और भविष्य की चुनौतियों के प्रति जागरूकता भी थी. ऐसा करते हुए हिंदी के अखबारों ने आधुनिक संवैधानिकता की योजना में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की प्राथमिकता से अपनी सहमति जताई.