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अब अखिलेश यादव का मंदिर आंदोलन
उत्तर प्रदेश की सियासी हवा में मंदिर की महक स्थायी रूप से मौजूद रहती है. अयोध्या के राम जन्मभूमि मंदिर आन्दोलन ने प्रदेश के सियासी समीकरणों में दूरगामी बदलाव किए. भारतीय जनता पार्टी भले दावा करें कि राम मंदिर आस्था का विषय है और राजनीति का नहीं है लेकिन तब से लेकर अब तक प्रदेश की राजनीति मंदिर के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पायी है. सियासत इसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाती रहती है.
इसी मंदिर की राजनीति को धार देते हुए बीते हफ्ते समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने सत्ता में आने पर भगवान विष्णु का मंदिर बनाने की घोषणा की हैं. ये मंदिर कम्बोडिया के अंगोरवाट मंदिर से भी बड़ा होने का एलान किया गया है. प्रस्तावित मंदिर अखिलेश ने अपने गृह जनपद इटावा में चम्बल के बीहड़ो में एक नया नगर बसा कर, वहां बनवाने की बात कही है. नए शहर और नई बस्ती पर किसी का ध्यान नहीं गया लेकिन विष्णु के मंदिर और मूर्ति स्थापित करने की घोषणा पर चर्चा शुरू हो गई. अखिलेश के समर्थक इसको भाजपा के मंदिर एजेंडे की काट के रूप में देख रहे हैं. सपा समर्थकों का मानना है कि इस घोषणा से भाजपा मंदिर मुद्दे पर बैकफुट पर आ जाएगी.
लेकिन अखिलेश जो एक संभावित महागठबंधन के रूप में आगामी लोकसभा चुनाव लड़ने जा रहे हैं, उनके लिए मंदिर कार्ड खेलना कितना सही रहेगा? ये कोई पहली बार नहीं है कि अखिलेश ने मंदिर की हिमायत की है. वो अक्सर कहते रहे हैं कि वो अपने घर पर हर अनुष्ठान करते हैं, गृह प्रवेश की पूजा की फोटो सोशल मीडिया पर डालते हैं, नवरात्र के व्रत रखते हैं, प्रसिद्ध मंदिरों में भी जाते हैं लेकिन कभी उनकी धार्मिक आस्था राजनीतिक विषय नहीं बनी. इस बार हालांकि उनके समर्थक सोशल मीडिया पर कैंपेन चला रहे हैं कि प्रस्तावित विष्णु मंदिर की स्थापना से भाजपा को नुकसान पहुचा देंगे.
अखिलेश ने पहले भी बनवाए हैं मंदिर और मूर्ति
ये कोई पहली घोषणा नहीं हैं. अखिलेश ने इटावा में हनुमानजी की मूर्ति स्थापित करवाई हैं. ये मूर्ति उनके ड्रीम प्रोजेक्ट अपना बाज़ार (दिल्ली के कनॉट प्लेस की नकल के रूप में इटावा में बनाया गया बाज़ार) में स्थापित हैं. इसके अलावा अखिलेश ने अपनी स्वर्गीय मां मालती देवी के नाम से स्थापित स्कूल के कैंपस में एक श्रीकृष्ण की मूर्ति स्थापित की हैं. इस मूर्ति का अभी अनावरण नहीं हुआ है और स्थानीय लोगों का मानना है कि शायद 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले इस मूर्ति का अनावरण हो. ये मूर्ति लगभग साठ फुट ऊंची हैं. इसके अलावा अखिलेश ने अपने कार्यकाल में मथुरा में विश्व के सबसे ऊंचे मंदिर की आधारशिला रखी थी. सत्तर मंजिल ऊंचे इस प्रस्तावित मंदिर की लागत 300 करोड़ हैं जिसे इस्कॉन संस्था द्वारा बनाया जा रहा हैं. वृन्दावन चन्द्रोदय मंदिर नाम के इस मंदिर के सबसे ऊपरी तल से लोग आगरा का ताजमहल तक देख सकेंगे.
अखिलेश के धार्मिक प्रोजेक्ट्स
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए अखिलेश ने मार्च 2015 में भाजपा के सदस्यों को इशारा करते हुए कहा था- आप धर्म पर कुछ काम नहीं करेंगे, आपको कुछ चीजों की चिंता ज्यादा हैं. अपने कार्यकाल में अखिलेश यादव ने कई धार्मिक प्रोजेक्ट्स शुरू किये. उत्तर प्रदेश का धर्मार्थ कार्य मंत्रालय जिसे लोग पनिशमेंट पोस्टिंग की तौर पर लेते थे उसको जीवंत कर दिया. पूरी तरह राज्य सरकार द्वारा पोषित समाजवादी श्रवण यात्रा का शुभारम्भ किया जिसके तहत हजारों लोगों को तीर्थयात्रा करवाई गई. इसमें ट्रेन का किराया, घर से लाना, ले जाना, खाना, पीना सब शामिल था. यहीं नहीं उत्तराखंड में एक श्रद्धालु की हालत ख़राब गयी तो उसे जॉली ग्रांट हॉस्पिटल देहरादून में सरकारी खर्चे पर इलाज के लिए भर्ती कराया गया. उससे पहले अखिलेश ने कैलाश मानसरोवर पर जाने वाले यात्रियों को नकद धनराशी देने की शुरुआत की जो पहले 25,000 रुपए थी फिर बाद में 50,000 रुपए कर दी गयी. इसके अलावा अयोध्या में 84 कोसी परिक्रमा के मार्ग पर पारिजात के पेड़ लगाने का आदेश दिया, श्रद्धालुओं के लिये भजन संध्या, एम्फीथिएटर स्वीकृत किये. मथुरा में रूद्र कुंड की स्थापना और 24 घंटे बिजली आपूर्ति की घोषणा की थी.
विष्णु मंदिर प्रस्ताव के राजनितिक निहितार्थ
राम मंदिर आन्दोलन से हुए ध्रुवीकरण का सबसे ज्यादा फायदा भाजपा का हुआ. अब अखिलेश यादव विष्णु मंदिर बनवाने को कह कर भाजपा को अकेला हिन्दू हितैषी होने का तमगा छीनना चाहते हैं. कुछ हद तक ये भी सही है कि भाजपा अभी तक अयोध्या में राम मंदिर को मूर्त रूप देने में सफल नहीं हुई हैं. ऐसे में भाजपा के मंदिर प्रेम पर वो प्रश्न चिन्ह लगाना चाहते हैं. सबसे बड़ी बात आजकल की राजनीति में चल रहे शब्द सॉफ्ट हिंदुत्व को हवा देने जैसा कुछ है.
ऐसे में नया विशाल मंदिर की घोषणा, समय समय पर अपने ट्वीट के माध्यम से अपने घर के धार्मिक अनुष्ठान को शेयर करना इसी कड़ी में एक कदम माना जा रहा है. अखिलेश खुद भी ये बात मान चुके हैं कि भाजपा ने उन्हें याद दिला दिया हैं कि वो बैकवर्ड हिन्दू हैं. ऐसी किसी भी घोषणा से उनके सबसे पक्के वोट बैंक मुसलमानों पर कोई असर नहीं पड़ता दिख रहा हैं. अगर महागठबंधन लड़ता हैं तो मुस्लिम समुदाय के पास विकल्प सीमित ही रह जायेंगे.
दूसरी ओर ऐसी किसी भी घोषणा का उल्टा असर भी पड़ सकता हैं. पहली बार सपा मुखिया के किसी भी एलान का खुलकर उनकी जाति के लोगों द्वारा फेसबुक पर शेयर किया जा रहा हैं. अब ये मुलायम सिंह के ज़माने का यादव नहीं रहा जो आसमान में उड़ते किसी भी हेलीकॉप्टर को नेताजी का हेलीकाप्टर मान लेता था. अब यादवों की पीढ़ी फेसबुक पर है, सोशल मीडिया पर सीधे अखिलेश पर निशाना साधने से नहीं चूकती. एक बानगी देखिये- मनोज यादव जो लोहिया वाहिनी के पूर्व सचिव हैं लिखते हैं- “अब गठबंधन की नैया भगवान विष्णु पार करेंगे. मनुवादी संगठन की पहली उपलब्धि.”
दूसरी ओर अंकुश यादव (पूर्व मंत्री इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ इलाहाबाद, विधि छात्र, लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ) साफ़ शब्दों में लिखते हैं- “2019 का चुनाव मंदिर बनाम मंदिर पर नहीं लड़ेंगे (राम बनाम विष्णु), मस्जिद बनाम मस्जिद पर नहीं लड़ेंगे अगर हम लड़ेंगे तो जाति जनगणना पर लड़ेंगे, सामाजिक प्रतिनिधित्व पर लड़ेंगे,समाज में सबकी भागीदारी पर लड़ेंगे, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ेंगे,महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा के मुद्दे पर लड़ेंगे, मंडल बनाम कमंडल पर लड़ेंगे, गोडसे और गोलवलकर के खिलाफ अंबेडकर, लोहिया, ज्योतिबा फुले, रमाबाई, कांशीराम, पेरियार ललई यादव की विचारधारा पर लड़ेंगे सभी सामाजिक न्याय पसंद राजनीतिक दलों को एक स्पष्ट रेखा खींचनी होगी.”
ज़ाहिर हैं ऐसे में सॉफ्ट हिंदुत्व का आइना अखिलेश के लिए बहुत कारगर नहीं दिख रहा हैं. इतिहास के उदहारण उनके सामने हैं. राम जन्मभूमि – बाबरी मस्जिद विवाद में मस्जिद का ताला खुलवाने, वहां पर राम मंदिर का शिलान्यास करवाने के दौरान कांग्रेस सरकार रही. लेकिन फिर भी धार्मिक ध्रुवीकरण में सबसे ज्यादा कांग्रेस का नुकसान हुआ हैं. एक बात साफ है, धर्म, मंदिर जैसे मुद्दों पर भाजपा को अखिलेश कभी नहीं घेर सकते. ये उसका ताकतवर पक्ष है. किसी भी राजनीतिक दल को आप उसके मज़बूत पक्ष में नहीं हरा सकते, उसके कमजोर पक्ष को खोजना होगा. फिलहाल मंदिर जैसे मुद्दे पर भाजपा कहीं से कमज़ोर नहीं दिखती.
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