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ग्राउंड रिपोर्ट: सुक्का, देवा, बुधरी, लकमा और आंदा जो बताते हैं कि सुकमा में नक्सली नहीं निर्दोष आदिवासी मारे गए

छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में गोमपाड़ नाम का एक गांव है. दंडकारण्य के जंगलों में बसा ये गांव मोटर रोड से लगभग 20 किलोमीटर की पैदल दूरी पर है. एक पगडंडी इस गांव तक आती जरूर है लेकिन उस पर किसी भी चार पहिया गाड़ी का चलना असंभव है. गड्ढों से भरी इस पगडंडीनुमा सड़क पर जगह-जगह बड़े-बड़े पेड़ गिरे दिखाई देते हैं. इन पेड़ों को अगर सड़क से हटाया भी जाता है तो अगले ही दिन इससे दोगुने पेड़ सड़क पर गिरे मिलते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये सड़क उस क्षेत्र की तरफ बढ़ती है जिसे नक्सलियों का गढ़ कहा जाता है.

बेहद दुर्गम इलाके में बसे गोमपाड़ गांव के कई-कई किलोमीटर के दायरे में न तो कोई स्कूल है और न ही कोई अस्पताल. भारत का लोकतंत्र इस इलाके से अभी भी कोसों दूर खड़ा है. यहां बसने वाले आदिवासियों में बमुश्किल ही किसी ने आज तक किसी को वोट दिया है. गांव में रहने वाले किसी भी व्यक्ति के पास वोटर कार्ड ही नहीं है. पहचान के नाम पर कुछ लोगों के पास आधार कार्ड है और बाकियों के पास सिर्फ राशन कार्ड में दर्ज उनका नाम है. इन लोगों की ज़िंदगी कितनी कठिन है और मौत कितनी आसान, इसे गोमपाड़ निवासी मड़कम सुक्का की आपबीती से समझा जा सकता है.

मड़कम सुक्का घायल हैं, उनके पैर में गोली लगी है लेकिन वे अपने इलाज के लिए अस्पताल नहीं जा सकते. इसलिए नहीं कि सबसे नजदीकी अस्पताल भी करीब बीस किलोमीटर की पैदल दूरी पर है और उनके लिए इतना चलना संभव नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि उन्हें डर हैं कि अगर वे अस्पताल गए तो उन्हें नक्सली होने के नाम पर गिरफ्तार किया जा सकता है.

चश्मदीद सुक्का जिन्हें गोली लगी है

सुक्का के पैर में यह गोली बीती छह अगस्त को लगी थी. ये वही दिन था जब खबर आई थी कि ‘सुकमा में सुरक्षा बलों ने मुठभेड़ में 15 नक्सलियों को मार गिराया.’ सुक्का इस कथित मुठभेड़ के चश्मदीद हैं. उनकी आंखों के सामने ही सुरक्षा बलों ने 15 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था और मरने वालों में उनका 14 साल का बेटा मड़कम आयता भी था.

इस कथित मुठभेड़ के बाद छत्तीसगढ़ के स्पेशल डीजी (नक्सल ऑपरेशन्स) डीएम अवस्थी ने एक पत्रकार वार्ता में बताया कि “पुलिस को इंटेलिजेंस से खबर मिली थी कि नुलकातोंग गांव के पास नक्सली कैंप चला रहे हैं. इसी लीड के आधार पर हमने सैन्य बलों को वहां के लिए रवाना किया था. नक्सलियों से हुई आमने-सामने की मुठभेड़ में सुरक्षाबलों ने कैंप में मौजूद 15 नक्सलियों को मार गिराया.”

लेकिन 24 घंटे की पैदल यात्रा के बाद कथित मुठभेड़ वाले गांव पहुंचे इस रिपोर्टर के सामने एकदम अलहदा कहानी सामने आई. इस मुठभेड़ में घायल हुए मड़कम सुक्का ने घटना का बिलकुल अलग ही पक्ष बताया. छह तारीख की घटना के बारे में वे कहते हैं, “पांच अगस्त की शाम अचानक गांव में अफरा-तफरी मच गई. ख़बर मिली कि भारी संख्या में सुरक्षा बल गांव की तरफ आ रहे हैं. ये सुनकर हम सब गांववाले जंगल की तरफ भागे.”

सुक्का आगे कहते हैं, “सैन्य बल के जवान अमूमन इन गांवों तक नहीं आते. और जब आते हैं तो बड़ी संख्या में आते हैं, तब गांव के लोग उनसे बचने को भागते ही हैं. क्योंकि वे लोग हमें कभी नक्सली होने के नाम पर पीटते हैं तो कभी उठा कर ले जाते हैं. कई बार तो गांव में ही उन्होंने लोगों की हत्या भी की हैं. इसलिए कोई भी उनके सामने नहीं आना चाहता. जवान लड़के-लड़कियों को वो लोग सबसे ज्यादा निशाना बनाते हैं इसलिए सभी जवान लोग उनसे बच कर भागना चाहते हैं. उस दिन भी यही हुआ. सुरक्षा बलों की टीम जिस-जिस गांव से होते हुए आगे बढ़ी, उस-उस गांव के लोग जंगलों की तरफ भागे.”

गोमपाड़ गांव के तमाम लोग भी छह अगस्त की घटना के बारे यही बातें बताते हैं जो मड़कम सुक्का बता रहे हैं. छह तारीख को मारे गए 15 लोगों में गोमपाड़ गांव के अलावा नुलकातोंग और वेलपोच्चा गांव के लोग भी शामिल हैं. इन दोनों ही गांवों के तमाम लोग भी पुलिस के डर से जंगल में भागने की बात बताते हैं.

नुलकातोंग गांव के छह लोग इस कथित मुठभेड़ में मारे गए हैं. इनमें ताती हुंगा भी एक थे. उनके भाई ताती जोगा बताते हैं, “मैं उस दिन गांव में नहीं था. अगर होता तो शायद मैं भी आज जीवित नहीं होता. मेरा भाई गांव के अन्य लोगों की ही तरह पुलिस के डर से भागा था. गांव से कुछ दूर ही एक लाड़ी थी जहां वो लोग रात को रुके थे. उस लाड़ी को ही पुलिस नक्सली कैंप बता रही है.”

लाड़ी क्या होती है?

दंडकारण्य के इस क्षेत्र में आदिवासियों के खेत गांव से काफी दूर-दूर तक छिटके हुए हैं. ये सभी गांव घने जंगलों के बीच बसे हैं लिहाजा गांव वालों को दूर-दराज के इलाकों में जहां भी खेती लायक समतल ज़मीन मिलती है, वहीं खेती करने लगते हैं. गांव से खेत की दूरी के चलते आदिवासी अपने खेतों के पास एक झोपड़ीनुमा ढांचा खड़ा करते हैं. इसे स्थानीय भाषा में लाड़ी कहते हैं. यह लाड़ी खेती का सामान रखने, खाना बनाने, फसल रखने और कभी-कभार रात बिताने के लिए इस्तेमाल होती है. ऐसी ही एक लाड़ी में पांच अगस्त की रात वे तमाम लोग मौजूद थे जो पुलिस की डर से गांव से भागे थे. इनमें से 15 लोग अगली सुबह सुरक्षाबलों की गोलियों का शिकार हो गए.

ऐसी ही एक लाड़ी को नक्सल कैंप बताया गया है

इस मुठभेड़ को पूरी तरह से फर्जी बताते हुए नुलकातोंग निवासी मड़कम हिड़मे कहती हैं, “खेत के पास बनी लाड़ी को पुलिस नक्सली कैंप बता रही है. क्या नक्सली कैंप ऐसा होता है? वहां जाकर कोई भी देख सकता है कि वह कोई कैंप नहीं बल्कि लाड़ी थी. उस लाड़ी के ठीक पीछे पहाड़ी है. नक्सलियों को अगर कैंप करना होता तो वे पहाड़ी के पीछे सुरक्षित स्थान पर करते. नक्सलियों को इस जंगल का चप्पा-चप्पा जानकारी है. वे लोग एक खुले खेत में बनी लाड़ी में कैंप लगाने की बेवकूफी क्यों करेंगे? लाड़ी में गांव के आम लोग सो रहे थे जिन्हें पुलिस ने या तो नक्सली समझ कर मार डाला या जानते हुए भी सिर्फ इनाम पाने के लिए उनकी हत्या कर दी.”

सुरक्षाबलों की कहानी में सुराख

मड़कम हिड़मे के पति मड़कम देवा को पुलिस ने इस कथित मुठभेड़ वाले दिन ही मौके से गिरफ्तार किया है. पुलिस का दावा है कि देवा लंबे समय से सुरक्षा बलों के निशाने पर था और उस पर पांच लाख का इनाम भी रखा गया था. लेकिन हिड़मे पुलिस के इस दावे पर सवाल उठाते हुए कहती हैं, “देवा अगर इनामी नक्सली था तो उसका नाम राशन कार्ड में कैसे दर्ज है? क्या सरकार नक्सलियों को भी राशन बांट रही है? देवा गांव में ही रहता था और खेती करता था. पुलिस को अगर उसकी तलाश थी तो पुलिस ने आज तक कभी भी यहां आकर उसके बारे में पूछताछ क्यों नहीं की?” गांव के अन्य लोग भी इस बात की ताकीद करते हैं कि देवा काफी समय से गांव में ही रह कर खेती करता था.

हिड़मे आगे कहती हैं, “मैं स्वीकार करती हूं कि मेरे पति पहले नक्सलियों के लिए काम करते थे. वो लगभग एक साल तक मिलिशिया के सदस्य रहे. लेकिन उन्हें वापस आए हुए बहुत लंबा समय हो चुका है और अब वो गांव में ही रहा करते थे. पुलिस उन्हें झूठा फंसा रही है.”

“इन्हीं गोलियों ने हमारे बच्चों की जान ले ली”

न्यूज़लॉन्ड्री ने सुकमा जिले के एसपी अभिषेक मीणा से देवा के नक्सली होने और उसके ऊपर कथित तौर पर घोषित पांच लाख रुपए के ईनाम का सच जानना चाहा. हमने मीणा से पूछा कि देवा पर पांच लाख के इनाम की घोषणा कब हुई थी और क्या इस संबंध में कोई अधिसूचना या विज्ञापन जारी हुआ था, अगर हुआ था तो कब हुआ था. इस पर मीणा का जवाब था, “इस देवा पर कोई इनाम घोषित नहीं किया गया था. हमने गलती से इसे एक अन्य देवा समझ लिया था जिस पर पांच लाख का इनाम है. जिसे हमने गिरफ्तार किया है उस देवा पर कोई ईनाम नहीं था, लेकिन यह भी एक नक्सली ही है.”

कथित मिलीशिया बुधरी!

छह अगस्त को हुई कथित मुठभेड़ के बाद सुरक्षाबलों ने मौके से एक महिला को भी गिरफ्तार किया गया था. इस महिला का नाम बुधरी है और ये नुलकातोंग गांव की रहने वाली है. पुलिस का दावा है कि बुधरी अंडरग्राउंड नक्सली मिलिशिया की सदस्य है. लेकिन बुधरी की मां उसके आधार कार्ड के आवेदन की प्रतिलिपि दिखाते हुए कहती हैं, “बुधरी ने कुछ समय पहले ही आधार के लिए आवेदन किया था. अगर वो नक्सली होती तो क्या वो शहर जाकर आधार का आवेदन कर सकती थी?”

कथित मिलीशिया बुधरी का आधार आवेदन

बुधरी के आधार आवेदन पर 18 जून, 2018 की तारीख़ दर्ज है. उसके आवेदन पर ग्राम पंचायत सरपंच और पंचायत सचिव के भी हस्ताक्षर हैं. ऐसे में गांव के लोग सवाल उठाते हैं कि अगर बुधरी नक्सली होती तो वो आधार के लिए आवेदन करने कैसे जा सकती थी और पंचायत सदस्य और सचिव कैसे उसके आवेदन पर हस्ताक्षर कर देते? लेकिन सुकमा के एसपी अभिषेक मीणा इसे एक सामान्य बात मानते हैं. वे कहते हैं, “नक्सलियों के लिए आधार कार्ड या वोटर कार्ड बनाना कोई बड़ी या नई बात नहीं है. कई नक्सलियों के आधार कार्ड बने हुए हैं.”

एसपी अभिषेक मीणा का यह बयान हैरान करता है. क्योंकि इस बयान से वे यह तो साबित करने की कोशिश करते हैं कि बुधरी के पास आधार होने का यह मतलब नहीं कि वो नक्सली नहीं हो सकती, लेकिन इसी बयान से वे पूरी आधार योजना को ही सवालों के घेरे में ला खड़ा करते हैं. यदि नक्सली और आतंकवादियों के लिए भी आधार कार्ड बनवाना इतना ही आसान है जितना अभिषेक मीणा बता रहे हैं तो फिर इस योजना पर सवाल उठने लाजिमी हैं. केंद्र सरकार लगातार यह दावा करती रही है कि आधार योजना से नक्सलवाद और आतंकवाद पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी. लेकिन अगर आतंकवादी और नक्सली भी इस योजना में शामिल होकर इसके लाभार्थी बन रहे हैं, तो यह योजना उन पर लगाम कैसे लगा सकेगी?

नाबालिगों की मौत

बहरहाल, सुकमा में हुई कथित मुठभेड़ की घटना पर वापस लौटते हैं. इस दिन मारे गए 15 लोगों में कई नाबालिग भी शामिल थे. हालांकि एसपी अभिषेक मीणा कहते हैं, “पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट्स बताती हैं कि इन 15 में से 13 लोग वयस्क थे. सिर्फ दो लोगों के बारे में डॉक्टरों का कहना है कि उनकी उम्र 17,18 या 19 के आसपास हो सकती है.”

लेकिन गांव के लोग बताते हैं कि मरने वालों में कुछ बच्चे सिर्फ 13-14 साल के थे. गोमपाड़ निवासी मड़कम सुक्का के बेटे आयता का उदाहरण गांव वालों के दावे की पुष्टि करता है. आयता उनके तीन बच्चों में सबसे छोटा था. सुक्का के सबसे बड़े बच्चे की उम्र (उसके आधार कार्ड के अनुसार) अभी 18 साल है. ऐसे में निश्चित तौर से आयता की उम्र 16 या उससे कम ही रही होगी. परिजनों के पास मौजूद मारे गए लोगों की तस्वीर से भी यह आंदाजा लगाया जा सकता है कि मारे गए कुछ लोग 14-15 साल से ज्यादा उम्र के नहीं थे.

मृतक आयता अपनी बड़ी बहन के साथ

हालांकि यह भी एक सच है कि अक्सर नक्सली मिलीशिया 15-16-17 साल के बच्चों को अपने दल में शामिल कर लेते हैं और इन्हें जन मिलिशिया की श्रेणी में रखा जाता है. जन मिलिशिया नक्सली फ़ौज के सबसे प्राथमिक श्रेणी के रंगरूट होते हैं. इनका मुख्य काम होता है नक्सलियों के लिए सूचना जुटाना, उनके सन्देश एक से दूसरी जगह पहुंचाना, गांव वालों में नक्सलियों के प्रति सहानुभूति पैदा करना और गांव के स्तर पर नक्सलियों के अन्य छोटे-बड़े कार्य करना. जन मिलिशिया में शामिल लोगों के पास कई बार छोटे हथियार भी होते हैं जैसे पिस्तौल, कट्टा या भरमार बन्दूक.

लेकिन बीती छह अगस्त के दिन जो लोग मारे गए हैं, उनमें 13-14 साल के बच्चे भी शामिल थे. इतनी कम उम्र के बच्चों के नक्सली होने की संभावना से सभी ग्रामीण इनकार करते हैं. वे कहते हैं, “13-14 साल के बच्चे बहुत छोटे होते हैं. उन्हें नक्सली अपने साथ नहीं ले जाते. इस वारदात में मारे गए बच्चे निर्दोष थे.”

ऐसा ही एक बच्चा मुचाकी मूका भी था. उसकी मां मुचाकी सुकड़ी रुंधे हुए गले से कहती हैं, “छह तारीख की सुबह जब हमने गोलियों की आवाज़ सुनी तो हम लोग उस तरफ दौड़े. लेकिन तब तक उन्होंने मेरे बच्चे को मार दिया था. वो सिर्फ 13 साल का था. कुछ साल पहले ऐसे ही मेरे पति को पुलिस ने गांव में ही मार डाला था. अब मेरा बच्चा भी नहीं रहा. वो नक्सली नहीं था.”

मुचाकी सुकड़ी जिनका 13 वर्षीय बच्चा कथित मुठभेड़ में मारा गया

गांव की महिलाओं का यह भी आरोप है कि छह अगस्त की सुबह जब वे मौके पर पहुंची तो सुरक्षा बल के जवानों ने उनके साथ मारपीट की. इस आरोप की पुष्टि दंतेवाडा में रहने वाले आदिवासी कार्यकर्ता लिंगाराम कोडोपी भी करते हैं. लिंगाराम इस हादसे के कुछ दिनों बाद ही सोनी सोरी और कुछ अन्य आदिवासी कार्यकर्ताओं के साथ घटनास्थल के दौरे पर गए थे. वे कहते हैं, “गांव की महिलाएं अगर वहां न पहुंचती तो मरने वालों की संख्या और भी अधिक होती. पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार दिखाया है, उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया गया होता. बड़ी संख्या में महिलाएं वहां पहुंच गई. इनमें एक तो गर्भवती महिला भी थी जिसके साथ सुरक्षा बालों ने मारपीट की है.”

लिंगाराम और उनके साथियों ने ऐसी कुछ महिलाओं और उनके शरीर पर लगे चोट के निशानों की कई तस्वीरें भी जारी की हैं.

क्या पुलिस ने सिर्फ दो ही लोगों को गिरफ्तार किया था?

छह अगस्त को हुई इस घटना से जुड़ी दो अलग-अलग कहानियां सामने आई हैं. एक कहानी गांव वाले बताते हैं जिसके अनुसार सुरक्षा बलों ने लाड़ी में सो रहे निर्दोष लोगों की हत्या कर दी. जबकि दूसरी कहानी सुरक्षा बालों के हवाले से सामने आ रही है जिसके अनुसार मुठभेड़ में 15 नक्सलियों को मारकर सुरक्षा बालों ने बड़ी कामयाबी हासिल की है. इन दोनों कहानियों में से कौन सी सच्ची है और कौन झूठी, इसे समझने के लिए दो नौजवानों की इस मामले में भूमिका बेहद मत्वपूर्ण है. ये दो नौजवान हैं नुलकातोंग निवासी माडवी लकमा और सोड़ी आंदा.

लकमा और आंदा छह अगस्त की घटना के चश्मदीद हैं. उस दिन जब पुलिस ने फायरिंग शुरू की, तब ये दोनों भी उसी लाड़ी में मौजूद थे. गोलीबारी के बाद इन दोनों को भी पुलिस अपने साथ थाने ले गई थी लेकिन देवा और बुधरी की तरह इनकी गिरफ्तारी कहीं दिखाई नहीं गई. यानी आधिकारिक तौर पर पुलिस ने सिर्फ दो ही लोगों को गिरफ्तार दिखाया था. लेकिन असल में कुल चार लोगों को पुलिस अपने साथ ले गई थी.

इस संबंध में जब न्यूज़लॉन्ड्री ने सुकमा जिले के एसपी अभिषेक मीणा से सवाल किया तो उनका जवाब था, “हमने दो ही लोगों को गिरफ्तार किया था. दो अन्य लोगों (लकमा और आंदा) को हम पूछताछ के लिए साथ लाए थे लेकिन इन्हें अगले ही दिन छोड़ दिया गया था.”

हकीकत ये है कि लकमा और आंदा को पुलिस ने आठ दिनों तक हिरासत में रखा बिना कागजों पर उनका जिक्र किए. उन्हें 14 अगस्त को छोड़ा गया था. इतने दिनों तक ये दोनों पुलिस थाने में ही कैद रहे. एसपी अभिषेक मीणा इन दोनों युवाओं के बारे में पुष्टि करते हैं कि ये दोनों युवक घटना के वक्त मौके पर मौजूद थे लेकिन इनके पास हथियार नहीं था इसलिए इन पर सुरक्षा बालों ने गोली नहीं चलाई. यह पुलिस के दावे पर ही सवाल खड़ा करता है. जहां बड़ी संख्या में गोलीबारी हो रही हो, जिसमें 15 लोग मारे गए हों वहां पुलिस यह कैसे तय कर पायी कि किसके पास हथियार है और किसके पास नहीं?

न्यूज़लॉन्ड्री ने लकमा और आंदा से खुद बातचीत की. उन्होंने जो कहानी बताई उसके मुताबिक घटना वाले दिन वे दोनों भी अन्य ग्रामीणों की तरह ही वहां से भागने की कोशिश कर रहे थे तभी सुरक्षा बलों के जवानों ने उन्हें पकड़ लिया. उन्हें शायद मार भी दिया गया होता लेकिन तभी गांव की महिलाएं बड़ी संख्या में वहां पहुंच गई.

चश्मदीद लकमा और आंदा जिन्हें पुलिस ने आठ दिनों तक कैद रखा

एसपी अभिषेक मीणा ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि लकमा और आंदा उस दिन वहां मौजूद थे लेकिन उनके नक्सली होने के कोई सबूत पुलिस को नहीं मिले लिहाज़ा उन्हें सिर्फ पूछताछ के बाद छोड़ दिया गया. मीणा का यह बयान भी पुलिस के मुठभेड़ के दावे पर कई संशय खड़े करता है. मीणा के इस बयान से यह बात तो साफ है कि मुठभेड़ की रात लाड़ी में आम लोग भी मौजूद थे.

यह सवाल करने पर अभिषेक मीणा कहते हैं, “मारे गए सभी लोग नक्सली ही थे. सिर्फ इन दो लोगों के अलावा वहां मौजूद तमाम लोग नक्सली थे.” ये जवाब इशारा करता है कि सुरक्षा बलों ने छह अगस्त की सुबह नक्सलियों को मारने का नहीं बल्कि मरने वालों को नक्सली घोषित करने का काम किया है.

लकमा और आंदा इस पूरे मामले से जुड़े एक और अहम मुद्दे की जानकारी देते हैं. वे बताते हैं कि उस रात उनके साथ जन मिलिशिया के भी कुछ लोग मौजूद थे. सोड़ी आंदा कहते हैं, “गांव के लोग जब उस रात लाड़ी में रूके थे तो मिलीशिया के तीन-चार लोग वहां पहुंचे थे.”

घटनास्थल पर मौजूद चश्मदीदोंं के मुताबिक पुलिस ने सोते हुए लोगों पर एकतरफा गोलियां चलाकर 15 लोगों को मौत के घाट उतार दिया. पुलिस ने जिस तरह दो लोगों को गिरफ्तार किया वो चाहती तो बाकियों को भी गिरफ्तार कर सकती थी. पर उसने ऐसा नहीं किया.

इस हादसे में जान गंवाने वाले अधिकतर लोग आम आदिवासी ही थे, इसका एक प्रमाण मड़कम सुक्का भी हैं जिनका जिक्र इस रिपोर्ट की शुरुआत में किया गया है. सुक्का भी उस दिन घटनास्थल पर मौजूद थे और उन्हें भी उस दिन पैर में गोली लगी थी. वे खुशकिस्मत थे कि वहां से भागने में कामयाब रहे और उनकी जान बच गई. यही गोली अगर उनके पैर के बजाय उनकी सीने या सिर पर लगी होती अगर उनकी मौत हो गई होती, तो तय था कि उन्हें भी नक्सली ही कहा जा रहा होता. आज जब वे अपनी पहचान के साथ खुलकर अपनी आपबीती ज़ाहिर करते हैं तो इससे यह भी साबित होता है कि वे अपनी पहचान छिपाने वाले कोई नक्सली नहीं बल्कि गोमपाड़ गांव में रहने वाले एक आम ग्रामीण हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए एसपी अभिषेक मीणा यह भी कहते हैं कि, “हम ये दावा नहीं कर रहे हैं कि हमने नक्सलियों की किसी बड़ी पलटन को मार गिराया है. हम स्वीकारते हैं कि ये एक मिलीशिया पलटन थी. नक्सली फ़ौज में ये सबसे निचले स्तर के सिपाही होते हैं.”

एसपी अभिषेक मीणा की इस बात पर आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी कहती हैं, “मिलिशिया होने का आरोप ऐसा है जो किसी भी आदिवासी पर कभी भी लगाया जा सकता है. किसी को भी मारकर सुरक्षा बल आसानी से ये कह देते हैं कि वो मिलिशिया का सदस्य था.” सोनी सोरी आगे कहती हैं, “दो साल पहले हम लोगों ने एक तिरंगा यात्रा निकाली थी. इस यात्रा में 15 अगस्त के दिन हमने गोमपाड़ गांव में ही तिरंगा फ़हराया था. हमारी कोशिश थी कि इन दुर्गम क्षेत्र के लोगों को मुख्यधारा में शामिल किया जाए. लेकिन आज उसी गोमपाड़ गांव के छह लोगों की पुलिस ने नक्सली बताकर हत्या कर दी है. अब मैं किस मुंह से उन लोगों के पास जाकर मुख्यधारा में आने की अपील करूं?”

गोमपाड़ में मारे गए 6 ग्रामीणों की कब्र

इसमें कोई दो-राय नहीं है कि बीती छह अगस्त को जिस इलाके में 15 लोग पुलिस की गोलियों का शिकार हुए, वह इलाका नक्सलियों का एक मजबूत इलाका है. इसके आसपास नक्सलियों के कैंप भी लगते हैं और कई बार नक्सलियों द्वारा यहां सुरक्षाबलों पर हमले भी होते हैं. बीते कुछ समय के दौरान ही इस इलाके में सुरक्षाबलों ने भी अपनी जान गंवाई है. नक्सलियों द्वारा यहां कभी सुरक्षाबलों की गाड़ियों को विस्फोटक से उड़ा दिया जाता है तो कभी निशाना बनाकर उन्हें गोलियां मार दी जाती है. इस क्षेत्र में तैनात पुलिस से लेकर अर्ध सैनिक बलों तक, सभी अपनी जान हथेली पर रखकर यहां ड्यूटी करते हैं. लेकिन इन तमाम सच्चाइयों के बावजूद इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि निर्दोष ग्रामीणों को नक्सली बताकर मारा जाना गलत है और गोमपाड़ में तथ्य ऐसा होने की चुगली करते हैं.