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मॉब लिंचिंग नहीं, आम आदमी की शक्ल में जारी राजनीतिक हिंसा है ये

राजनीतिक मतभेद को लेकर हिंसक वारदात को अंजाम देना कोई नई परिघटना नहीं है लेकिन जिस रूप में अब यह सामने आ रही है, वो बिल्कुल ही एक नई प्रवृत्ति है और बेहद खतरनाक भी. राजनीतिक हिंसा की पुरानी संस्कृति और मौजूदा संस्कृति में सबसे बुनियादी फर्क यह है कि पुरानी वाली संस्कृति में कैडरों की हत्याएं कैडरों के द्वारा होती थी. अब उन आम लोगों के प्रति हिंसा हो रही है जो सत्ता पक्ष की राजनीति से इत्तेफाक नहीं रखते हैं. ये लोग सिविल सोसायटी के सदस्य हैं. पत्रकार, प्रोफेसर, लेखक और उच्च शिक्षा से जुड़े छात्र जैसे लोग हैं.

हालिया मामला मोतिहारी के महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर संजय कुमार का है. उनकी सिर्फ इसलिए घर से निकालकर मॉब लिंचिंग करने की कोशिश की गई क्योंकि उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सोशल मीडिया पर आलोचना की थी. इससे कुछ ही रोज़ पहले 6 अगस्त को बेतिया के एक कॉलेज के प्राचार्य प्रोफेसर हरिनारायण ठाकुर के साथ एक कार्यक्रम के दौरान दुर्व्यवहार किया गया. इस कार्यक्रम में सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी, बाबरी मस्जिद विध्वंस के गवाह युगल किशोर शरण शास्त्री और ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट रेशमा प्रसाद भी मौजूद थीं. इन सबों के साथ अपमानजनक व्यवहार करते हुए गाली-गालौज की गई. जबरदस्ती वंदे मातरम गाने को कहा गया.

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को श्रद्धांजलि देने गए स्वामी अग्निवेश के साथ भी मारपीट की गई. उमर खालिद पर दिल्ली के अति-सुरक्षित माने जाने वाले इलाके में जानलेवा हमला हुआ. भारत में राजनीतिक असहिष्णुता का यह नया दौर है. इसमें हिंसा का स्थान सबसे ऊपर आता है और इस राजनीतिक संस्कृति में मत-विमत के लिए कोई स्थान ही नहीं है. इन घटनाओं से पहले नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पंसारे, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश की राजनीतिक हत्याएं हो चुकी हैं. हां, इन्हें स्पष्ट रूप से राजनीतिक हत्याएं ही कहा जाना चाहिए. जो एक खास राजनीतिक मकसद से की गई हैं.

इन दिनों राजनीति से प्रेरित हत्याओं को करने एक दूसरा तरीका है मॉब लिंचिंग का. गाय के नाम पर दर्जनों मुसलमान और दलितों की मॉब लिंचिंग हो चुकी है. लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि क्या वाकई में इन्हें मॉब लिंचिंग का मामला कहा जाना चाहिए. फिर चाहे असिस्टेंट प्रोफेसर संजय कुमार का मामला हो या गाय के नाम पर होने वाली हत्याओं के मामले.

मॉब लिंचिंग अंग्रेजी का एक शब्द है. जिसमें मॉब का मतलब हिंदी में भीड़ होता है. वो भीड़ जिसकी कोई पहचान नहीं है. जिसका कोई चेहरा नहीं है. लेकिन विगत तीन सालों से हत्या को अंजाम देने वाली इस भीड़ का चेहरा भी है और इसकी एक हिंदुत्व की राजनीति से जुड़ी हुई पहचान भी है. गाय और राजनीतिक असहिष्णुता के नाम पर होने वाली मॉब लिंचिंग के अब तक के मामलों को देखते हुए निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है. ऐसे लगभग सभी मामलों में हिंदू परिषद, बजरंग दल और गोरक्षक दल से जुड़े लोगों के नाम सामने आए हैं. इसलिए मेरी समझ से बेहतर है इसे ‘पॉलिटिकल मॉब लिंचिंग’ कहा जाए. यह ज्यादा ईमानदार बात होगी.

ऐसा कहने की एक वजह यह भी है कि इस तरह की मॉब लिंचिंग और हिंसक वारदातों को समय-समय पर पर्याप्त प्रोत्साहन बीजेपी की सरकार की ओर से मिलता रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में कुछ भी कहे लेकिन उनके मंत्रियों और पार्टी सदस्यों को पता है कि ऐसे मामलों में कैसे मॉब लिंचिंग करने वाली राजनीतिक भीड़ का उत्साहवर्धन करना है.

असिस्टेंट प्रोफेसर संजय कुमार पर हुए हमले के मामले में भी नीतीश कुमार सरकार के पर्यटन मंत्री प्रमोद कुमार ने कहा है कि मारपीट की यह घटना तो महज तू-तू मैं-मैं की तरह है. इसे बेवजह तूल दिया जा रहा है. उन्होंने संजय कुमार को राष्ट्र विरोधी बताते हुए असहिष्णुता फैलाने वाला बताया और उल्टे उनके ऊपर ही कार्रवाई करने की मांग की. उन्होंने जिस कार्यक्रम में ये बातें कही, उस कार्यक्रम में केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह भी उपस्थित थे. संजय कुमार के खिलाफ एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने शहर में कैंडल मार्च भी निकाला.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी हाल ही में बयान दिया था कि मॉब लिंचिंग की एक भी घटना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. हमारे समाज में शांति और एकता सुनिश्चित करने के लिए हर किसी को राजनीति से ऊपर उठना चाहिए. लेकिन बीजेपी और आरएसएस से जुड़े नेता कुछ और ही राग अलापते नजर आते हैं. अपनी ही पार्टी के नेताओं के द्वारा अनसुना किया जाने वाला इतना ‘मज़बूत नेता’ शायद ही भारत में कोई दूसरा हुआ हो.

अलवर में रकबर की हत्या के बाद आरएसएस के नेता इंद्रेश कुमार ने विवादित बयान दिया था कि लोग गोमांस खाना छोड़ दे तो मॉब लिंचिंग बंद हो जाएगी. बीजेपी के नेता और बजरंग दल के संस्थापक विनय कटियार ने पिछले महीने बयान दिया था कि मुसलमानों को यह बात समझनी चाहिए कि अगर गोहत्या होगी तो मॉब लिंचिंग जरूर होगी.

इससे पहले हैदराबाद के गोशामहल से विधायक टी राजा सिंह ने बयान दिया था कि जो भी गाय को मारेगा, उसे ऊना के दलितों की तरह ही पीटा जाएगा.

बहुत साफ है कि जिस भीड़ की हम बात कर रहे हैं दरअसल वो कोई ऐसी भीड़ नहीं है जिसकी अपनी कोई विचारधारा नहीं. जिसका कोई राजनीतिक-सामाजिक आधार नहीं. यह एक प्रायोजित भीड़ है लेकिन आम आदमी की शक्ल में है. इसे पहचानना बहुत आसान है. सोशल मीडिया पर भी यह भीड़ अपनी फेक और असली दोनों ही पहचान के साथ मौजूद है. वहां भी पर्याप्त रूप से यह भीड़ लिखित, मौखिक मॉब लिंचिंग करती है.

हिंसा की इन घटनाओं में जिन्हें निशाना बनाया जा रहा है, वे दो तरह के लोग हैं. एक तो वो जो समाज में सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं. मुसलमान, दलित और पिछड़े. दूसरे वे लोग इस राजनीतिक हिंसा के शिकार हो रहे हैं जो किसी ना किसी रूप में यूनिवर्सिटी सिस्टम और पढ़ने-लिखने के काम से जुड़े हुए हैं और इस वंचित और प्रताड़ित समाज के प्रति संवेदनशील हैं.

इन कृत्यों को देखकर साफ लगता है कि बीजेपी और आरएसएस सावरकर के नारे ‘राजनीति का हिंदूकरण करो और हिंदुओं का सैन्यीकरण करो’ का गंभीरता से पालन कर रही है. सोचना तो उन राजनीतिक उत्तराधिकारियों को है जिनके पूर्वजों ने भारत को एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी देश बनाने का सपना देखा था.