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अपनी ही फोटो और आवाज के नीचे दब जाने का खतरा
सरकार ने इमरजेंसी की बरसी पर 26 जून को मदमस्त होकर काला दिवस मनाया. मकसद यह बताना था कि जनता विपक्ष की अफवाहों पर ध्यान न दे, प्रधानमंत्री मोदी संसद भंग कर न तानाशाह बनने जा रहे हैं न ही संविधान बदल कर हिंदू राष्ट्र बनाने वाले हैं. उन्होंने मुंबई में जो भाषण दिया उसमें वह संवेदना थी जो अभिनेताओं की आंखों से ग्लिसरीन के रूप में बहती है. अड़तीस साल बाद भी उन्हें एक झक्की गायक की पीड़ा याद रही, बोले, “जब किशोर कुमार ने कांग्रेस के लिए गाने से इनकार कर दिया तो रेडियो पर उनके गाने बजाने नहीं दिए जाते थे.”
अगले ही महीने, एक खबरिया चैनल के एंकर, पुण्य प्रसून बाजपेई ने भाजपा के लिए गाने से इनकार किया तो उसे नौकरी से बाहर निकलवा दिया. इमरजेंसी लगाने वाली इंदिरा गांधी ने किशोर कुमार के गाने सिर्फ आकाशवाणी पर बजाने से रोका था, उनके पेट पर लात नहीं मारी थी. आवाज अगर भावना के साथ न्याय करे तो गायक खबर बन जाता है. अगर खबर सच्चाई के साथ यही करे तो गीत बन जाती है. पुण्य प्रसून एक गायक है जिसने कम से कम छत्तीसगढ़ की चंद्रमणि कौशिक का एक गाना अच्छा गाया.
नौकरी भी आध्यात्म में प्रचलित लोकतांत्रिक तरीके से खाई गई ताकि तानाशाही की धमक न सुनाई दे. चैनल के मालिक से कहा गया, तुम्हारा एंकर न मेरा नाम ले, न मेरी फोटो दिखाए बाकी चाहे जो करे. यह पानी पर चलकर दिखाने की शर्त थी जिसका एक ही मतलब था, बहुत गाना बजाना हो चुका मीडिया के किशोर कुमार! अब खामोश रहो.
महानाटकीय बात लगती है कि भारत जैसे विशाल देश का प्रधानमंत्री एक चैनल के एंकर को इतनी तवज्जो देगा… लेकिन हो यही रहा है और उसके ठोस कारण है जिसकी स्पष्ट ध्वनियां मोदी के ‘मुझे चौराहे पर जला देना’ जैसे भाषणों की भाषा में मौजूद हैं. उन्होंने अपने लिए कभी कोई बड़ा लक्ष्य नहीं चुना था बल्कि असंभव स्वपनों का धुंआधार प्रचार किया था.
फाड़ डालने की हद तक तेज थाप से लोकतंत्र का नगाड़ा बजाते प्रधानमंत्री मोदी आखिर क्यों इतनी सख्ती से सरकार की आलोचना के बीच अपना नाम और फोटो घुसाने से मना कर रहे हैं. क्या कारण है? जबकि वे खुद कहते हैं कि बिना आलोचना के लोकतंत्र मर जाता है. इसीलिए उन्होंने इमरजेंसी के खिलाफ लड़ाई लड़ी. वे खिलाफ विचार वाले रामनाथ गोयनका और कुलदीप नैयर का भी सम्मान करते हैं.
जवाब खोजते हुए एक तेज गति की फिल्म चलने लगती है. कुछ ‘गुस्ताखी माफ’ या उन कार्टूनों जैसी जो चुनाव के समय चैनल दिखाते हैं- छत्तीसगढ़ के कन्हारपुरी में चंद्रमणि बैठी है.
दिल्ली में वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए किसान लाभार्थियों का हाल लेने के लिए मोदी बैठे हैं.
बीच में एक डिब्बे के पीछे चैनल का एंकर बैठा है जो दोनों को ताड़ रहा है.
मोदी पुलिस के जत्थे के बीच भागते हुए जाते हैं, चंद्रमणि के कान में कुछ कहते हैं और तेजी से आकर अपनी जगह बैठ जाते हैं.
कॉन्फ्रेसिंग शुरू होते ही चंद्रमणि कहती है हां, हमारी आमदनी दोगुनी हो गई है, प्रधानमंत्री हंसते हैं.
एंकर एक आंख छोटी करते हुए एक रिपोर्टर को चंद्रमणि के पास भेजता है, वह अब कहती है कुछ नहीं हुआ है दिल्ली से आकर बोलने को कहे तो बोल दिए.
मोदी घूर कर सूचना मंत्री को देखते हैं, मंत्री गुर्रा कर कहते हैं चैनल झूठा है.
एंकर दोबारा रिपोर्टर को चंद्रमणि के पास भेजता है लेकिन उसे तो पुलिस अपने पीछे छिपाए खड़ी है.
पुलिस वाले खैनी ठोंकने के लिए कुछ दूर जाते हैं, चंद्रमणि के लिए इतना मौका काफी है, वह कहती है, पुलिस के सामने पुलिस वाली बात, अपने घर में असली बात, यही जनता है.
गुस्से से फुफकारते मोदी पहले चैनल की ओर जाते भाजपा के प्रवक्ताओं और मंत्रियों को वापस बुला लेते हैं, सरकारी विज्ञापन बंद कराते हैं, फिर निजी कंपनियों के विज्ञापन बंद कराते हैं.
एंकर नहीं चुप होता तो सरकार एक टेलीपोर्ट से चैनल के सैटेलाइट लिंक पर अधाधुंध फायर करने लगती है. स्क्रीन पर कालिख पुती दिखने लगती है, एंकर स्टूडियो में बैठा मनोयोग से मक्खियां मार रहा है. मक्खियों का ढेर लग जाता है तब चैनल का मालिक कहता है, न मोदी की फोटो दिखाओगे न नाम लोगे, पानी पर चल कर दिखाओ.
एंकर हैरान है कि मालिक को सर्वव्यापी मोदी क्यों नहीं दिखाई दे रहे. वह एक गिलास पानी पीकर, जमीन पर चलते हुए चैनल के बाहर चला जाता है.
आप को लग रहा होगा महाझूठ दृश्य है, कब प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसा किया? लेकिन जरा गौर से देखिए सूचना मंत्री, चैनलों की समीक्षा करने वाले स्टाफ, सूचना मंत्रालय के अफसरों, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह, वहां के अफसरों, पुलिस वालों और सैटेलाइट लिंक को निश्चित समय के लिए ध्वस्त करने वाले तकनीशियनों के चलने के ढंग, हाथ मिलाने, फोन करने, चाय पीने, आंखें उठाने और गिराने के ढंग में मोदी नहीं दिखाई दे रहे हैं?
सत्ता ऐसे ही काम करती है. वहां मोदी थे इसलिए आत्मविश्वास ही नहीं दंड का भय भी था लिहाजा सबने दोगुनी सख्ती से काम किया. ऐसा नहीं होता तो कहां चंद्रमणि और कहां चैनल! वे झांकने भी नहीं जाते. हद से हद किसी अफसर को एक नोटिस भेज दिया जाता.
लेकिन मोदी क्यों चाहते हैं कि नकारात्मक ख़बरों के साथ न उनकी फोटो दिखे न नाम आए. बीते चार सालों की तस्वीरों को देखिए, सबमें से सफलता उफनती दिखाई देगी. आशा, जश्न, उत्साह का संदेश देने के लिए जरूरी था कि वह मॉब लिंचिंग, बैंक घोटाला, दलितों की नाराजगी, बलात्कार, जीडीपी का पतन वगैरह जैसी नकारात्मक घटनाओं के समय चुप रहें और ऐसे घटनास्थलों पर जाने से बचें वरना उनकी तस्वीरें नकार और निराशा पैदा करने का कारण बन जातीं.
पिछले पांच साल में छवि निर्माण की ही एकमात्र सफल विराट परियोजना चलाई गई है जिसकी शुरुआत आम चुनाव से भी पहले नकली लालकिले से भाषण देने, कारों पर नमो नमो का स्टीकर चिपकाने और एलईडी स्क्रीन के जरिए चुनावी रैलियों में उनकी छवि और आवाज का प्रभाव कई गुना बढ़ाने से हुई थी. इस बीच बहुप्रचारित सरकारी योजनाओं में जो कारीगरी की गई है वह उन ठेकेदारों और इंजीनियरों के जुगाड़ से भी कमतर है जिनकी बनाई सड़कें पहली बरसात में ही उखड़ जाती हैं. इसीलिए चंद्रमणि जैसे आम लोगों का प्रबंधन करना पड़ रहा है जो कि असंभव है क्योंकि वह सरकारी कर्मचारी नहीं है जो नौकरी जाने के डर से चुप रहेगी. वह ‘गंगा की मछली तुम भी सुंदर- जमुना की मछली तुम भी सुंदर’ कहने के बीच में सच्चाई बोल देगी.
कर्म और परिणाम से रहित होने के कारण शानदार छूंछी तस्वीरों, वादों और उद्घोष से लदी आवाजों का वजन बढ़ता जा रहा है. हजारों तस्वीरें और सैकड़ों भाषण हैं जिनका इस्तेमाल इन दिनों सरकार की कथनी और करनी का अंतर बताने के लिए किया जा रहा है. वह जिस मीडिया पर किया जा रहा है वह खबरिया चैनल से बहुत आगे की चीज है. उसी से दंगा भी भड़कता है उसी से आग भी बुझाई जाती है. अपनी तस्वीरों और अपनी ही आवाजों के विशाल ढेर के नीचे प्रधानमंत्री के दबने का खतरा पैदा हो गया है.
एक योजना-एक चंद्रमणि-एक सच और इतनी बौखलाहट. जब सामने सत्ता जाने का खतरा होगा तब प्रधानमंत्री मोदी क्या करेंगे! जैसे-जैसे चुनाव करीब आएगा, हर क्षेत्र में किशोर कुमारों का स्वर ऊंचा होता जाएगा, तब मोदी को या तो विफलता स्वीकार करनी पड़ेगी या लोकतांत्रिक चोला उतार कर अपने वास्तविक रूप में सामने आना पड़ेगा. चुनाव से पहले कुछ भी होना असंभव नहीं है.
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