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विपक्षी एकता के लिए राहुल छोड़ेंगे प्रधानमंत्री पद की दावेदारी
कांग्रेस कार्यसमिति ने रविवार को ही राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था. लेकिन महिला पत्रकारों के साथ मुलाक़ात के दौरान राहुल गांधी ने ये कहकर सबको चौंका दिया कि उनके अलावा भी कोई प्रधानमंत्री बन सकता है. इसके बाद से सियासत गर्म है.
राहुल गांधी अपनी मां सोनिया गांधी की तरह 2004 वाली घटना दोहराने की शायद कोशिश कर रहें हैं. तब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद लेने से इनकार कर दिया था. जिसके बाद कांग्रेस में उन्हें त्याग की देवी जैसे खिताब से नवाजा गया. लेकिन सोनिया गांधी ने ये सब तब किया था जब कांग्रेस के पास संख्या बल था.
कांग्रेस अपने चुनावी इतिहास में सबसे कमज़ोर हालत में है. जिसकी वजह से राहुल गांधी को अपने कदम खींचने पड़ रहे हैं. हालांकि कार्यसमिति के प्रस्ताव को इतनी जल्दी पलट देना राजनीतिक तौर पर समझदारी वाला कदम नहीं कहा जा सकता है. राहुल गांधी को यह बयान देने से पहले सियासी माहौल को परखना चाहिए था. इसके बाद पार्टी को विश्वास में लेकर वो कोई फैसला करते तो इसके परिणाम सार्थक निकलते. इस तरह कार्यसमिति की बात को पलट देने से ये संदेश जाता है कि राहुल गांधी कार्यसमिति की बात को अहमियत नहीं दे रहे हैं.
फोर एम की थ्योरी
सूत्रों के मुताबिक राहुल गांधी ने महिला पत्रकारों से बातचीत में अगला प्रधानमंत्री किसी महिला के बनने के सवाल पर अपनी सहमति दी. ममता, मायावती, मीरा कुमार और महिला ये कांग्रेस के फोकस में हैं. ममता और मायावती की काट के लिए मीरा कुमार का नाम भी आगे बढ़ाया जा सकता है. मीरा कुमार दलित होने के अलावा केन्द्र में मंत्री और लोकसभा की स्पीकर रह चुकी हैं.
पार्टी ने राष्ट्रपति का चुनाव भी उन्हें लड़ाया है. मीरा कुमार कांग्रेस आलाकमान के खांचे में मनमोहन सिंह की तरह फिट बैठ सकती है. मीरा कुमार की कोई राजनीतिक ज़मीन नहीं है, सिवाय इसके वो बाबू जगजीवन राम की पुत्री हैं. लेकिन मायावती और ममता के पास अपनी राजनीतिक ज़मीन है, जो आगे चलकर कांग्रेस के लिए दिक्कत पैदा कर सकता है. कांग्रेस इसका एक और फायदा देख रही है. महिला नेता होने की स्थिति में आधी आबादी को अपने पक्ष में किया जा सकता है. साथ ही प्रधानमंत्री के तत्काल तीन तलाक़ के मसले पर मुस्लिम महिला वाले कार्ड का जवाब भी दिया जा सकता है.
गठबंधन सियासी मजबूरी
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस पहली बार गठबंधन की सरकार के लिए हामी भर रही है. 2004 से 2014 तक यूपीए की सरकार गठबंधन की ही सरकार रही है. इससे पहले 1990 में चंद्रशेखर की सरकार को फिर 1996 में पहले एचडी देवगौड़ा और फिर इन्द्र कुमार गुजराल की सरकार का भी समर्थन किया था. लेकिन इस बार क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा ज्यादा है. कांग्रेस बेहद कमजोर स्थिति में है. अब क्षेत्रीय पार्टियां अपनी शर्तों पर समझौता स्वीकार करना चाहती हैं. कोई भी दल चुनाव से पहले कांग्रेस को ड्राइविंग सीट पर नहीं देखना चाहता है. जिससे कांग्रेस की राजनीतिक दिक्कत बढ़ गयी है.
गठबंधन के लिए कुर्बानी
राहुल गांधी समान विचारधारा वाली पार्टियों के साथ गठजोड़ बनाने के लिए प्रधानमंत्री पद का त्याग कर रहें हैं. जो राजनीतिक सूझबूझ के हिसाब से सही कदम लग रहा है. राहुल गांधी की उम्मीदवारी को लेकर रीजनल पार्टियां सहज नहीं थी. ममता बनर्जी तो खुलेआम राहुल की वरिष्ठता को लेकर सवाल उठाती रहीं है. बची खुची कसर तेजस्वी यादव ने पूरी कर दी है. जबकि आरजेडी कांग्रेस की सबसे मज़बूत सहयोगी में से है. 2019 का चुनाव गठबंधन के भरोसे ही कांग्रेस लड़ना चाहती है.
क्षेत्रीय पार्टियों पर दारोमदार
कांग्रेस की कार्यसमिति में उत्तर भारत और तमिलनाडु में पार्टी की खस्ता हालत पर चर्चा हुई है. उत्तर प्रदेश और बिहार से बंगाल तक पार्टी का कोई वजूद नहीं बचा है. यूपी में एसपी-बीएसपी के गठबंधन के बीच कांग्रेस को अपनी जगह तलाश करनी पड़ रही है. बिहार में आरजेडी के बाद कांग्रेस का नंबर है. तो बंगाल में तृणमूल और लेफ्ट के बीच गठजोड़ को लेकर कशमकश है.
पश्चिम बंगाल में पार्टी के कई नेता जिसमें चार विधायक भी हैं, बेहतर भविष्य की तलाश में टीएमसी के साथ चले गए हैं. कांग्रेस को मालूम है कि चुनाव से तकरीबन आठ महीने पहले संभावित सहयोगी दलों को नाराज़ करना मुफीद नहीं है. पहले तो मनाने का वक्त नहीं बचा है. दूसरे गठबंधन को लेकर अभी कोई सार्थक पहल नहीं हुई है. कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी को कमेटी बनाकर उसको काम सौंपना है. अभी पार्टी के भीतर इस कमेटी को लेकर ही कशमकश है. सोनिया गांधी की टीम गठजोड़ को लेकर काम शुरू करेगी या राहुल गांधी अपनी कोई नई टीम बनाएंगें, यह भी अभी तय नहीं है.
2004 की तर्ज़ पर गठबंधन
कांग्रेस चाहती है कि 2004 की तरह ही छोटे दलों के साथ गठबंधन किया जाए. खासकर क्षेत्रीय दलों के साथ जिनकी पैठ एक राज्य या फिर एक क्षेत्र तक सीमित है. बिना किसी चेहरे के चुनाव लड़ा जा सकता है. जिसमें एक कॉमन प्रोग्राम के तहत पार्टियां चुनाव मैदान में उतरे. कांग्रेस को लग रहा है कि राहुल गांधी का चेहरा पेश करते ही गठबंधन का शिराज़ा बिखर सकता है. अभी माहौल ये नहीं है कि पार्टी अपने उम्मीदवार को लेकर दबाव बनाए.
कांग्रेस की बिसात
कांग्रेस राहुल गांधी को पीछे करके चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़ने की तैयारी कर रही है. जिसमें गठबंधन और बगैर गठबंधन की बात शामिल है. कांग्रेस के पास केरल में यूडीएफ है, जहां वो बड़ी पार्टी है. तमिलनाडु में डीएमके का साथ सहयोगी दल के तौर पर है. आन्ध्र प्रदेश में पार्टी अभी टीडीपी की ओर देख रही है. तेलांगना में मुख्य विपक्षी पार्टी है और महाराष्ट्र में एनसीपी के साथ बराबर की सहयोगी है. गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अकेले बीजेपी का मुकाबला कर सकती है.
बीएसपी का साथ मिलेगा तो पार्टी बीजेपी को बेदखल कर सकती है. ओडिशा में बीजेपी और बीजेडी के बराबर की टक्कर में कांग्रेस को इज्जत बचाने भर की सीट मिल सकती है. झारखंड में जेएमएम के साथ पार्टी का सहयोग बरकरार है. असम में एआईयूडीएफ के साथ कांग्रेस का ऐसे गठबंधन की बात चल रही है जिससे दोनों दलों का फायदा हो. कर्नाटक में जेडीएस के साथ सरकार चल रही है. कांग्रेस के प्रंबधक चाहते है कि किसी भी तरह पार्टी के 2004 की यानि 141 सदस्य से ज्यादा चुन कर आ जाएं, फिर पार्टी सबसे बड़ा दल होने के नाते वह अपना दावा प्रधानमंत्री के पद पर ठोक सकती है. जिसके बाद बाकी दलों के पास विकल्प नहीं बचेगा.
राहुल नहीं चाहते 1999 जैसी घटना दोहराना
अटल बिहारी वाजपेयी की तेरह महीने की सरकार गिरने के बाद सोनिया गांधी ने सरकार बनाने की नाकाम कोशिश की थी. जिसमें सबसे बड़ा रोड़ा मुलायम सिंह यादव जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप बने थे. पूर्व कांग्रेस के नेता अर्जुन सिंह ने मुलायम सिंह यादव पर विश्वास करके सरकार बनाने का दावा पेश करवा दिया. लेकिन इस बीच मुलायम सिंह यादव बीजेपी से मिल गए. मुलायम ने बीजेपी से मध्यावधि चुनाव कराने की शर्त पर सोनिया को समर्थन देने से इनकार कर दिया था.
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