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मीडिया में मॉब लिंचिंग की प्रवृतियां
इन दिनों मीडिया को न्यूज़ मैन्यूफैक्चरर के तौर पर देखा जाता है. यही कारण है कि मीडिया के खिलाफ यह शिकायतें बढ़ रहीं है कि वह नेताओं और समाज के दूसरे नामी गिरामी लोगों के बयानों को तोड़ मरोड़कर पेश करता है. मीडिया विश्लेषकों का मानना है कि महत्वपूर्ण लोगों के किसी एक बयान भर को तोड़कर प्रस्तुत करने से मीडिया को कई दिनों की हेडलाइन और स्टुडियो में बहस की खुराक की आपूर्ति हो जाती है.
मसलन दैनिक जागरण घराने के उर्दू अखबार इंकलाब में एक हेडलाइन के छपने को लेकर हाल ही में एक विवाद सामने आया. 12 जुलाई 2018 को इंकलाब ने इस शीर्षक से एक खबर प्रकाशित की-
“हां, कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है… क्योंकि मुसलमान कमज़ोर हैं और कांग्रेस हमेशा कमज़ोरों के साथ रही है.”
पहली बात तो इंकलाब ने यह हेडिंग लोगों को आकर्षित करने और उसे कैची बनाने के उद्देश्य से छोटी करने के चक्कर में लगाई. क्योंकि खबर में विस्तार से यह कहा गया है कि कांग्रेस दूसरे कमजोर तबकों की तरह मुसलमानों के लिए वकालत करने पर क्यों जोर देती है.
इंक़लाब में छपी ख़बर का सार….
ख़बर यूं थी- मुस्लिम अपीज़मेंट के इल्ज़ामात को फरामोश करते हुए कांग्रेस के सदर राहुल गांधी ने कहा कि हां, कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है, क्योंकि मुसलमान कमज़ोर हैं और कांग्रेस हमेशा कामज़ोरों के साथ रही है.
लेकिन इस ख़बर को एक ग़लत और अलग रुख़ देने की शुरुआत कुछ और लोगों ने की. पहले उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार शाहिद सिद्दीक़ी जो कि ऐसे पहले उर्दू के पत्रकार हैं जिन्होंने मोदी का इंटरव्यू किया था, और जिसके कारण उन्हें समाजवादी पार्टी से निकाल दिया गया था.
शाहिद सिद्दीक़ी ने इंक़लाब की हेडिंग “हां, कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है” को Yes Congress is a Muslim Party (हां, कांग्रेस एक मुस्लिम पार्टी है) के साथ ट्वीट कर दिया. हां, यहां यस के अर्थ में नहीं है. लेकिन उर्दू के वाक्य से निकलने वाली ध्वनि का अंग्रेजी में इस तरह तर्जुमा करने की वजह से इस ख़बर का मतलब बिल्कुल बदल गया. और देश भर के मीडिया के लिए इंकलाब की खबर की बजाय शाहिद सिद्दीकी का ट्वीट ही एक बड़ी खुराक बन गया.
हैरानी इस बात की है कि देश भर के मीडिया में इंकलाब का नाम लिया जाता रहा लेकिन मसाले के तौर पर शाहिद सिद्दीकी का ट्वीट ही काम कर रहा था.
क्या मीडिया को इंकलाब के केवल नाम की जरुरत थी और ख़बर के रूप में उर्दू के पत्रकार शाहिद सिद्दीकी के ट्वीट का इस्तेमाल करना ही उसकी जरुरत को पूरा कर सकती थी? क्योंकि शाहिद सिद्दीकी के ट्वीट के अलावा शायद ही किसी समाचार पत्र और चैनल ने इंकलाब की ख़बर को पढ़ने की जरुरत की हो.
लेकिन तथ्य के बजाय तथ्य और मनगंढ़त के बीच की एक भाषा गढ़ने की एक संस्कृति बन चुकी है जिसमें सच को जानने के बजाय विभिन्न तरह के कारोबार में लगे लोग उससे अपनी जरुरतें पूरी करना ज्यादा महत्वपूर्ण मानने लगे हैं.
शाहिद सिद्दीकी जैसे लोग इस बीच की भाषा की ढाल बनते हैं जो सच को सिर के बल खड़ी कर सकती है. मीडिया ने इंकलाब के बजाय शाहिद सिद्दीकी के ट्वीट को अपना खुराक बनाया तो भाजपा ने इस ट्वीट के आधार पर मीडिया की जानकारी को अपने मुवाफिक समझ कर इस्तेमाल करना शुरु कर दिया.
दरअसल सच को जब पहली बार खरोंच पहुंचाई जाती है तो फिर उसके उपचार के लिए एक अदद इंसान तैयार न करके हमारे यहां एक भीड़ की संस्कृति तैयार की गई है जो कि घायल पर टूट पड़ती है. नतीजा यह होता है कि जिसका सच घायल हुआ है वही दुविधा में फंस जाता है कि वह भीड़ की तरफ देखें कि सच को जोर देकर फिर से बोले.
भीड़ के हमले के बाद इंकलाब की ख़बर के नाम पर हो रहे धुव्रीकरण के हालात को देखकर कांग्रेस भी बैकफुट पर आ गई, जबकि पहले उसे ख़बर की तहक़ीक़ात करनी चाहिए थी, पढ़ना चाहिए था. लेकिन कांग्रेस भीड़ के आक्रमण के हालात देखकर पस्त हो रही थी. नतीजा खुले आम इस बात का विरोध करने के बजाय हालत यह हो गई कि पार्टी प्रवक्ता कुछ बोल रहे थे और राहुल गांधी के साथ एक प्रतिनिधमंडल की मीटिंग कराने वाले नेता कुछ और.
इस प्रकरण से यह बात सामने आती है कि क्या मीडिया को रोजाना अपने अनुकूल सामग्री तैयार करने की जरुरत होती है और इस तरह की घटनाएं इन दिनों अक्सर होने लगी हैं?
ऐसा लगता है कि मीडिया ने इस तरह की जरुरतों को पूरा करने के लिए दो रास्ते तैयार किये हैं. पहला कि वह किसी बयान की व्याख्या अपनी जरुरतों के अनुकूल करती है और दूसरा वह किसी ऐसे स्रोत की खोज करती है जो किसी तथ्य की उसके अनुकूल व्याख्या कर दें. वह मूल स्रोत के बजाय उस वैककल्पिक स्रोत के बहाने अपनी खुराक को न्यायोचित ठहरा सकें.
ऐसा ही एक विवाद डा. प्रकाश आम्बेडकर की 19 जनवरी की प्रेस वार्ता के बाद सामने आया था. उनके कथन का अर्थ यह प्रस्तुत किया गया कि 2024 तक नरेन्द्र मोदी को कोई चुनौती नहीं है. जबकि उन्होंने 2019 के चुनावों के संदर्भ में कहा था कि नरेन्द्र मोदी को किस तरह से चुनौती दी जा सकती है. विवाद के बाद विस्तार से यह जानकारी यूट्यूब पर उपलब्ध करवाई गई.
इस तरह के उदाहरण तकरीबन रोज ब रोज सामने आ रहे हैं. मीडिया में बयानों को तोड़ने मरोड़ने की घटनाएं मॉब लिंचिग की तरह हो गई हैं.
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