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गोपालदास नीरज: आओ उड़ जाएं कहीं बन के पवन हो…

दुनिया जिन्हें नीरज के नाम से जानती है, उनसे हमारा पारिवारिक रिश्ता था. उनकी कविता का रसायन, उन देशज और तत्सम हिन्दी शब्दों के हवाले से भी बनता था, जिसे फ़िल्म गीतों में अधिकांश शायरों ने कभी इस्तेमाल के लायक ही नहीं समझा था. ‘हे मैंने क़सम ली’ में ‘सांस तेरी, मदिर मदिर, जैसे रजनीगन्धा’ लिखकर हिन्दी गीतों की दुनिया को सुगंधित करने का काम उन्होंने किया. ‘फूलों के रंग से’ में ‘बादल बिजली चन्दन पानी जैसा अपना प्यार’ जैसे उपमान से उन्होंने रैदास की परंपरा में फिल्मी गीतों को शुमार करवाया- ‘प्रभु जी, तुम चन्दन हम पानी’. यह प्यार की अभिव्यक्ति के सिलसिले में एक असाधारण लेखन था.

नीरज की गीत और काव्य परंपरा में ध्यान से देखने पर चन्दन, रजनीगन्धा, जल, मदिर, मधुर, दरपन, आंचल, हिया, बैरन, कलियां, छलिया, पाती और बहुतेरे शब्दों ने अपनी एक ख़ास जगह मुकम्मल की. ये उनकी उस देशज हिंदी संस्कृति का सम्मान था, जिसे हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री ने उनकी शर्तों पर स्वीकारा. उस इंडस्ट्री ने, जिसे अक्सर उर्दू और हिंदुस्तानी बोली से काम चलाने की आदत रही थी.

अस्सी के दशक में तकरीबन हर साल वो हमारे घर अयोध्या आते रहते थे. हमारे इंटर कालेज में उनकी ही सरपरस्ती में देर रात तक चलने वाला मुशायरा होता था. वे और बेकल उत्साही, उस कार्यक्रम की स्थायी उपस्थिति हुआ करते थे, लगभग एक दशक तक. बाद में धीरे-धीरे उनका आना कम होता गया. मुझे अपने बचपन के वो दिन याद हैं, जब घर में बैठे हुए हमारी बुआ के आग्रह पर न जाने कितने गीत उन्होंने अपनी आवाज़ में रेकॉर्ड करवाए.

उनकी अनगिनत निजी स्मृतियों में मुझे एक वाकया हमेशा याद आता है. एक बार उन्होंने बड़े तरन्नुम में ‘नयी उमर की नयी फसल’ का अपना ही लिखा हुआ गीत ‘देखती ही रहो आज दरपन न तुम, प्यार का ये मुहूरत निकल जाएगा,’ ऐसा गाकर रेकॉर्ड करवाया, कि वहां मौजूद हर शै (जीव, अजीव) अपनी सुध भुला बैठा. हमारी बुआ ने न जाने कितनी नज़्मों को उनकी आवाज़ में सहेजा. आज, सब बस कल की ही बात लगती है.

हालांकि मेरे लिए उनकी कविता का असर तब आया, जब इंटर में पढ़ते हुए एक दिन ‘तेरे मेरे सपने’ फ़िल्म का उनका गीत ‘जैसे राधा ने माला जपी श्याम की’ मुझे सुनने को मिला. उस गीत में जाने कौन सा जादू था, जिसने एकबारगी नीरजजी की कविता के सम्मोहन में ऐसा डाला, जिससे अब इस जीवन में निकलना सम्भव नहीं. प्रेम और रूमानियत के इस गीतकार ने जैसे अन्तस छू दिया हो.

फिर तो उनकी कविता और उसके मादक सौंदर्य ने कभी आसव तो कभी मदिरा का काम किया. उनके सारे गीत, जैसे भीतर की पुकार बनते चले गए. उन गीतों के अर्थ को पकड़ना, जैसे कुछ अपने ही अंदर कस्तूरी के रंग को खोजने की एक तड़प भरी कोशिश रही हर बार.

सबके आंगन दिया जले रे/
मोरे आंगन हिया/
हवा लागे शूल जैसी/
ताना मारे चुनरिया/
आयी है आंसू की बारात/
बैरन बन गयी निंदिया.

इस गीत में लताजी की आवाज़ ने, राग पटदीप की सुंदर मगर दर्द भरी गूंज और नीरज की बेगानेपन को पुकारती कलम ने जैसे मेरे लिए हमेशा के वास्ते दुःख को एक शक्ल देने वाली इबारत दे दी है. आज तक सैकड़ों बार सुने जा चुके इस गीत के रूमान से अब भला कोई क्यों बाहर निकलना चाहेगा?

वह गीत एक लिहाज से नीरज को समझने की भी दृष्टि दे गया, जिसके पीछे कानपुर में छूट गया उनका असफल प्रेम शब्द बदल-बदल कर उनकी राह रोकता रहा. कानपुर पर उनकी मशहूर नज़्म के बिखरे मोती आप उनके फिल्मी गीतों में बड़ी आसानी से ढूंढ सकते हैं.

‘प्रेम पुजारी’ में उनका कहन देखिए- ‘न बुझे है किसी जल से ये जलन’, जैसे सारी अलकनंदाओं का जल भी प्रेम की अगन को शीतल करने में नाकाफ़ी हो. उन्होंने ये भी बड़ी खूबसूरती से कहा- ‘चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है, देखो देखो टूटे ना..’ हाय, क्या अदा है, प्रेयसी की नाज़ुक कलाइयों के लिए अपने दिल को चूड़ी बना देना.

फिर, शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब’ में नशा तराशते हुए प्यार को परिभाषा देने का नया अंदाज़. गीतों में तड़प, रूमान, एहसास, जज़्बात, दर्द, बेचैनी, इसरार, मनुहार, समर्पण और श्रृंगार सभी कुछ की नीरज के आशिक़ मन ने इबादत की तरह साधा.

शर्मीली का एक गीत ‘आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन’ सुनिए, तो जान पड़ेगा कि कवि नीरज के लिखने का फॉर्म और उसकी रेंज कितनी अलग, बड़ी और उस दौर में बिल्कुल ताजगी भरी थी.

ओ री कली सजा तू डोली/
ओ री लहर पहना तू पायल/
ओ री नदी दिखा तू दरपन/
ओ री किरन ओढ़ा तू आंचल/
इक जोगन है बनी आज दुल्हन हो ओ/
आओ उड़ जाएं कहीं बन के पवन हो ओ/
आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन…

नीरज जैसा श्रृंगार रचने वाला दूसरा गीतकार मिलना मुश्किल है, जो सपनों के पार जाती हुई सजलता रचने में माहिर हो. हालांकि नीरज बस इतने भर नहीं है. वो इससे भी पार जाते हैं. दार्शनिक बनकर. एक बंजारे, सूफ़ी या कलन्दर की तरह कुछ ऐसा रचते हैं जो होश उड़ा दे. ‘ए भाई ज़रा देखके चलो’, ‘दिल आज शायर है, ग़म आज नगमा है,’ ‘कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे’, ‘सूनी-सूनी सांस के सितार पर’ और ‘काल का पहिया, घूमे भैया…’

भरपूर दार्शनिकता, लबालब छलकता प्रेम, भावुकता में बहते निराले बिम्ब, दर्द को रागिनी बना देने की उनकी कैफ़ियत ने उन्हें हिन्दी पट्टी के अन्य गीतकारों पं नरेंद्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, भरत व्यास, इंदीवर, राजेन्द्र कृष्ण और योगेश से बिल्कुल अलग उनकी अपनी बनाई लीक में अनूठे ढंग से स्थापित किया है.

आज, जब वो नहीं हैं तो बहुत सी बातें हैं, यादें हैं. उनके गीत सम्मोहित करने की हद तक परेशान करते हैं. मेरे पिता से कही उनकी बात जेहन में कौंधती है कि ‘मेरे गीत हिट होते गए और फिल्में फ्लॉप, इसलिए जल्दी ही मुझसे गीत लिखवाना लोगों ने बन्द कर दिया.’

मगर, फूलों के रंग से, दिल की कलम से पाती लिखने वाले इस भावुक मन के देशज कवि को कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा. उनकी कविताएं और गीत ऐसे ही दुखते मन को तसल्ली देकर भिगोते रहेंगे. शब्दों की नमी से अंदर-बाहर को गीला करते हुए.

मैं आज भी, आगे भी, ‘तेरे मेरे सपने’ के पूरे साउंडट्रैक में खोया हुआ नीरजजी को अदब से याद करता रहूँगा.

नमन, आदर और श्रद्धांजलि.