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सुधीर चौधरी: “समझौते से सत्य स्थापित हुआ और मैं निर्दोष साबित हुआ”

एक ट्वीट में ज़ी न्यूज़ के संपादक सुधीर चौधरी ने अपनी ईमानदारी के पक्ष में लगभग वही शब्द इस्तेमाल किया जो इस रिपोर्ट का शीर्षक है. यह मामला 2012 का है. जब उद्योगपति नवीन जिंदल के उद्योग समूह द्वारा, ज़ी समूह के सम्पादक- सुधीर चौधरी और समीर अहलूवालिया का स्टिंग किया गया था. जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड (जेएसपीएल) द्वारा जारी वीडियो फुटेज ने दिल्ली और देश के मीडिया जगत को हिला कर रख दिया था.

सितंबर, 2012 में, इसके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई गई. इसके बाद जेएसपीएल के मानव संसाधन विभाग के निदेशक ने आरोप लगाया कि ज़ी न्यूज़ के सम्पादक चौधरी और ज़ी बिजनेस के सम्पादक समीर अहलूवालिया ने उनकी कम्पनी से 100 करोड़ रुपये की वसूली करने की कोशिश की.

दिल्ली पुलिस क्राइम ब्रांच ने इस पर कार्रवाई की. चौधरी और अहलूवालिया दोनों को नवंबर 2012 में गिरफ्तार कर लिया गया. करीब दो महीने तिहाड़ जेल में रहने के बाद उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया गया था. 2013 में, दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने चौधरी, अहलूवालिया और ज़ी समूह के प्रमुख सुभाष चंद्रा को आरोपी बनाते हुए आरोपपत्र दाख़िल करने का आवेदन किया. हालांकि आरोपपत्र में  ख़ामियों को उजागर करते हुए मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने संज्ञान लेने से इनकार किया और पुलिस को इस मामले की और गहराई से जांच करने के लिए कहा.

इसने जेएसपीएल और ज़ी समूह के बीच अरोप प्रत्यारोप का अंतहीन दौर शुरू कर दिया. इसके साथ ही दोनों पक्षों ने एक दूसरे के खिलाफ क़ानूनी मामले भी दर्ज करवाना शुरू कर दिया. जांच एजेंसी, पुलिस, सरकारी अभियोजन पक्ष और इन सबके साथ अदालतों को भी इन मामलों से निपटने के लिए समय और ऊर्जा लगानी पड़ी.

मानहानि, उसके ऊपर मानहानि के मुक़दमे, जिंदल के कोयला आवंटन पर ज़ी न्यूज़ का कवरेज रोकने के लिए अंतरिम आवेदन- ये सब हुआ. महत्वपूर्ण बात ये है कि कथित उगाही के मामले में, क्राइम ब्रांच ने ज़ी के सम्पादकों पर हुए स्टिंग की प्रामाणिकता जांचने के लिए वीडियो टेप को केंद्रीय फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (सीएफएसएल) भी भेजा.

चौधरी, अहलूवलिया पर लगे अवैध उगाही के आरोपों के छः साल बाद, 13 जुलाई को तीन ट्वीट, ज़ी समूह के प्रमुख सुभाष चंद्रा, चौधरी और जिंदल, तीनों के एक-एक ट्वीट ने कहानी में एक नया मोड़ ला दिया. चंद्रा और कांग्रेस के पुराने सांसद, जिंदल ने यह घोषणा की कि उन्होंने एक दूसरे के ख़िलाफ़ किए गए सारे मुक़दमे वापस ले लिए हैं. जिंदल ने कहा कि ये क़ानूनी विवाद ‘ग़लतफ़हमी’ का नतीजा था.

क्या यह क़ानून का इस्तेमाल अपनी मन मर्ज़ी से करने का उदाहरण नहीं है?

उगाही के मामले की गहराई में जाने और इस मामले में ताजा स्थिति पर जेएसपीएल की प्रतिक्रिया पर जाने से पहले, ट्वीट की भाषा को देखते हैं-

राज्यसभा सांसद चंद्रा ने ट्वीट किया:

“मैं ख़ुश हूं की जेएसपीएल और नवीन जिंदल ने दिल्ली पुलिस से ज़ी और इसके सम्पादकों के ख़िलाफ़ कथित उगाही के मामले में दायर की गयी याचिका वापस ले ली है, इसी प्रकार ज़ी समूह भी जेएसपीएल और नवीन जिंदल के ख़िलाफ़ सभी मुक़दमों और शिकायतों को वापस लेने के लिए सहमत है. मैं नवीन जिंदल को भविष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ की कामना करता हूं.”

जिंदल ने, चंद्रा के ट्वीट के जवाब में कहा, “सभी मतभेद जो ग़लतफ़हमी के चलते हुए थे, अब सुलझा लिए गए हैं.”

हैरान करने वाली बात तो ये है कि चौधरी, जो जिंदल के कैमरे पर स्टिंग में लेनदेन की बात करते हुए पकड़े गए थे, उन्होंने दावा किया-” इस निर्णय से “सत्य मज़बूत” हुआ है और वे “निर्दोष” साबित हुए हैं.”

किन वजहों से एक-दूसरे के खिलाफ चल रही कानूनी लड़ाई को वापस लिया गया, इस पर प्रतिक्रिया लेने के लिए न्यूज़लॉन्ड्री ने दोनों पक्षों से बात करने की कोशिश की. जेएसपीएल ने इसका जवाब दिया, लेकिन हमें अभी भी ज़ी न्यूज़ की प्रतिक्रिया का इंतजार है. हमने दिल्ली के ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर आलोक कुमार को कई बार कॉल और मैसेज किया गया पर उन्होंने भी कोई जवाब नहीं दिया.

“ग़लतफ़हमी” से क्या आशय है, इस सवाल के जवाब में जेएसपीएल के संचार प्रमुख, गौरव वाही ने अपने आधिकारिक बयान में कहा, “दोनों ओर से आपसी संवादहीनता व ग़लतफ़हमी से आशय यह है कि ज़ी न्यूज़ की ओर से जारी किए गए एक कार्यक्रम और उसमें दिखाए गए समाचार और हमारी तरफ़ से रिकार्ड की गई बैठकों की रिकॉर्डिंग के संदर्भ को देखते हुए, जेएसपीएल और ज़ी दोनों ने यह निर्णय लिया कि हम एक दूसरे के ख़िलाफ़ आरोपों को और आगे नही बढ़ाएंगे और भविष्य में एक साथ मिलकर देश के लिए काम करेंगे.”

न्यूज़लॉन्ड्री को बताया गया कि दोनों पक्षों ने समझौते पर हस्ताक्षर 13 जुलाई, 2018 को किया.

यह भी जान लेना जरूरी है कि इन सभी मामलों में अभी तक एफआईआर वापस नहीं ली गई है. जेएसपीएल के अनुसार, उन्होंने पुलिस से निवेदन किया है कि हमारे समझौते को देखते हुए वे जांच को बंद कर दें.

सूत्रों के अनुसार, प्राथमिकी वापस लेने को लेकर विचार-विमर्श 2017 के अंत से ही शुरू हो गए थे. 13 जुलाई को औपचारिक रूप से इसका ऐलान किया गया. सूत्रों ने हमें यह भी बताया कि दोनों पक्ष पारस्परिक रूप से लंबे समय से कानूनी लड़ाई समाप्त करना चाह रहे थे.

सूत्रों ने हमें यह भी बताया कि औपचारिक तौर पर पुलिस को पत्र भेजने और मुक़दमें वापस लेने का कार्य इस सप्ताह के अंत तक शुरू हो जाएगा.

जबकि ज़ी और जिंदल बचे हुए मामलों को निपटने के लिए बहुत तेज़ी के साथ काम कर रहे हैं. ऐसे में हमें कुख्यात स्टिंग ऑपरेशन के बारे में भूलना नहीं चाहिए.

यूट्यूब पर उपलब्ध, चौधरी, अहलूवलिया और जिंदल समूह के प्रतिनिधियों के बीच की बात सुनिए जो शायद जल्दी ही वहां से हटा दी जाएगी. कैग ने 11 मई, 2012 को कोयले के ब्लॉक के आवंटन पर एक रिपोर्ट तैयार की, जो बाद में संसद में भी प्रस्तुत की गयी थी. ज़ी न्यूज और ज़ी बिज़नेस ने 7 से 13 सितंबर 2012 तक और 24 सितंबर से 26 सितंबर 2012 तक जेएसपीएल को कोयले के ब्लॉक के आवंटन के संबंध में लगातार समाचार कार्यक्रम चलाए.

2 अक्टूबर, 2012 को दर्ज की गयी शिकायत में जेएसपीएल के प्रतिनिधि ने कहा की अहलूवलिया (पहले आरोपपत्र में आरोपी) और चौधरी (दूसरे आरोपपत्र में आरोपी) ने जेएसपीएल के अधिकारियों से बातचीत करने की पहल की और 10 सितंबर से 19 सितंबर के बीच हुई चार मीटिंगों में “प्रस्ताव रखा कि वे जिंदल समूह को निशाना बनाना बंद कर देंगे अगर वे इस बात पर सहमत हो जाएं कि वे प्रतिवर्ष 25 करोड़ की दर से, ज़ी मीडिया के साथ चार साल के एक सौ करोड़ के विज्ञापन अनुबंध पर हस्ताक्षर करेंगे.”

ये भी आरोप लगाए गए कि दोनों पत्रकारों ने प्रतिवर्ष 25 करोड़ की दर से चार साल तक चलने वाले अनुबंध जिसमें 15 करोड़ रुपए ज़ी मीडिया लिमिटेड और 10 करोड़ रुपए डिलिजेंट मीडिया कम्पनी लिमिटेड जो ज़ी समूह के अधिकार क्षेत्र वाली कंपनी है, को आवंटित करने के काग़ज़ भी तैयार कर लिए थे.

पहली मीटिंग दिल्ली के ज़ीके-2 इलाक़े में स्थित कोस्टा कॉफ़ी शॉप में हुई. बाद की तीनों बैठकें [13 सितंबर, 9 सितंबर, 17 सितंबर और 19 सितंबर, साल 2012] को पोलो लाउंज, होटेल हयात रीजेन्सी, दिल्ली में हुई. चौधरी और अहलूवलिया दोनों ही इस मीटिंग का हिस्सा थे. ये सभी मीटिंग एक छिपे हुए कैमरे से रिकार्ड की गयी थी.

क्राइम ब्रांच ने प्राथमिकी [सं: 240/12] दर्ज की और जेएसपीएल ने सारे ऑडियो और वीडियो जो जेएसपीएल के अधिकारियों द्वारा रिकॉर्ड किए गए थे, पुलिस को सौंप दिए.

मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट कोर्ट में दायर आरोप पत्र के अनुसार, जेएसपीएल द्वारा मेमोरी कार्ड के साथ प्रदान की गई सभी तीन रिकॉर्डिंग सीएफएसएल को भेज़ी गई थी और “यह संबंधित विशेषज्ञ द्वारा निर्धारित किया गया है कि रिकॉर्डिंग में कोई छेड़छाड़, संपादन या ख़राबी नहीं थी.”

क्राइम ब्रांच ने चौधरी और अहलूवलिया से उनकी आवाज़ का नमूना मांगा लेकिन दोनों रिकॉर्डिंग के ट्रांसक्रिप्शन में लिखे गए शब्दों को बोलने पर राज़ी नहीं हुए. वाइस सैम्पल नहीं जमा करने का मामला एक अन्य सत्र न्यायालय में लंबित है. पुलिस ने कॉल रिकॉर्ड और ईमेल के आधार पर इस मामले में दोनों के साथ ही सुभाष चंद्रा को भी नामजद किया.

पुलिस के सेवानिवृत्त डिप्टी कमिश्नर एसबीएस त्यागी, जो उस समय डीसीपी क्राइम थे, ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि “ज़ी संपादकों और जेएसपीएल अधिकारियों के बीच बैठकों का ठोस सबूत है जो की निर्विवाद हैं”. उन्होंने आगे कहा कि “इस बीच में क्या हुआ इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है.”

स्टिंग वीडियो में हुई बातचीत से यह पता चलता है कि जिंदल के प्रतिनिधि ज़ी समाचार चैनलों द्वारा चलाए गए कार्यक्रमों के बारे में बात कर रहे हैं जिसमें जिंदल समूह की नकारात्मक छवि प्रस्तुत की गई है. वे इसके समाधान के बारे में बात कर रहे हैं.

त्यागी ने बताया कि शुरुआती मीटिंग के पश्चात जिंदल के विरुद्ध ज़ी चैनल पर चलाई जा रही सीरीज़ को रोक दिया गया था. “हमारे पास दो मीटिंगों की फ़ुटेज है” उन्होंने बताया.

यूट्यूब पर उपलब्ध वीडियो देखने के बाद यह पाठकों के फैसले पर निर्भर करता है कि वे इसे किस नज़र से देखते हैं.

अवैध उगाही के मामले में आरोपी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई की प्रक्रिया और समझौते के बारे में त्यागी बताते हैं, “सबूत भारी पड़ रहे थे. कई लोगों से वसूली की जा रही थी, इसे साबित करने के सबूत थे. लेकिन पूरा मामला नवीन जिंदल की शिकायत पर निर्भर था. यदि आप शिकायत वापस ले लेते हैं, तो मामला आगे नहीं बढ़ेगा.”

उन्होंने कहा कि इस तरह के मामलों से निपटने के दौरान पुलिस को कई चीज़ों का ध्यान रखना पड़ता है. उन्होंने कहा कि इस तरह से एफआईआर वापस लेने का निर्णय कानूनी व्यवस्था में बाधा उत्पन्न करता है.

इस मामले की जांच से जुड़े रहे एक अन्य पुलिसकर्मी ने याद करते हुए बताया, “चंद्रा के मौजूदा राजनीतिक झुकाव को भूल जाइए, उस वक्त भी चंद्रा यूपीए सरकार के पांच-छह मंत्रियों का रौब दिखाकर दबाव डालते थे.”

हालांकि, जेएसपीएल समूह का इस पर एक अलग नज़रिया है. जेएसपीएल ने न्यूज़लॉन्ड्री से अपने आधिकारिक बातचीत में बताया, “लंबित आपराधिक जांच को अदालत से बाहर सुलझाने में कुछ भी गलत नहीं है और कानून ऐसे विवादों के निपटारे की अनुमति भी देता है.”

यह पूछने पर कि क्या चौधरी, अहलूवालिया और चंद्रा के खिलाफ लगाए गए आरोप झूठे, बनावटी थे, जेएसपीएल के प्रतिनिधि ने कहा, “जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, दोनों पक्षों के बीच ग़लतफ़हमी और संवादहीनता के कारण ऐसा हुआ. अब इसका समाधान हो चुका है, इसलिए इस मामले की दोबरा समीक्षा करना व्यर्थ है.”

दोनों समूह औपचारिक रूप से इसी हफ्ते में सभी मामलों में वापसी प्रक्रिया शुरू करेंगे. ज़ी और जिंदल समूह के सूत्रों के अनुसार दोनों पक्षों ने इस दौरान एक दूसरे के खिलाफ करीब 38 मामले दायर कर दिए थे. इसमें दो एफआईआर शामिल हैं.

अवैध उगाही का मामला जो जेएसपीएल द्वारा ज़ी और उसके कर्मचारियों के विरुद्ध दायर की गई थी. दोनों की जांच चल रही है. दोनों दलों ने कुछ मामलों के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट का भी रूख किया था.

बॉम्बे उच्च न्यायालय में दो मानहानि के मुक़दमे दायर किए गए थे, और शेष दिल्ली अदालतों में लंबित हैं. इसमें चौधरी, चंद्रा और अहलूवालिया द्वारा जिंदल समूह के खिलाफ दायर तीन मानहानि के मुकदमें भी शामिल हैं. जिंदल समूह ने अपने खिलाफ सामग्री के प्रसारण को रोकने के लिए भी अदालत में आवेदन किया था.

जिंदल द्वारा दायर किए गए एक मामले में ज़ी से लिखित, टेलीकास्टिंग या उसके ख़िलाफ़ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी समाचार को प्रसारित नहीं करने के लिए दायर किया गया था.

दिल्ली हाईकोर्ट ने मार्च 2015 में अपने आदेश में कहा था, “यह एक और दुर्भाग्यपूर्ण मामला है कि दो जाने माने कॉर्पोरेट व्यक्तित्व एक-दूसरे से लड़ रहे हैं, जिसमें अदालत का कीमती समय भी बर्बाद हो रहा है.”

कानूनी विशेषज्ञों को लगता है कि जिंदल और ज़ी की कानूनी लड़ाई एक विलासिता भरा मुकदमा हैं. वकील सुशील सलवान ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “यह इस मामले का सटीक उदाहरण है जिसे हम लक्जरी केस कहते हैं. जिसका मतलब है कि दोनों पक्ष अपने अहंकार के लिए ऐसे मामलों में लड़ रहे हैं.” उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में न्यायालय का समय व्यर्थ होता है और इससे निपटने के लिए अदालतों को “मामले की गम्भीरता को देखना चाहिए और सावधानी बरतनी चाहिए.”