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चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी: एक्टिवा स्कूटर पर सवार लड़कियों ने बदली इबारत
पश्चिमी उत्तर प्रदेश जिसे जाटलैंड भी कहते हैं वहां अक्सर लड़कियों के दमन की खबरें सुनने में आ जाती हैं. कभी खाप पंचायत का कोई फरमान जिसमें लडकियों को जीन्स पहनने और मोबाइल रखने पर पाबन्दी लगा दी जाती हैं. इसी बीच ऑनर किलिंग यानी सामाजिक प्रतिष्ठा और लोकलाज के दबाव में लड़कियों की हत्या की ख़बरें सुर्खियां बन जाती हैं. मीडिया में इसे लेकर बेहद ब्लैक एंड व्हाइट नज़रिए से एक बहस शुरू हो जाती हैं जिसमें एक नकारात्मक तस्वीर बनती हैं. एक ऐसा समाज जहां लड़कियों के ऊपर पाबंदियों का बोझ दिनोंदिन बढ़ता जाता है. नतीजे में उनका जीवन दुश्वार है. उनकी पढ़ाई-लिखाई, तरक्की पर दिल्ली में बैठ कर लोग अंतहीन बहसे करते रहते हैं.
लेकिन अगर हम दिल्ली से सिर्फ सौ किलोमीटर दूर निकल जाएं तो एक अलहदा तस्वीर सामने आती हैं. यह हकीक़त है जो दिल्ली में बैठकर बनाई गई काल्पनिक धारणाओं से परे है. इस इलाके में बदलाव की गति बहुत तेज है. बहुत कुछ बदल चुका है, कुछ-कुछ बदल रहा है. सामाजिक सोच, लडकियों का आत्मविश्वास, उनकी हिम्मत और जीवन में शादी करने के अलावा कुछ और भी करने-पाने की सोच.
हम यहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लड़कियों की पढ़ाई के मुद्दे पर तफ्सील से एक नज़र डालते हैं. जाटलैंड की लड़कियां पढ़ रही हैं और इतना ज्यादा की लड़कों को बहुत पीछे छोड़ दिया हैं. हकीक़त यह है कि यहां उच्च शिक्षा हासिल करने की दौड़ में लड़कियां यूनिवर्सिटी में लड़कों से कहीं ज्यादा संख्या में प्रवेश ले रही हैं.
जाटलैंड की शैक्षिक तस्वीर
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ और सहारनपुर मंडल में कुल नौ जिले आते हैं. मेरठ में हापुड़, मेरठ, बागपत, बुलंदशहर, गाज़ियाबाद और गौतम बुद्ध नगर. इसी तरह सहारनपुर मंडल में शामली, मुज़फ्फरनगर और सहारनपुर जिला. इन नौ जिलो में छात्रों के लिए सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ हैं. इस समय वहां शैक्षिक सत्र 2018-19 के लिए प्रवेश चल रहा हैं. अगर 13 जुलाई तक के आंकड़ो पर नज़र डालें तो लड़कियां वहां लडकों से मीलों आगे हैं. ज़्यादातर कोर्सेज में उनकी संख्या लडकों से आगे हैं और कहीं-कहीं तो वो दो तिहाई हिस्से पर हैं.
विश्वविद्यालय के आंकड़ो के अनुसार मेन कैंपस के अलावे नौ जिलो के कॉलेज जो इस विश्वविद्यालय से संबध हैं वहां स्नातक और स्नातकोत्तर प्रथम वर्ष के कोर्स में लड़कियों के हौसले के आगे लड़के हार गए हैं. सभी कोर्स में लड़कियां आगे हैं और कहीं-कहीं तो दो तिहाई के करीब पहुंच गई हैं. यूनिवर्सिटी के प्रवेश पोर्टल के अनुसार बीए, बीकॉम, बीएससी बायो, हर स्ट्रीम में लड़कियों का प्रभुत्व दिख रहा है.
अगर हम मेरठ और सहारनपुर मंडल के नौ जिलो में शैक्षिक सत्र में प्रवेश की स्थिति दखें तो वैसे तो अभी भी 1.22 लाख सीटें खाली हैं लेकिन ये सेल्फ फाइनेंस के अंतर्गत हैं. वित्तीय सहायता प्राप्त और सरकारी कॉलेज की सीटें लगभग 13 जुलाई को फुल हो गयी हैं.
इन नौ जिलो में अंडरग्रेजुएट की 1,32,894 सीटें हैं जिन पर 59,580 प्रवेश हो चुके हैं जिनमें 35,849 छात्राएं और 23,730 छात्र हैं. छात्राएं लगभग 67% प्रवेश ले चुकी हैं. ये तब है जब पहले राउंड की प्रवेश प्रक्रिया खत्म हो गयी हैं.
बीएससी बायो में 12,750 सीटें हैं जिसमे 5,609 प्रवेश हुए हैं जिसमें लड़कियां 4,002 हैं जबकि लड़के केवल 1,606 हैं यानी 71.34 % लड़कियां हैं. यानि दो तिहाई के बराबर.
इसी तरह बीए में कुल 74,461 सीट हैं जिसपर 33,956 प्रवेश हुए हैं जिसमें 22,289 छात्राएं और 11,667 छात्र हैं यानि कि 66% लड़कियां हैं.
बीकॉम में 28,460 सीटें हैं जिन पर 11,489 प्रवेश हुए हैं जिसमें 6,346 छात्राएं और 5,123 छात्र हैं. बीकॉम वैसे लड़को की फील्ड मानी जाती हैं.
दूसरी तरफ पोस्टग्रेजुएट कोर्स (एम्ए, एम् एस सी, एम् कॉम ) में भी कमोबेश वही स्थितियां बदस्तूर कायम हैं. यूनिवर्सिटी में पोस्टग्रेजुएट की 21,445 सीट हैं जिसमें 5,701 प्रवेश हो चुके हैं. इसमें 4,350 लड़कियां हैं यानी की 76.30 % . सबसे चौकाने वाली बात ये है कि अंडरग्रेजुएट में लड़कियां लगभग 67 % हैं यानी कि उच्च शिक्षा में लडकियां कहीं तेजी से आगे निकल रही हैं.
इन आंकड़ों के मद्देनज़र एक स्वाभाविक सा सवाल मन में पैदा होता है कि महिला सुरक्षा को लेकर बदनाम इस इलाके में लड़कियों की शिक्षा की अलख कैसे जगी, इसके क्या कारण हैं? इस सवाल का जवाब कई परतों में छिपा है.
बीते लंबे समय से लड़कों की तुलना में लड़कियों के नंबर स्कूलों और कॉलेजों में अच्छे रहे हैं. पासिंग प्रतिशत भी लड़कियों का ज्यादा हैं. लगभग 13 कॉलेज लड़कियों के लिए गर्ल्स कॉलेज के रूप में हैं. वहीं कोएड कॉलेज में लड़कियों को 20% का हॉरिजॉन्टल आरक्षण हैं. कुल 66 कॉलेज में 50 कॉलेज सरकार द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त हैं जबकि 16 सरकारी कॉलेज हैं. इसके अलावा लगभग 1,000 प्राइवेट कॉलेज यूनिवर्सिटी से एफिलिएटेड हैं. इन प्राइवेट कॉलेज में देहात स्तर पर कॉलेज बने हैं और इनमे सेल्फ फाइनेंस कोर्सेज चलते हैं, जिसकी वजह से लड़कियां वहां बड़ी संख्या में दाखिला ले रही हैं. गांव-देहातों में कॉलेज पहुंचने से भी लड़कियों की संख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज हो रही है.
लेकिन सबसे बड़ा कारण हैं लड़कियों में पढ़ाई के प्रति आई जागरुकता. ये आंकड़े एक बड़े बदलाव का संकेत हैं. राष्ट्रीय फॅमिली हेल्थ सर्वे-4 के अनुसार उत्तर प्रदेश की स्थिति महिला शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत संतोषजनक नहीं है. ग्रामीण क्षेत्र की केवल 56.2%महिलाएं (15-49 वर्ष) साक्षर हैं और इनमे केवल 27.44% महिलाएं ऐसी हैं जो दस साल स्कूल गयी हैं.
अब अगर यही आंकड़े हम उदाहरण के तौर पर जनसंख्या विभाग की 2011 की जनगणना के अनुसार मेरठ की साक्षरता दर से करें तो ग्रामीण महिलाओं की साक्षरता 59.4% हैं जबकि शहरी क्षेत्र में ये साक्षरता दर 68.2% हैं. जबकि मेरठ की कुल साक्षरता दर 72.8% हैं. जबकि महिलाओं की कुल साक्षरता दर 64% है. इसके विपरीत पूरे प्रदेश में महिलाओ की साक्षरता दर 61% हैं. हैं. यानी ये सभी आंकड़े प्रदेश के आंकड़े से ज्यादा हैं.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में विमेंस स्टडीज विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ तरुशिखा सर्वेश जिन्होंने पश्चिम उत्तर प्रदेश के सामाजिक ढांचे, खासकर खाप पंचायतों की संरचना और कार्यप्रणाली पर काफी शोध किया है, बताती हैं कि पश्चिम क्षेत्र में ये जागरूकता हमेशा से रही हैं. वो कहती है, “भारतीय किसान यूनियन के संस्थापक चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत खुद कहते थे जाटों के लड़के दुकान लगाने लायक नहीं रह जायेंगे और लड़कियां आगे बढ़ेंगी. खाप के चौधरी भी वहां लड़कियों की शिक्षा को प्रमोट करते हैं. लड़कियां बाकायदा रैली निकालती हैं शिक्षा के प्रति जागरूकता के लिए. अब ये धारणा आम हो रही हैं कि लड़के न तो ठीक से पढ़ रहे हैं न ही खेती कर पा रहे हैं. वहां अब लोग गर्व से बताते हैं कि हमारी लड़कियां डॉक्टर, इंजिनियर बन रही हैं और आगे बढ़ रही हैं.”
कुलदीप उज्ज्वल मेरठ यूनिवर्सिटी में 2005 में छात्र संघ के अध्यक्ष रहे हैं. कुलदीप के अनुसार अब लडकियों में बहुत बड़ा अंतर आ गया हैं. उनके अन्दर हिम्मत और सेल्फ कॉन्फिडेंस है. पहले सिर्फ शादी ठीक ठाक हो जाये इस वजह से लोग उन्हें पढ़ाते थे. अब वो खुद पढ़ना चाहती हैं, नौकरी करना चाहती हैं. कुलदीप आगे बताते हैं कि अब पश्चिम की लड़कियां पूर्वांचल के सुदूर जिलों में प्राइमरी शिक्षक हैं. वो वहां रहती हैं, बिना डरे और पढ़ाती हैं. हमारे ज़माने में दस साल पहले ये संभव ही नहीं था.
लडकियों में पढ़ाई के प्रति रूझान की वजह से उन्होंने लडकों के कई किले ध्वस्त कर दिए हैं. जैसे कुलदीप बताते हैं पहले कॉमर्स ज्यादातर लड़के ही पढ़ते थे और थोड़ी सी लड़कियां होती थीं. आज लड़कियों की संख्या लडकों से ज्यादा हैं. इस बदलाव के पीछे एक कारण और निकल कर आया हैं वो हैं एक्टिवा स्कूटर. “अब लड़कियों को आने-जाने की दिक्कत कम हो गयी हैं. एक्टिवा उठाई और चल दी, ये एक बहुत बड़ा फैक्टर हैं,” कुलदीप ने बताया.
बागपत के बड़ौत में दिगंबर जैन डिग्री कॉलेज में डॉ अंशु इंग्लिश की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. उन्होंने इस मुद्दे पर अपने देहात क्षेत्र में एक सर्वेक्षण करके, कारण जानने की कोशिश की. डॉ अंशु बताती हैं, “अब सबसे बड़ी वजह हैं हर अभिभावक इस खोल से बाहर निकल चुका है कि उसकी लड़की सिर्फ शादी के लिए पढ़े. अब हर लड़की खुद सेल्फ डिपेंड होना चाहती हैं. नौकरी की सबको चाहत हैं. मैंने जब लड़कियों से बात की तो उन्होंने साफ-साफ कहा कि वो अब ज़िन्दगी भर अपने पति के नाम से जानी जाये, ये पसंद नहीं, अपनी पहचान बनानी है, खुद नौकरी करनी हैं, पैसे कमाने हैं.”
डॉ अंशु भी उसी क्षेत्र में पढ़ी हैं. वो बताती हैं कि पहले डर रहता था, छेड़खानी का, बदतमीजी का. अब वो इतनी जागरूक हैं कि खुद डायल 100 पर फोन कर देती हैं. अब वो कोई बात नहीं छुपाती बल्कि डिस्कस करती हैं. पहले वो बात छुपा ले जाती थी, अब ऐसा नहीं हैं.
इस सामाजिक बदलाव की वाहक कुछ खाप पंचायतें भी हैं. जिन पंचायतो को सिर्फ लड़कियों पर पाबन्दी लगाने के लिए जाना जाता है वो आज लड़कियों की शिक्षा के लिए मुहिम चला रही हैं. महेंद्र सिंह टिकैत की बनाई भारतीय किसान यूनियन में फिलहाल उनके बेटे राकेश टिकैत प्रवक्ता हैं और बालियान खाप से सम्बन्ध रखते हैं. राकेश बताते हैं कि खाप पंचायतों ने हमेशा लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा दिया. बाबा टिकैत ने 1990 में ही गांव में लड़कियों के लिए स्कूल खोल दिया था. आज भी हम पंचायत में लड़कियों की शिक्षा पर जोर देते हैं. अब लोग शहर में रहते हैं, सहूलियतें बढ़ी हैं तो लड़कियां भी आगे पढ़ने लगी हैं.
नि:संदेह, ये एक अच्छा कदम है.
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