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मीडिया-मुल्ला गठजोड़, दारुल कज़ा और इमारत-ए-शरिया का प्रगतिशील इतिहास

पूरी शिद्दत से ध्रुवीकरण बढ़ाने और मौजूदा सरकार को साफ़-सुथरा दिखाने के लिए, भ्रष्ट, स्वार्थी, (और साथ-साथ बौद्धिक रूप से कमज़ोर व आलसी) न्यूज़ एंकर, अमूमन अपने ही जैसे विचार और स्वार्थ वाले मौलानाओं के साथ मिलकर, देश को शरिया ‘अदालतों’ के बारे में गुमराह करना शुरू कर चुके हैं.

शरिया अदालतें न कभी सत्ता या न्यायिक प्रणाली के समानांतर थे, और न ही हैं. वे ‘वैकल्पिक विवाद समाधान और सलाह केंद्र’ ज़्यादा लगते हैं. हालांकि मूर्ख मौलाना इसे इस तरह से बुलाना पसंद नहीं करते हैं.

दूसरा, 1920 के दशक से ये दार-उल-कज़ा बिहार में मौजूद हैं. पटना की इमारत-ए-शरिया (1921 में स्थापित) कुछ सीमाओं और खामियों के बावजूद, इस तरह के काम, दार-उल-कज़ा के माध्यम से बिहार, झारखंड, उड़ीसा के कुछ गांवों और कस्बों में कर रही है.

इसके विपरीत मीडिया का एक हिस्सा ऐसा माहौल तैयार कर रही है कि ये संगठन विभाजनकारी हैं, इन नेताओं और संस्थाओं के पास सांप्रदायिक क्षेत्रीय अलगाववाद का विरोध करने का निर्विवाद प्रमाण पत्र हैं. ऐतिहासिक तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए, मैं अपनी पुस्तक के कुछ अंश पेश कर रहा हूं, (मुस्लिम पॉलिटिक्स इन बिहार: चेंजिंग कॉनटर्स रूटलेज, 2014/2018 पुनर्मुद्रित; पृष्ठ 71-79). लेख लंबा होने के लिए मुझे क्षमा करें:

मौलाना आजाद की भूमिका (1888-1958)

कांग्रेस समर्थक मुस्लिम संगठनों का मुताहिदा कौमियत का विचार, मुस्लिम लीग से उनके रास्ते अलग होने के केंद्र में था. अखिल भारतीय स्तर पर, जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद (1919 में स्थापित), जो कि देवबंद की परंपरा से जुड़ा उलेमाओं का एक संगठन है, इस विचार का जनक था. इसकी प्रेरणा बिहार की एक संस्था अंजुमन-ए-उलेमा या मौलाना अबुल मोहसिन मोहम्मद सज्जाद (1880-1940) द्वारा स्थापित जमीयत-उल-उलेमा-ए-बिहार (1917 में स्थापित) थी. राजनीतिक रूप से उलेमा को संगठित करने का विचार 1908 से मौलाना सज्जाद के दिमाग में विकसित हो रहा था.

कांग्रेस समर्थक मुस्लिम संगठनों ने आगे चलकर 1921 में इमारत-ए-शरिया की स्थापना की और 12 सितम्बर, 1936 को मुस्लिम स्वतंत्रता पार्टी (एमआईपी) की शुरुआत भी की. इमारत-ए-शरिया की स्थापना का श्रेय मौलाना आजाद को जाता है, जिनकी, “स्थितियों की योजना, भारत जैसे देश में जहां मुसलमान अल्पसंख्यक थे (अकलियत) और उनके पास राजनीतिक शक्ति नहीं थी, इमारत-ए-शरिया यहां पर एक राजनीतिक संस्था और राज्य शक्ति की तरह कार्य करेगी… उन्होंने इसे एक सामूहिक समझौते के माध्यम से देश की सरकार के साथ संबंध बनाए रखने की कल्पना की.”

मौलाना अबुल कलाम आजाद ने बिहार के मुसलमानों के बीच काफी विश्वसनीयता और लोकप्रियता हासिल की. यह उन्हीं की योजना थी की एक संस्था अमरत (या इमरत), देवबंद के मौलाना महमूद हसन के साथ अमीर-ए-हिंद या इमाम-ए-हिंद के रूप में एक संस्था स्थापित की जाए.

आजाद की योजना में, इमरत को ‘राजनीतिक रूप से सक्षम, शुद्ध और सरल’ होना था न कि केवल न्यायिक कार्यों का निर्वहन करना जो की काज़ियों द्वारा भी किया जा सकता था. आजाद ने जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद को बताया (जेयूएच ने 1919 में स्थापित) कि एक वर्ग के रूप में उलेमा को इमाम/अमीर के कार्यों का प्रयोग करना चाहिए.

जेयूएच (दिसंबर 1921) के बदायूं सत्र में, एक उप-समिति ने प्रस्ताव दिया कि तुर्की के खलीफा की आज़ादी तक भारत उपमहाद्वीप में, अमीर-ए-हिंद, जेयूएच की आम बैठक में चुने जाएंगे. आज़ादी पाने के बाद, तुर्क खलीफा जेयूएच के परामर्श से अमीर की नियुक्ति या खारिज करेगा.

यह, यह भी निर्दिष्ट करता है कि अमीर को उस समय की राजनीति के बारे में पर्याप्त रूप से जागरूक होने के अलावा तफसीर, फिकह, हदीस का विद्वान होना चाहिए. प्रथम विश्व युद्ध के बाद के परिदृश्य में तुर्क खलीफा के उन्मूलन को देखा गया, और इस योजना को पूरा नहीं किया गया.

इस प्रकार, रांची में अपने तीन वर्षों के प्रशिक्षण के दौरान, आजाद ने इस योजना को प्रांतीय स्तर से शुरू करने के बारे में सोचा. आजाद के ‘युवा मित्र और कामरेड’ 93 वर्षीय मौलाना अबुल मोहसिन मोहम्मद सज्जाद (1880-1940) ने उनसे मुलाकात की और इसे लागू करने का प्रयास करना शुरू कर दिया यह. सज्जाद ने उलेमा और मशाइख (सूफी मंदिरों के संरक्षकों के सहयोगी) के पास आना-जाना शुरू किया, और 1920 में समुदाय के शरियत से संबंधित सामूहिक समस्याओं को संस्थागत तरीके से संबोधित करने के लिए इमरत संस्था स्थापित करने के लिए व्यापक रूप से यात्रा की, ताकि अल्पसंख्यकों का धार्मिक-सांस्कृतिक विषय एक ऐसी जगह बना रहे जहां राज्य हस्तक्षेप नहीं करेगा.

इसी के साथ, मोंगहिर में एक लोकप्रिय सूफी दरगाह खानकाह-ए-रहमानिया और फुलवारी शरीफ (पटना) में खानकाह-ए-मुजीबिया ने अपना समर्थन बढ़ा दिया. जेयूएच की बिहार शाखा मई 1921 में दरभंगा में मिली, जहां यह निर्णय लिया गया कि उलेमा और माशाइख, अमीर-ए-शरियत का चुनाव करने के लिए इकट्ठा होंगे. जून 1921 में, बिहार जेयूएच ने आज़ाद की उपस्थिति में, खनकाह-ए-मुजीबिया के, शाह बदरूद्दीन (1852-1924), सज्जाद नाशिन (दरगाह के मुख्य संरक्षक) को प्रांतीय अमीर-शरियत बनने के लिए व बिहार और उड़ीसा के इमरत-ए-शरिया का प्रमुख बनने के लिए राजी किया.

मौलाना सज्जाद को उनके सहयोगी (नायब) के रूप में कार्य करना था. इस प्रकार इमारत-ए-शरियत अस्तित्व में आया, और आज तक चलता आ रहा है. आजाद के इस ‘सपने’ में कोई अन्य प्रांत नहीं हो सकता है. अमीर और नायब का नौ उलेमा का समूह था. नवंबर 1921 में अपने वार्षिक सत्र में, जेयूएच ने इमरत-ए-शरिया को एक संस्थान के रूप में मंजूरी दे दी.

उसर (10 प्रतिशत) से, और जकात (दान के लिए कुल वार्षिक बचत का 2.5 प्रतिशत देना फ़र्ज़ है) के द्वारा आए, बैत-उल-माल (सार्वजनिक खजाना, जो कि लोगों का योगदान है) से इसके वित्तीय मामलों का ध्यान रखा जाने लगा. ये पैसे गांव और जिला स्तर के संगठन के माध्यम से उठाए गए थे.

मौलाना सज्ज़ाद की भूमिका (1880-1940)

उन्होंने स्कूलों की स्थापना की- उदाहरण के लिए, चौटावा (बागहा, चंपारण) गांव में. उनकी शैक्षिक और अन्य सामाजिक सेवाओं के कारण उन्हें बिहार के ग्रामीण इलाकों में आम लोगों का भी समर्थन मिला. खिलाफत और असहयोग आंदोलनों (1922-22), और सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए, 1936 में मुस्लिम स्वतंत्रता पार्टी (एमआईपी) के गठन के साथ उनकी राजनीतिक प्रमुखता से केंद्र में आई. उनकी चिंताए कृषि थी न कि एक मजबूत अल्पसंख्यक राजनीतिक संगठन बनाना.आखिर में उन्होंने अप्रैल-जुलाई 1937 के दौरान बिहार प्रशासन चलाने के लिए मंत्रालय का गठन किया गया जिसमें मोहम्मद यूनुस (1884-1952) प्रमुख थे.

20 फरवरी, 1940 को, उन्होंने नकीब में लिखा, ‘फ़िरका वाराना मामलात का फैसला किन उसूलों पे होना चहिये.’ उन्होंने महसूस किया कि, चूंकि देश में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोग शामिल हैं, इसलिए धार्मिक स्थलों की सीमाओं के बारे में निर्देश होना चाहिए.

…मौलाना सज्जाद ने मुस्लिम लीग से पूरी आजादी के प्रस्ताव को अपनाने के लिए कहा (अजादी-ए-कामिल का नासाबुल ऐन), और कांग्रेस से हाथ मिलाने की सलाह दी. सज्जाद का तर्क था कि लीग के पास बिहार और यूपी के मुस्लिम अल्पसंख्यकों की समस्याओं का कोई जवाब नहीं था, और इसलिए इन दोनों प्रांतों के मुसलमानों के लिए ‘पाकिस्तान’ आंदोलन में अपना समर्थन बढ़ाने के लिए कोई तर्क नहीं था.

उन्होंने नकीब (14 अप्रैल, 1940) में एक लम्बा लेख लिखा जिसका शीर्षक था ‘मुस्लिम भारत और हिंदू भारत की प्रमुख योजना पर एक अहम तब्सेरा’ (मुस्लिम भारत और हिंदू भारत की योजनाओं पर एक बहस), इसमें उन्होंने लिखा, “उनके देश में विभिन्न धार्मिक मान्यताओं के लोग रहते हैं और ये भिन्नतायें अपने चरम पे पहुंच गई हैं जो बहुत दर्दनाक है, उदाहरण के लिए मूर्तिपूजा का अपनाया जाना एकेश्वरवादियों के लिए अपमानजनक है, गोमांस खाना गाय की पूजा करने वालो के लिए दर्दनाक है, और जब स्थिति इस तरह है, तो हमारे नेताओं को धार्मिक स्वतंत्रता के लिए ऐसे तरीकों का पता लगाना चाहिए जिससे कोई भी सम्प्रदाय किसी भी प्रकार का भेदभाव महसूस ना करे. फिर उन्होंने सुझाव दिया कि सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किए जाने की बजाय धर्म को एक निजी मामला बनाया जाना चाहिए, ताकि उसका अभ्यास उत्तेजक या भड़काऊ न हो.”

[लेखक की पुस्तक के अंश: मुस्लिम पॉलिटिक्स इन बिहार: चेंजिंग कॉनटर्स रूटलेज, 2014/2018 पुनर्मुद्रित; पृष्ठ 71-79]