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जो अंबानी के दिमाग में जन्मा वही प्रतिष्ठित हो गया

“अम्बानी, बिड़ला और पाई: भारत के तीन प्रतिष्ठित शिक्षाविद.” आज सुबह सुबह एक मित्र ने लिख भेजा. भारत नाम के महान देश में जहां भ्रूण में ही ज्ञान दान करने की परंपरा है जिससे अभिमन्यु जैसे वीर पैदा होते हैं, यह कोई आश्चर्य की बात न होनी चाहिए कि अब एक अजन्मे विश्वविद्यालय को सरकार पहले ही प्रतिष्ठित की पदवी प्रदान कर रही है. लेकिन हम तो प्रतिष्ठा का स्रोत हमेशा से माता पिता और जाति को मानते रहे हैं. फिर इसे लेकर क्या रोना कि जो संस्था अभी पैदा ही न हुई हो, उसे आप प्रतिष्ठित क्योंकर कहें! आखिर जिसके जनक मुकेश अंबानी जैसे पूर्व प्रतिष्ठित हों, वह पैदा होने के बाद कुछ करके प्रतिष्ठित हुई तो उसमें और बाकियों में क्या फ़र्क रह गया, और उसके जनक की ज़िंदगी भर की कमाई का क्या बना?

अगर हम मज़ाक छोड़ दें तो पहली बार हम सबको कनाडा से की गई मानव संसाधन मंत्री की ट्विटर घोषणा से पता चला कि जिओ इंस्टिट्यूट जैसी कोई संस्था है या होनेवाली है! मंत्री महोदय ने इस अनागत शिशु को जन्म के पहले अपनी बनाई एक समिति एक द्वारा श्रेष्ठ या प्रतिष्ठित घोषित करने पर बधाई दे डाली. डिजिटल इंडिया के नागरिकों ने गूगल में इसकी खोज शुरू की तो सिफ़र हाथ लगा. मंदबुद्धि लोगों ने पूछा कि अभी जो है ही नहीं, वह भारत की संस्थाओं में प्रतिष्ठित कैसे हुई!

समिति के अध्यक्ष गोपालस्वामी महोदय ने कहा कि आप समझ नहीं पा रहे. अभी तो हम उसे सिर्फ प्रतिष्ठित होने के इरादे का प्रमाणपत्र देंगे. वह तो जब तीन साल में वह अपने वायदे पूरी कर लेगी तब हम प्रतिष्ठा के इरादे को वास्तविक प्रतिष्ठा में बदल देंगे.

तो यह होनहार की संभावना की पहचान है. आपको इस पारखी नज़र की दाद देनी ही पड़ेगी जिसे पालने में पूत के पांव देखने की ज़रूरत भी नहीं.

सरकार ने बताया है कि भारत के सैकड़ों उच्च शिक्षा संस्थानों में से आखिर उसने छह को पहचान लिया है जो या तो प्रतिष्ठित हैं या प्रतिष्ठित होने की काबलियत उनमें है. इनमें तीन सार्वजनिक क्षेत्र और तीन निजी क्षेत्र के हैं. सार्वजनिक क्षेत्र से आईआईटी, दिल्ली और मुम्बई और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस को चुनने में समिति की किसी प्रतिभा का पता नहीं चलता. उसकी प्रतिभा झलकती है जो अभी है नहीं उसमें प्रतिष्ठा की संभावना खोजने में.

लेकिन आप समिति को माफ़ कर भी दें क्योंकि आखिर वह जिओ से जुड़े किसी नाम और काम के साथ और बर्ताव करती तो राष्ट्रविरोधी न ठहरा दी जाती!

हमें इस पर हैरानी है कि हमारे बहुर सारे समझदार शिक्षाविद, जो कुछ विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं को चलाते रहे हैं और जिनके पास अंतरराष्ट्रीय शिक्षा जगत का इतना अनुभव है आखिर एक ऐसी समिति के सामने अपनी अर्जी लेकर पेश क्योंकर हुए जिसके किसी सदस्य का भारतीय शिक्षा जगत से कोई लेना देना नहीं और जो समिति में किसी कारण से हैं! फिर प्रतिष्ठित की पदवी के लिए क्या आवेदन देना पड़ता है! अगर यूजीसी या सरकार को इसका इल्म ही नहीं कि भारत के शिक्षा संस्थानों में कौन प्रतिष्ठित कहे जा सकते हैं तो अब तक करते क्या रहे हैं!

खोट लेकिन नीयत में और काबलियत में भी है. क्यों कुछ ही संस्थाओं को स्वायत्तता मिलनी चाहिए? क्या बिना स्वायत्तता के कोई प्रतिष्ठित हो सकता है? गाड़ी के आगे घोड़ा होगा या घोड़े के आगे गाड़ी? अगर सरकार कुछ संस्थाओं पर ज्यादा पैसा खर्च करने वाली है तो बाकी में पढ़ने वाले छात्रों का क्या कसूर है कि वे इन विशिष्ट संस्थाओं के छात्रों के मुकाबले वंचित रहें?

उच्च शिक्षा से पहले पैसा काट कर, फिर कुछ को चुनकर उन्हें बाकी से कहीं ज्यादा देने का वायदा, इससे सरकारी दिमाग के घालमेल का पता चलता है. ऐसी चमकदार घोषणाओं से जनता को भरमाया जा सकता है लेकिन इससे शिक्षा का कोई भला नहीं होने वाला.

निजी क्षेत्र की संस्थाओं में मणिपाल और बिट्स पिलानी में पूरे विश्वविद्यालय का कोई विज़न नहीं है. इनका इलाका सीमित है. इनके मुकाबले अशोका यूनिवर्सिटी और जिंदल यूनिवर्सिटी में कहीं ज़्यादा संभावना है. लेकिन समिति की प्राथमिकताएं जाहिर तौर पर कुछ और हैं.

देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में बुनियादी ज़रूरत की चीज़ें नहीं हैं. अध्यापक नहीं हैं, जो हैं ठेके पर, एकमुश्त बंधी रकम पर वेतनमान नहीं. प्रयोगशाला में रसायन नहीं, गैस नहीं, पुस्तकालय में किताब नहीं. ऐसे वातावरण में कुछ भाग्यशाली प्रतिष्ठितों से साधारण जन का क्या भाग्योदय होगा?