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असफलताओं को अभिशप्त जम्मू-कश्मीर
पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के मुखिया दिवगंत मुफ्ती मोहम्मद सईद को एक मंझा हुआ नेता माना जाता था जिन्होंने शून्य से अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत की थी. हालांकि, अपने करियर के आखिरी समय में, करीब 50 वर्षों तक सक्रिय राजनीति में रहने के बाद, उन्होंने खुद की ही विचारधारा को तिलांजली दे दी. उन्होंने एक ऐसा गठबंधन कर लिया जिसे खुद ही वे ‘उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव’ का मिलन बताया करते थे. साढ़े तीन साल बाद, मुफ्ती सईद का यह सपना भी टूट गया है. यह अलग बात है महबूबा मुफ्ती ने गठबंधन चलाने की बहुत कोशिशें की. अब महबूबा की हालत यह है कि उनसे उनकी पार्टी तक नहीं सभल रही है. पार्टी के दो विधायक उनका साथ छोड़कर जा चुके हैं.
कहा जाता है, “राजनीति में समय महत्वपूर्ण होता है.” कश्मीर के राजनीतिक विश्लेषक पीडीपी-भाजपा गठबंधन को “नापाक गठबंधन” कहकर संबोधित करते थे. यह आंशका जताई जाती थी कि आने वाले समय में दोनों में से कोई एक साथ छोड़ देगा और गठबंधन सरकार गिर जाएगी. पीडीपी इसे सही वक्त पर भांप नहीं पाई. भाजपा ने गठबंधन तोड़ा और पीडीपी को असहाय कर दिया. राजनीतिक विश्लेषक और इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के पूर्व कुलपति सिद्दीक वाहिद कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि पीडीपी अंदाजा नहीं लगा पाई. बजाय, यह कहना उचित होगा कि पीडीपी ने पिछले तीन साल में रत्ती भर भी राजनीतिक परिपक्वता का परिचय नहीं दिया. वह तो राजनीतिक शून्यता का शिकार हुई है.”
कांग्रेस कार्ड
चर्चा है कि अब कांग्रेस पीडीपी के साथ गठबंधन करने वाली है. हालांकि कांग्रेस आला-कमान ने इसका खंडन किया है, प्रदेश कांग्रेस ने गठबंधन की संभावनाओं को खारिज नहीं किया है. तीन जुलाई को कांग्रेस हेडक्वार्टर श्रीनगर में मीटिंग प्रस्तावित है. मीटिंग की अध्यक्षता कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आज़ाद करेंगे.
जम्मू और कश्मीर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष गुलाम नबी मोंगा ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “अब तक सारी संभावनाएं खुली हैं. पीडीपी के साथ सरकार बनाने की बात पर मीटिंग में चर्चा होगी.”
उन्होंने कहा कि कांग्रेस का लक्ष्य आरएसएस और भाजपा जैसी हिंदुत्व ताकतों को सत्ता से दूर रखना है. “हम अपने विकल्प तलाशेंगे, उसके बाद ही यह तय हो सकेगा कि हम पीडीपी के साथ जा सकते हैं या नहीं. हम लोग राहुलजी के संपर्क में हैं और उनके दिशा निर्देशों का इंतजार कर रहे हैं,” मोंगा ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा.
दोनों ही, कांग्रेस और पीडीपी, के अनुभव अतीत में बुरे रहे हैं. उन्होंने 2003 से 2008 तक साथ में गठबंधन सरकार चलाई है. दोनों दलों के बीच मुख्यमंत्री बनाने को लेकर एक करार था जिसमें दूसरे दल के नेता को कुछ समय बाद मुख्यमंत्री बनाना था. जब मुफ्ती सईद ने तीन साल तक अपना मुख्यमंत्री कार्यकाल खत्म किया, पीडीपी ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया और गठबंधन से अलग हो गए. तब मुख्यमंत्री और कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आज़ाद के पास इस्तीफा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा.
दोनों दलों के बीच गठबंधन की चर्चाओं पर वाहिद समझाते हैं, “पीडीपी और कांग्रेस के साथ आने की खबरें पीडीपी के कुछ लोगों के लिए बुलबुले की तरह हैं. इसमें कोई प्रायोगिक संभावनाएं नहीं दिखतीं. औपचारिक रूप से कांग्रेस ने इसका खंडन किया है. साथ ही यह कॉमन सेंस की बात है कि क्यों कांग्रेस एक राजनीतिक रूप से खारिज हो चुकी पार्टी के साथ आकर उसका बोझ सहेगी.”
महागठबंधन
जब 2014 में राज्य के चुनावी नतीजे आए तो मुफ्ती सईद ने भाजपा से गठबंधन करने के पहले दो से तीन महीने का वक्त लिया था. हर तरह के मतभेद के बावजूद सभी दलों ने मुफ्ती सईद से आग्रह किया कि वह भाजपा को राज्य की सत्ता से दूर रखने के लिए एक महाबंधन बना लें. हालांकि, मुफ्ती ने किसी की नहीं सुनी.
नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस और पीडीपी के बीच गठबंधन अब असंभव दिखता है. नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रवक्ता इमरान नबी डार ने न्यूज़लॉन्ड्री से बताया, “हमने 2014 में मुफ्ती साहब को बिना शर्त समर्थन दिया था. लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया. यह पीडीपी की बारी है कि वे हमसे संपर्क करें, हम नहीं करने वाले. मुझे नहीं लगता इस बार महागठबंधन जैसे हालात हैं. कोई भी राजनीतिक दल पीडीपी के साथ नहीं जाना चाहता है.”
उन्होंने बताया कि कांग्रेस और पीडीपी के गठबंधन की खबरें पीडीपी द्वारा ही प्लांट करवायीं जा रही हैं ताकि पीडीपी न टूटे.
“वे ऐसी स्टोरी प्लांट करवा रहे हैं ताकि पार्टी सदस्य पार्टी के साथ बने रहें,” नबी ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा.
पिछले दस वर्षों में राज्य में चौथी बार राष्ट्रपति शासन लगा है. प्रशासन के रोजमर्रा के काम-काज की स्थिति सामान्य रूप से चल रही है. सुरक्षा के विषय पर राज्य में स्थितियां बद से बदतर हो गई है. दक्षिण कश्मीर में एक लोकसभा सीट अब तक खाली है क्योंकि सुरक्षा कारणों की वजह से वहां चुनाव नहीं करवाए जा सके हैं.
वाहिद कहते हैं, “दिल्ली ने जो पिछले डेढ दशक में चुनावी प्रक्रियाओं में आधारभूत बदलाव करने की कोशिशें की हैं, वह अब केन्द्र के लिए ही चुनौती बन गए हैं. आज के दिन जम्मू और कश्मीर पहले से भी ज्यादा राजनीतिक अनिश्चितताओं वाला राज्य बन चुका है. और दिल्ली को इसका एक ही उपाय सूझता है, सेना.”
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