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कबीर: काशी से मगहर
कल देर रात किसी पत्रकार ने फोन करके पूछा कि मगहर में कबीर का निर्वाण हुआ था, वहां कबीर जयन्ती मनाना आपकी नजर में उचित है या अनुचित. मैंने छूटते ही जवाब दिया कि कबीर जिस तरह के संत और कवि हैं उनकी जयन्ती कहीं भी मनाना उचित है फिर मगहर तो कबीर की निर्वाण भूमि है, वहां कबीर की समाधि है, वहां तो जयन्ती मनानी ही चाहिए. इसमें औचित्य और अनौचित्य का प्रश्न कहां से उठता है?
बात खत्म हो गयी लेकिन यह बात मन में चलती रही कि आखिर यह सवाल उठा ही क्यों? सुबह अखबारों से पता चला कि कबीर जयन्ती के दिन मगहर में बड़ा भारी उत्सव होने जा रहा है. उत्तर प्रदेश सरकार 24 करोड़ की लागत से कबीर अकादमी स्थापित करने जा रही है. भारत के प्रधानमंत्री इस अवसर पर लोगों को संबोधित करेंगे और कई तरह की घोषणाएं करेंगे फिर इस सवाल का मतलब समझ में आया.
सवाल कबीर के सामान्य अनुयायियों और कबीरपंथियों द्वारा मगहर में कबीर जयन्ती मनाने का नहीं बल्कि प्रदेश और केन्द्र सरकार द्वारा मगहर में कबीर जयन्ती मनाने का है. मुझे ऐसा लगता है कि यह सवाल उठाने वालों के मन में दो बातें हैं. अव्वल तो यह कि कबीर का जन्म काशी में हुआ, कबीर की साधना भूमि और कर्मभूमि काशी ही रही है. दूसरे भारत के प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र काशी है- इसलिए दोनों ही लिहाज से उचित था कि यह आयोजन काशी में होता. खास तौर से तब जबकि दो साल पहले रैदास जयन्ती के अवसर पर प्रधानमंत्री काशी में थे. ऐसे में प्रधानमंत्री का काशी से मगहर की ओर रुख़ कौतूहल और जिज्ञासा का विषय हो सकता है.
लेकिन कौतूहल और जिज्ञासा का विषय तो स्वयं कबीर का काशी से मगहर आना भी था. कबीर का काशी से मगहर आना एक तथ्य है. इस तथ्य की व्याख्या लोग अपने-अपने ढंग से करते हैं. इस तथ्य की सबसे प्रचलित और मान्य व्याख्या यह है कि काशी मोक्ष की नगरी है. यहां मरने मात्र से मोक्ष मिल जाता है. कर्मकाण्डों को महत्ता प्रदान करने वाले लोगों ने स्वयं काशी को ही कर्मकाण्ड में बदल दिया था. कबीरदास को मुफ्त में मिलने वाला मोक्ष गंवारा नहीं था. ना ही वे काशी में मरकर इस कर्मकाण्ड को वैधता देना चाहते थे. बल्कि इसके उलट वे इस कर्मकाण्ड की व्यर्थता साबित करना चाहते थे. वे स्वयं इस बात की गवाही देते हैं कि–
‘जो काशी तन तजे कबीरा, रामहि काह निहोरा रे’.
कबीर का राम से सीधा रिश्ता है, वे कहीं भी मरेंगे, उन्हें मुक्ति मिलेगी. यह कबीर की नहीं उनके राम की चिन्ता का मसला है कि कबीर को मोक्ष मिले.
कबीर की काशी ज्ञान-विज्ञान-साधना से लेकर धर्म संस्कृति का केन्द्र रही है. कबीर का काशी छोड़कर मगहर जाना केन्द्र को छोडकर हाशिए पर जाना है, और केन्द्र की तुलना में हाशिए को महत्व देना है. धारणा यह भी है कि काशी के धर्म धुरीणों ने कबीर का रहना मुहाल कर दिया था, इसलिए वे मगहर चले गये.
लेकिन कबीर मगहर ही क्यों गये, कहीं और जा सकते थे. संभावना है कि मगहर में कबीर के हमपेशा बुनकरों की बसाहट रही हो और वहां कबीर आसरे की तलाश में आ गये हों. संभव है काशी जैसे विकसित व्यापार केन्द्र में बुनकरों के लिए बेहतर अवसर का पता देने के लिए वे मगहर गये रहे हों. संभव यह भी है कि काशी के पंडों-पुरोहितों-सामंतों के त्रास से त्रस्त कबीर अपने वैचारिक पूर्वज गोरखनाथ की भूमि में यह सोचकर आ गए रहे हों कि यहां वे हमखयाल लोगों के साथ शांतिपूर्वक रह सकेंगे.
कबीर ने लिखा है कि साधु की संगति ही बैकुण्ठ है. वजह जो भी रही हो, कबीर काशी से मगहर आये और केन्द्र को त्यागकर हाशिए का वरण किया. कबीर का मगहर आना केवल केन्द्र का परित्याग नहीं बल्कि केन्द्र के विशेषाधिकार को त्यागकर सामान्य की तरह जीवन जीने का संकल्प दिखाई देता है. कबीर का जीवन और कबीर की कविता दोनों में एक खास बात यह दिखाई देती है कि वे किसी भी तरह के विशेषाधिकार को स्वीकार नहीं करते, बल्कि यों कहे कि हर तरह के विशेषाधिकार को चुनौती देते है. चाहें वह वर्ण व्यवस्था से प्राप्त हो, अर्थ व्यवस्था से प्राप्त हो, राज्यसत्ता से या फिर धर्मसत्ता से.
काशी से मगहर की यात्रा दरअसल विशिष्ट से सामान्य होने की यात्रा है. कबीर इस सामान्यता में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता देखते हैं. कबीर का यह भाव इतना प्रबल है कि वे अपने राम को भी विशिष्ट के बजाय सामान्य रूप में देखने का प्रस्ताव करते हैं. कबीर के राम न छोटे हैं न बड़े. उन्हें अलग से सिर नवाने की जरूरत नहीं पड़ती.
इब मन रामहिं ह्वै चला, सीस नवावों काहि.
कबीर के राम सामान्य होते–होते अपने राम में तब्दील हो जाते हैं. ऐसे अपने राम में जो अपने पराये सभी में विराजमान है. कबीर मगहर जाते हैं तो उनके साथ काशी भी जाती है और मगहर में बदल जाती है. कबीर की यह यात्रा दरअसल मनुष्य के पराक्रम की पुनर्वापसी है.
कर्मकाण्ड, विधिविधान, सत्ताविधान सब मिलकर मनुष्य को छोटा बनाने पर तुले हुए हैं. कबीरदास मनुष्य को छोटा होता नहीं देख सकते. काशी बड़ी होगी लेकिन काशी में रहने मात्र से कोई बड़ा नहीं हो सकता. मनुष्य का कर्म उसे बड़ा बनाता है, मुक्ति का अहसास उसे बड़ा बनाता है. दूसरे को छोटा बताकर या बनाकर कोई बड़ा नहीं हो सकता.
यदि मनुष्य के भीतर मुक्ति का अहसास है और दूसरों को मुक्त करने की सामर्थ्य है तो वह मगहर में रहकर भी आदमकद हो सकता है. अगर वह विशिष्टताबोध से मुक्त है और उसमें सामान्य मात्र से प्रेम करने की कूबत है तो वह मगहर में रहकर कर भी बड़ा और आदमकद मनुष्य हो सकता है. यह अहसास नहीं है तो उसका काशी में होना भी उसकी क्षुद्रता का बाल बांका नहीं कर सकता.
कबीर स्वयं हर तरह की क्षुद्रता से ऊपर उठे थे और सब को क्षुद्रता के पार ले जाना चाहते थे. कबीर ने जब लोगों से घर जला कर साथ चलने की पेशकश की होगी तो उनके मन में क्षुद्रताओं का, निकृष्टताओं का घर जलाने की बात रही होगी.
इसलिए कबीर जयन्ती कहीं मना रहे हों यह कोशिश होनी चाहिए कि हम अपनी ही क्षुद्रताओं से ऊपर उठें और आदमकद आदमी बनें. खास तौर से यह जयन्ती अगर आप मगहर में मना रहे हों तो ध्यान रखें कि यह विशिष्टता दंभ का कर्मकाण्ड नहीं, सामान्यता का उत्सव है. सामान्य के मुक्ति का विधान है. ऐसा विधान रचने का संकल्प हो तो कहीं भी कबीर जयन्ती मनाइए.
प्रधानमंत्री जब रैदास मंदिर आ रहे थे तो मैंने उन्हें पत्र लिखा था और बताया था कि रैदास के पास समाज को बेहतर बनाने का एक नक्शा है वह जरूर मांग लीजिएगा, पता नहीं मेरा पत्र प्रधानमंत्री को मिला या नहीं लेकिन वही बात एक बार फिर दोहरा रहा हूं- कबीर के पास भी समाज की बेहतरी का एक नक्शा है, अबकी उसे जरूर हासिल कर लीजिएगा- अवधू बेगम देस हमारा!
(गोरखपुर न्यूज़लाइन से साभार)
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