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रिचा चड्ढा: मर्द की भाषा औरतें क्यों नहीं बोल सकती?
आतंकवादियों ने कश्मीर के पत्रकार शुजात बुखारी पर कातिलाना हमला कर उनकी हत्या कर दी. मीडिया और राजनीतिक हलके के लिए यह बड़ी ख़बर थी. सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने आतंकवादियों के इस कृत्य की निंदा की. ऐसे मौकों पर फिल्म बिरादरी खामोश रहती है. राजनीतिक समझ और पक्षधरता की कमी से उनकी प्रतिक्रियाएं नहीं आती हैं. रिचा चड्ढा अपवाद हैं. वह चुप नहीं रहतीं. उस दिन उन्होंने ट्वीट किया, ‘कायरों ने शुजात बुखारी की हत्या कर दी. आप अपनी ताकत नहीं दिखा रहे हो. आप बता रहे हो कि आप शांति नहीं चाहते. पत्रकारिता खतरनाक काम नहीं होना चाहिए.’
यह ताज़ा प्रसंग है. रिचा ज्वलंत मुद्दों पर अपना पक्ष रखने से नहीं हिचकतीं. फिल्म इंडस्ट्री का मामला हो या व्यापक समाज का, हर ज्वलंत मुद्दे पर रिचा मुखर रहती हैं. पिछले दिनों उनसे मुलाक़ात हुई तो मेरी जिज्ञासा उनके 10 साल के करियर को लेकर थी. इस साल नवम्बर में उन्हें फिल्मों में आये 10 साल हो जायेंगे. उनकी पहली फिल्म ‘ओये लकी लकी ओये’ 28 नवम्बर, 2008 को रिलीज हुई थी.
हालांकि रिचा नहीं मानती कि 2018 में उन्हें 10 साल हो जायेंगे. उनका तर्क है कि भले ही ‘ओये लकी लकी ओये’ 2008 में आई, लेकिन उसके बाद 3-4 सालों का लम्बा गैप रहा. वह कहती हैं, ‘मेरी असली शुरुआत तो ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ से 2012 में हुई.
पहली फिल्म कॉलेज से निकलते ही मिल गयी थी. मैंने उसे मस्ती की तरह लिया था. मन में था कि मनाली जाने को मिलेगा. वहां धर्मेन्द्र के भतीजे से मुलाक़ात होगी. वही हुआ भी. पहचान और सराहना के बावजूद मुझे कोई फिल्म नहीं मिली. मैं मुंबई आ गयी थी. कोई काम नहीं था. मैंने बीच के उन सालों में मुंबई के सारे वर्कशॉप किये. वॉइस और मूवमेंट की, बेहतर ऑडिशन देने की, सीन पर कैसे काम करना है, ये सब बातें समझी.
मैंने खूब अभ्यास किया. दो बार पॉन्डिचेरी में आदिशक्ति जाकर वॉइस ट्रेनिंग ली. कह सकते हैं कि मैंने एक्टिंग की तैयारी किसी एथिलीट की तरह की थी. उस तैयारी का तत्काल कोई लाभ नहीं था. हां, एक बात हुई कि मैं अनुराग कश्यप कि निगाह में आ गयी थी. उन्हें लगा कि रिचा को बुला कर देखा जा सकता है. बाद में ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ का रोल मिल गया. वह इसलिए भी मिला कि 2-3 अभिनेत्रियों ने मना कर दिया था. उस फिल्म में उम्रदराज और बूढ़ी होना था. उसके लिए कोई तैयार नहीं था.’
कैसे गुजरे बीच के साल? सफल होने के बाद हर कलाकार संघर्ष या तैयारी के दिनों को स्मृतिदंश के साथ याद करता है. बीती घटनाओं में वर्तमान के हिसाब से कुछ जोड़-घटा देता है. रिचा के लिए मुंबई के आरंभिक दिनों के अनुभव झटकेदार रहे. शहर अलग था, जीवनशैली बदल गयी, सुविधाएं दिल्ली में छूट गयीं और मुंबई अपने तरीके से आजमाती रही. रिचा बताती हैं, “मुंबई आते समय क्या मालूम था कि यहां स्ट्रगल होगा? ऑटो लेना पड़ेगा, रूम शेयर करना पड़ेगा. शुरू में मेरे लिए तो झटका ही रहा. सबसे पहले दिक्कत तो यही लगी थी कि यहां घरों में बालकनी क्यों नहीं है? हर खिड़की पर ग्रिल? यहां कोई पौधा उगाता ही नहीं है. आसपास में स्कूल दिखता है, लेकिन उनके पास खेल के मैदान नहीं थे. पता चला कि एक बिल्डिंग में ही पूरा स्कूल चलता है. शुरू में मुंबई खतरनाक जगह लग रही थी.”
और फिर आगे बताती हैं, “22 की उम्र में इतनी मेच्योरिटी नहीं होती कि तैयारी करें, कुछ सीखें. मुझे कोई खास उम्मीद नहीं थी. मैं नर्वस और घबराई रहती थी कि मैंने एनडीटीवी की मिली नौकरी छोड़ दी. अब यहां दो लड़कियों के साथ कमरा शेयर करते हुए रोज़ ऑडिशन देने जा रही हूं. ऑडिशन में फेयरनेस क्रीम का ऐड मना कर रही हूं. क्या मैं पागल हूं? मेरे उसूल और मेरे आदर्श आड़े आ रहे थे. इतना सब कुछ पढ़ने और जानने के बाद कैसे उसे चुन लूं जो मेरे लिए ही हानिकारक है. कैसे मान लूं कि गोरा होना ही खूबसूरती है. फिर मुझे कुछ कास्टिंग डायरेक्टर मिलते थे. वे कहते थे कि तुम ज़्यादा इंटेलेक्चुअल हो. जरा घूमने जाओ. लोगों से मिला-जुला करो. मुझे खुद को पेश करना नहीं आता था. ऑडिशन में शार्ट ड्रेस पहन कर चली जाती थी. मुझे नहीं पता था कि कपड़े रात और दिन के हिसाब से अलग-अलग होते हैं. फिल्म इंडस्ट्री के बच्चों को यह सब अच्छी तरह पता होता है.”
पिछले 10 साल के अनुभवों से रिचा चड्ढा ने इतना तो समझ लिया है कि फिल्म इंडस्ट्री भी सोसाइटी की तरह वर्गों में बंटी हुई है. क्लासेज हैं. फिल्म इंडस्ट्री की लड़कियों के लिए थोड़ी आसानी है तो बाहर की लड़कियों के लिए मुश्किलें ज्यादा है. फिर भी यह सच्चाई है कि प्रतिभा और धैर्य हो तो देर-सवेर फ़िल्में मिलती हैं. रिचा अपने अनुभवों के आधार पर उदाहरण देकर बताती हैं, “फिल्म इंडस्ट्री का नहीं होने पर वक़्त लगता है. जिस काम में इंडस्ट्री की लड़कियों को 5 साल लगते हैं, उस काम में हमें 10 साल लग सकते हैं और यह सच है इसे कोई झुठला नहीं सकता. दूसरी बात याद रखने की है कि अगर टैलेंट है तो काम जरूर मिल जाएगा. सफलता भी मिलेगी. हां, थोड़ा वक्त लग सकता है. लगे रहना जरूरी है. आज राजकुमार राव को देख लें. पहले मनोज बाजपेयी थे.”
वो आगे जोड़ती हैं, “मैं अपना भी उदाहरण दे सकती हूं. स्वरा भास्कर हैं. सुपरस्टारडम अलग चीज है उसका कोई भरोसा नहीं है. मेहनत और धैर्य है तो आप जरूर ऊपर जाएंगे. समाज की तरह यहां भी क्लासेज हैं. कुछ लोगों को अधिक सुविधाएं मिलती हैं. इसे कैसे तोड़ेंगे या हम तोड़ नहीं पाएंगे? इसे तोड़ेंगे विनीत कुमार सिंह जैसे लोग. विनीत फिल्म इंडस्ट्री में लगातार रिजेक्शन-रिजेक्शन झेलता रहा. उसे हर तरह के सपने दिखाए गए. उनमें उसे धोखे मिले. फिर एक हद तक पहुंच कर उसे आखिरी मौका मिला. उसने मौके का पूरा इस्तेमाल किया. आज वह एक फिल्म का हीरो बन चुका है और उसकी दूसरी फिल्में भी आ रही हैं. यह लंबा रास्ता है, लेकिन यही एक रास्ता है. मैं अपने बारे में बस क्या बताऊं? मेरी कहानी फिर कभी.”
रिचा ट्विटर, इन्सटाग्राम या किसी और प्लेटफार्म पर जब अपनी बात रखती हैं तो उन्हें बेहिसाब ट्रोल किया जाता है. लोगों को उनकी बातें नहीं पचतीं. उन्हें फेमिनिस्ट और बड़बोला कहा जाता है. रिचा पहले ऐसी प्रतिक्रियाओं से विचलित हो जाती थीं. अब उन्होंने इनसे डील करना सीख लिया है. वह अपना तरीका बताती हैं, “मेरी फिल्मों से ज्यादा मेरे पहनावे, मेरे रंग-ढंग और मेरे पोस्ट पर बातें होती हैं. मेरे बाहरी आवरण पर ज्यादा चर्चा होती है. लोग अच्छा भी लिखते हैं, बुरा भी लिखते हैं, उन्हें मैं अपने हिसाब से छांटती रहती हूं. मुझे तो लगता है कि एक हद तक ही लोगों के लिखे-बोले पर ध्यान देना चाहिए. उसके बाद देखना चाहिए कि कौन किस एजेंडे से काम कर रहा है?”
वह आगे कहती हैं, “आजकल तो फोटोग्राफर और पत्रकार पीछा करते रहते हैं. उन्हें हमारी गाड़ी का नंबर याद रहता है. कहां गई? किससे मिली? कब लौटी? उन्हें सब जानकारी रहती है और फिर टिप्पणी भी करते रहते हैं कि काश उसने यह नहीं पहना होता… या काश उसने ऐसा पहना होता? मेरा कहना है कि अगर इतनी चिंता है तो क्यों नहीं सफेद जूते लाकर मेरे घर में रख देते है? क्या हम इसलिए एक्टर बने हैं कि हम तुम्हारी बात सुनकर कपड़े पहनें?”
रिचा फैशन के बारे में बताती हैं, “फैशन एक्सपर्ट सलाह तो देते हैं, लेकिन मैंने पाया है कि वे क्लोनिंग करने लगते हैं. हमारे यहां अभिनेत्रियों के व्यक्तिगत स्टाइलिस्ट नहीं हैं. स्टाइलिस्ट सलाह देते हैं कि दीपिका ने ऐसा पहना था, प्रियंका ने ऐसा पहना था, तुम भी ऐसा पहनो. मेरा कहना है कि भाई मुझ पर जो फबता है, वैसी चीजें मुझे बताओ. अगर कोई मेरी पर्सनालिटी के हिसाब से सलाह दे तो मैं जरूर मानूंगी. फैशन के अंदर भी क्लासेस बने हुए हैं. कई बार ऐसा होता है कि लोग ताने मारते हैं. एक बार मैं कुछ कपड़े एडजस्ट कर रही थी तो किसी ने तस्वीर खींचकर छाप दी. अब तो आंखों की शर्म भी नहीं रह गई है. सच कहती हूं अब मैं उन पर ध्यान भी नहीं देती. हां, मेरी फिल्मों या मेरे पोस्ट पर कोई टिप्पणी करें तो ठीक है. मैं उसका जवाब दूंगी. मैं इधर देख रही हूं कि लोग लिखने में निंदा जरूर करते हैं. चुगली करते हैं.”
लगे हाथ मैं पूछता हूं कि ‘वीरे दी वेडिंग’ पर चल रही बहस पर रिचा कि क्या राय है? वह झट से जवाब देती हैं, “अभी आखिरी कुछ साल बचे हैं जब आप फेमिनिस्ट, फेमिनिस्ट सुन रहे हैं. बाद में यह नॉर्मल फिल्म हो जाएगी. दर्शक भी उन्हें सामान्य फिल्मों की तरह ट्रीट करने लगेंगे. ‘वीरे दी वेडिंग’ और ‘राजी’ आम फिल्में हैं. हमने तो कई साल पहले ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की थी. जो लोग कह रहे हैं कि इन फिल्मों में मर्द की जुबान औरतें बोल रही हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि जब औरतें वे सारे काम कर रही हैं जो मर्द करते हैं तो फिर गालियां देने में भी क्या दिक्कत है? मर्द की भाषा औरतें क्यों नहीं बोल सकतीं? दरअसल, ऐसे सवाल जो लोग पूछते हैं उनके सवालों से ही उनकी मानसिकता की झलक मिल जाती है, ऐसे लोग औरतों में ही मर्यादा खोजते हैं, बाकी वह खुद कुछ भी करते रहें. उनके लिए समाज में सेक्स होता नहीं है. इस देश में खजुराहो और कामसूत्र नहीं है. उनके लिए औरत मां, बहन, बेटी ही होती है. मैं तो कहूंगी कि उनकी चड्ढी का रंग देख लीजिए. कहीं खाकी चड्ढी तो नहीं पहन रखी?”
हालांकि रिचा मानती हैं कि 2022 में इंडस्ट्री में उनके करियर के 10 साल होंगे और तब वह अपनी फिल्मों और उपलब्धियों का आकलन करेंगी, फिर भी आदतन अभी तक के करियर के बारे में पूछने पर वह जवाब से नहीं मुकरती हैं. कम शब्दों में वह अपनी यात्रा के बारे में बताती हैं, “ओए लकी लकी ओये’ में तो मैं मजे कर रही थी. उस फिल्म में बस इंस्टिंक्ट पर खेला है. उसके बाद जो दो साल की तैयारी की थी, उससे मुझे बहुत मदद मिली और वह ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में दिखा. अगर वैसी ट्रेनिंग नहीं की होती तो शायद मैं देसी औरत का रोल नहीं कर पाती. मोढ़े पर बैठने का, राख से बर्तन धोने का. मेरे अपने एक्सपीरियंस और इमोशनल रेफरेंस में ऐसी कोई बात नहीं थी. उस उम्र में मातृ भाव भी नहीं था मेरे अंदर. उसके लिए मेहनत करनी पड़ी.”
वो आगे कहती हैं, “मसान में मैंने बहुत मेहनत की. ‘मसान’ का रोल बहुत मुश्किल था. लोगों को लगता है कि उस फिल्म में एक्टिंग नहीं की है. चुप रहना और आंखों से एक्टिंग करना आसान नहीं है. लड़के के पिता के घर जाकर डांट खाने वाला सीन बहुत पसंद आया था लोगों को. उस सीन को नीरज ने कई तरीके से शूट किया था. फिल्म में जो रखा है, वह भी बहुत अच्छा है. ‘मसान’ में अंदरूनी शक्ति से मुझे खुद को संभाल कर रखना था. ‘इनसाइड एज’ में भी मैंने बहुत मेहनत की थी. वह कुछ लोगों को अच्छा लगा, कुछ लोग को नहीं लगा. मेरे मेरे लिए नया मीडियम था वेब सिरीज का. मुझे मजा आया. मैं खुद बहुत बड़ी स्टार नहीं हूं, इसलिए उस एक्सपीरियंस को जीना मेरे लिए एक्टिंग ही थी. उसे करते समय मुझे ख्याल था कि क्या कभी शाहरुख खान जैसे स्टार को भी असुरक्षा हो सकती है. अभी मेरी एक और फिल्म आने वाली है ‘लव सोनिया’. उसके लिए मैंने एक अलग लैंग्वेज और एक अलग पर्सनैल्टी तैयार की है. उसका ग्राफ परिपूर्ण है. हाल ही में अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘अभी तो पार्टी शुरू हुई है’ पूरी की है. उसमें मजेदार किरदार है. कॉमेडी करने को नहीं मिलती है ना! उसमें बहुत खुली निर्बंध कॉमेडी है. अच्छे दिल की बेवकूफ से लड़की बनी हूं.”
रिचा इन दिनों सामाजिक और चैरिटी कामों पर भी ध्यान दे रही हैं. फिल्मों को लेकर वह बेहद चूजी हो गयी हैं. वह खुद को एक्टर कहलाना ही पसंद करती हैं. अपनी बातचीत में वह बार-बार कहती हैं, “मैं स्टारडम कि होड़ में नहीं हूं.’
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