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योग दिवस, प्रधानमंत्री और पहाड़
योग दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री के देहरादून आने की खबर के पीछे-पीछे यह ख़बर भी आई कि एफआरआई में सांप और बंदर पकड़ने वालों का भी इंतजाम किया गया है. यानी प्रधानमंत्री की सुरक्षा में एसपीजी के कमांडो और पुलिस, फ़ौज-फाटे के अलावा सपेरे और बन्दर पकड़ने वाले भी रहेंगे.
कुछ साल पहले अमेरिका में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि पहले भारत को लोग सपेरों का देश समझते थे. उनका राज आने के बाद ऐसा नहीं रह गया है. यह रोचक है कि उन्हीं प्रधानमंत्री मोदी की सुरक्षा में एसपीजी कमांडो के अलावा सपेरा और बंदर पकड़ने वाला भी तैनात रहेगा.
वैसे उत्तराखंड है भी बड़े चमत्कारों का प्रदेश. अभी दो दिन पहले ख़बर आई थी कि जंगलात के महकमे में अफसरों के लिए देहरादून में आवंटित आलीशान कोठी में एक सपेरा रहता है. सपेरा वन विभाग में संविदा पर है. इस तरह सपेरों की निरंतर तरक्की हो रही है. अफसरों वाली कोठी से प्रधानमंत्री की सुरक्षा तक!
बहरहाल उक्त कार्यक्रम के लिए सपेरे एवं बंदर पकड़ने वाले का नियुक्त होना ठीक ही है. वरना पता चला कि विश्वगुरु बनने जाते देश के प्रधानमन्त्री का कार्यक्रम बंदर और सांपों ने उजाड़ दिया तो दुनिया क्या कहेगी! योग चल रहा हो और अचानक सांप निकल आये या बंदर धमाचौकड़ी मचाना शुरू कर दें तो सारा योग धरा रह जाएगा. अंदर की सांस वहीं ठहर जाएगी और बाहर की सांस वाली हवा तो वैसे ही निकल जाएगी.
बहरहाल, प्रधानमंत्री के कार्यक्रम के लिए सांप, बंदर पकड़ने वालों के इंतजाम से यह भी ख्याल आया कि यह इंतजाम केवल एक दिन के लिए क्यूं है? आखिर पहाड़ में तो बंदर भी एक तरह के आतंक का पर्याय बन गये हैं. और सिर्फ बन्दर ही नहीं, बाघ, भालू, सूअर आदि जंगली जानवरों का हमला भी निरंतर ही पहाड़ की खेती, मनुष्य और पालतू पशुओं पर जारी है.
पहाड़ में जाइए तो किसी भी सुबह उठ कर देख सकते हैं कि पूरा खेत, जिसमें हाड़तोड़ मेहनत लगती है पर उपजता गुजारे लायक भी बमुश्किल ही है, उसे तो रात में जंगली सूअरों ने पूरी तरह से रौंद दिया है. कभी भी झुटपुटे में ही पता चलेगा कि गौशाला में गाय, भैंस, बैल या बकरी पर गुलदार ने हमला बोल दिया है. अंधेरा होते-होते किसी भी आंगन से बच्चे को गुलदार द्वारा उठा ले जाने और फिर उसका शव मिलने की खबरें, आये दिन सुनने में आती हैं.लेकिन उन्हें रोकने का कोई इंतजाम दिखाई नहीं देता.
जंगल में घास लेने गयी महिला पर भालू ने हमला बोल दिया और वह बहादुरी से उससे मुकबला करती रही, यह ख़बर भी पहाड़ में गाहे-बगाहे सुनाई देती है. अखबारों में भालू से लड़ जाने वाली महिला के लहुलुहान चेहरे की तस्वीरें देखिये तो पता चलेगा कि उसके कारनामे के सामने बहादुरी कितना छोटा शब्द है.
पहाड़ में लोग जब अपने रोजमर्रा के जीवन के लिए ऐसी विकट जद्दोजहद में लगें हों तो उनके सामने कोई भी योग और योग दिवस फीका है. कभी लम्बे से पेड़ की चोटी पर एक पांव हवा में और एक पैर पेड़ पर टिकाये, चारे के लिए पेड़ की टहनियां काटती अधेड़ उम्र की पहाड़ी महिला को देखिएगा. योग के सारे आसनों के ज्ञाताओं का भी कलेजा मुंह को न आ जाए तो कहियेगा!
तीखी पहाड़ी ढलान पर घास काटने के लिए झूलती हुई पहाड़ी महिला के सिर पर ऊपर से लुढ़कता हुआ पत्थर आकर लगता है. अगले 6-7 घंटे खून से लथपथ,वह जिन्दगी और मौत के बीच झूलती है और अंततः दम तोड़ देती है. किसी अस्पताल में डाक्टर नहीं मिलता, तब योग तो उसके प्राण नहीं बचा सकता!
प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में सांप, बंदर न घुसें, इसका इंतजाम तो ठीक है. पर पहाड़ में पहाड़ जैसी जिन्दगी जीते दुधमुंहे बच्चों से लेकर अधेड़ उम्र की महिलाओं तक बाघ, भालू, सूअर, बंदर के आतंक से मुक्त हों, इसका इंतजाम भी कोई करेगा? पहाड़ पर रहने वाले लोगों का जीवन बहुत ग्लैमरस भले ही न हो पर आखिरकार वह भी तो जीवन ही है!
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