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प्रेस की स्वतंत्रता या पर्स की स्वतंत्रता?
काश यह एक स्मृति व्याख्यान नहीं होता लेकिन यह मेरे मित्र नीलाभ मिश्रा की याद में हैं. जब मैं यहां व्याख्यान देने आ रहा था तो मेरे कुछ मित्रों ने मुझसे कहा, “आज शाम आप सभागार में आए युवाओं को कैसे प्रेरित करेंगे. मैंने कहा, मैं लोगों से कहूंगा वे स्टेज के मध्य में आ जाएं, पुश अप करें और फिटनेस चैलेंज कुबूल करें. पुश अप्स से मुझे कोई परहेज नहीं है लेकिन मैं यहां जो बात करने आया हूं, वह है पुट डाउन.”
आज मीडिया की समस्या किसी अच्छे-बुरे अखबार की नहीं है, एक किसी व्यक्ति या न्यूज़रूम में हल्ला मचाने वाले एंकरों की बात नहीं है. हालांकि मैं मानता हूं ये कुछ लोग पागलपन को भी बदनाम करते हैं. लेकिन आज में मैं मीडिया के ढांचे पर बात करूंगा.
आज शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि क्षेत्र में तमाम तरह की दिक्कतें और संकट हैं लेकिन वह अखबारों में अगर रिपोर्ट किया भी जा रहा है तो उसमें किसी की कोई दिलचस्पी ही नहीं है. एक भी संपादकीय अग्रलेख ऐसे विषयों पर नहीं लिखे जा रहे क्योंकि संपादक वर्तमान सरकार को नाराज़ न कर बैठे, इस बात से डरे हैं.
जब यह बात होती है कि पत्रकारों को ‘सत्ता को सच’ बताना चाहिए. मैं इस मुहावरे से असहमत रहता हूं क्योंकि ऐसा लगता है हम सत्ता को मासूम और नौसिखिया मानते हैं. ऐसा लगता है आप जो सच बताएंगें, सत्ता उसका समाधान खोज निकालेगी. आज जरूरत है हम ‘सत्ता का सच’ लोगों को बताएं. लोगों को बताएं कि सत्यपाल सिंह (मानव संसाधन राज्यमंत्री) जैसे लोगों को महत्वपूर्ण कैबिनेट पदों पर क्यों नहीं रहना चाहिए.
मैंने आज तक कभी भी मीडिया और बुद्धिजीवियों को इस कदर डरा और सहमा नहीं देखा था, जैसा वे आज हैं.
इससे पहले कि मैं मीडिया की संरचना के बारे में आपको बताऊं, करीब आधा दर्जन लोगों ने मुझसे कोबरापोस्ट स्टिंग के बारे में पूछा. वे मुझसे पूछ रहे थे- मुझे क्या लगता है कि आगे क्या होगा. सात चीज़े पहले से ही हो रही हैं- पहला, चुप्पी या आधिकारिक तौर पर खारिज करना (वे ऐसा कर सकते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है नब्बे फीसदी मीडिया उसी रैकेट में है), दूसरा, काउंटर स्टिंग करने का दावा. तीसरा, यह कहना कि यह मेरी आवाज़ नहीं थी और इस क्लिप के साथ छेड़छाड़ की गई है. हमें इसे जांच के लिए विदेश के किसी फोरेंसिक लैब में भेजना होगा और उसकी रिपोर्ट आने में पांच साल लग जाएंगे. चौथा, स्टिंग करने वाले संस्थान और रिपोर्टर को डराना-धमकाना. पांचवां, मुकदमे. छठा, इस मामले से फोकस ही शिफ्ट कर दिया जाए. जैसा हमने राडिया टेप्स मामले में देखा था. राडिया टेप्स मामले को मीडिया ने सारा फोकस उसमें घिरे पत्रकारों की ओर कर दिया लेकिन उसमें मुख्य मुद्दा था- कैसे कुछ कोरपोरेट यह तय कर सकते हैं कि सरकार में किसे कौन सा मंत्रालय दिया जाएगा. सातवां, पिछले बीस वर्षों में मीडिया का जनता से टूटता रिश्ता. मीडिया किस तरह से लोगों की समस्याओं को दरकिनार करता है.
भारतीय मीडिया राजनीतिक तौर पर स्वतंत्र है लेकिन वह पूंजी में कैद है. गरीब और हाशिये पर गए लोगों की बात न करना मीडिया का रणनीतिक स्वरूप है. यह एक गंभीर स्थिति है जब मीडिया का स्वामित्व कुछ कोरपोरेट के हाथों में है. कोरपोरेट मीडिया कभी भी समाज की बात नहीं करेगी, वह सत्ता के खिलाफ कभी भी आवाज़ उठाने नहीं जाएगा.
मान लीजिए स्पेक्ट्रम का सौ फीसदी निजीकरण हो जाए, उसका फायदा किसको मिलेगा- अंबानी, टाटा, बिरला और इन्हीं के पास मीडिया का स्वामित्व भी है. आप खदानों का निजीकरण कर दें, फायदा किसको होगा- अंबानी, टाटा, बिरला. तेल और नेचुरल गैस का निजीकरण कर दें, फायदा किसको मिलेगा- फिर से टाटा, बिरला, अंबानी. स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र का स्वामित्व तेजी से इन्हीं मीडिया मालिकों के हाथों में जा रहा है.
शायद फोर्ब्स समझता हो कि आठ मार्च को अरबपतियों की लिस्ट जारी करना एक प्रेरणादायी कदम हो लेकिन गौर कीजिए देश में गैर बराबरी का स्तर कितना गंभीर है. गैर बराबरी 1920 के दौर से भी ज्यादा गंभीर आज के वक्त है. 1991 में हमारे देश में एक भी अरबपति नहीं थे. वर्ष 2000 में यह संख्या 8 हुई. 2012 में 53 और 2018 में 121. इन 121 लोगों के पास इस देश के जीडीपी का 22 फीसदी है. अब इसमें सबसे ऊपर कौन है, इसपर गौर करना जरूरी है. देश का सबसे अमीर व्यक्ति, दुनिया का 19वां अमीर व्यक्ति, वही आपके देश का मीडिया मालिक भी है. मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि मुकेश अंबानी को अपने मीडिया चैनलों का नाम भी नहीं मालूम होगा.
सवाल है ऐसे में हमें करना क्या चाहिए. हमें मीडिया का लोकतांत्रिकरण करना होगा. हमें मोनोपॉली (एकाधिकार) से लड़ना होगा. हमें मोनोपॉली खत्म करने के लिए सख्त कानून लाने होंगे. दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में क्रॉस मीडिया ओनरशिप को लेकर कोई कानून नहीं है. पब्लिक ब्रॉडकास्टर को पुनर्जीवित करने की जरूरत है. एक वक्त था जब राज्यसभा टीवी के कार्यक्रम किसी अन्य चैनल से देखना ज्यादा अच्छा था. ध्यान रहे सोमनाथ चैटर्जी तब लोकसभा अध्यक्ष थे.
पेड न्यूज़ के खिलाफ भी सख्त कानून लाने की जरूरत है. सबसे जरूरी है कि लोग छोटे-छोटे मीडिया पोर्टल की सहायता करें. आज यहां कितने लोग हैं जिन्होंने खबर की अहमियत समझते हुए कम से कम तीन पत्रिकाओं का सब्सक्रिप्शन लिया है. मुझे चिढ़ होती है जब लोग मीडिया पर चिंता जाहिर करते हैं लेकिन वे किसी भी मीडिया समूह की सहायता नहीं करते. स्वतंत्र मीडिया जो सत्ता के खिलाफ मुखरता से खड़ा रहे, उसके लिए जरूरत है आप मीडिया की सहायता करें, सहयोग करें, उसे चंदा दें. धन्यवाद.
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