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ऑपरेशन 136: अपराधी नेता और भ्रष्ट नौकरशाहों की कतार में खड़ा होगा मीडिया
कोबरापोस्ट, स्टिंग आपरेशन-136 में सबसे बड़े भारतीय मीडिया घरानों के मालिक और मैनेजर पैसे लेकर एक खास राजनीतिक पार्टी के पक्ष में धार्मिक नफरत फैलाने, वोटों का ध्रुवीकरण करने, उनके प्रतिद्वंद्वी नेताओं के मुंह पर दुष्प्रचार की कालिख पोतने के लिए मुस्तैद दिखाई दे रहे हैं.
ये मीडियावाले किसी जिम्मेदारी से वंचित भाड़े के माफिया डॉन जैसे दिखाई दे रहे हैं जिनका काम पैसे लेकर बताए गए आदमी या धार्मिक समुदाय पर अपने पत्रकारों से शब्दों और तस्वीरों की गोलियां चलवाना है, जिनका असर सचमुच की गोलियों से कहीं गहरा और स्थायी होता है.
तुर्रा यह है कि यह कारनामा पेशेवर पत्रकारिता के जुमलों की ओट में किया जा रहा है जिसका मकसद सच को सामने लाना है. अगर विश्वसनीयता के मामले में भारतीय मीडिया की रैंकिंग दुनिया में 136वें नंबर पर है तो वह खुद जिम्मेदार है क्योंकि वह खरीददार के सामने अपने बिकने की व्याकुलता का मुजाहिरा खुलेआम कर रहा है.
सवाल पैदा होता है कि उन्नत तकनीक और बेहतरीन प्रशिक्षित पत्रकारों से कराए गए घृणा, झूठ, अफवाहों के उत्पादन को बेचने से जो आसानी से बहुत ज्यादा पैसा आएगा, उसका वे करेंगे क्या?
कुछ नहीं… उससे और अधिक उन्नत मशीनें खरीदी जाएंगी, और अधिक आज्ञाकारी, मनचाही छवियां बनाने में दक्ष पत्रकार पाले जाएंगे, व्यापार का विस्तार करते हुए इतनी अधिक पूंजी बटोरी जाएगी कि सत्ता को नियंत्रित किया जा सके. सपना पूंजी की ताकत से लोकतंत्र की ऐसी तैसी करते हुए सत्ताधारी कारपोरेटों में से एक बनना है.
इस खेल में सबसे निर्णायक पाठक, दर्शक या जनता की भूमिका मूर्खों की भीड़ से अधिक कुछ नहीं है और मीडिया हाउस भीड़ का दिमाग मनचाही दिशा में फेरने के खिलौने बनाने वाली फैक्ट्री में बदलते जा रहे हैं. जो मीडिया विनम्रता पूर्वक खुद को चौथा खंभा और लोकतंत्र की रखवाली करने वाला कुत्ता कहता था अब खुद पैसे लेकर लोकतंत्र को नोच रहा है.
इसमें नया सिर्फ इतना है कि यह सबकुछ आम चुनाव की हवा में “आन द रिकार्ड” दिखाई दे रहा है वरना अधिकांश मीडिया आम दिनों में अपने मैनेजरों की योजनाओं पर अमल करते हुए झूठ, अफवाह, अंधविश्वास, सनसनी और घृणा का उत्पादन करता रहता है ताकि टीआरपी और सर्कुलेशन बढ़ाकर रेवेन्यू देने वाले आसामियों को ललचा कर बुलाया जा सके.
इसलिए यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि अपने मालिकों को नंगा देखकर मीडिया हाउसों के भीतर खुद को सुधारने की कोई कोशिश की जाएगी. मीडिया हाउस बिना झेंपे सत्ताधारी पार्टी जैसा व्यवहार शुरू कर चुके हैं.
वे विपक्ष यानि स्टिंग आपरेशन करने वालों की विश्वसनीयता, व्यावसायिकता और नीयत को निशाना बना रहे हैं ताकि आक्रामक शोर में असल मुद्दे को गायब किया जा सके. इन दिनों सत्ताधारी भाजपा भी चार सालों में कुछ न कर पाने के लिए विपक्ष को कोस रही है. विपक्ष तो खैर कोसने के लिए बना ही है.
रंगे हाथ पकड़े गए मीडिया हाउसों पर किसी कानूनी कार्रवाई की उम्मीद करना भी व्यर्थ है क्योंकि देश में कोई ऐसी संस्था है ही नहीं. बाबरी मस्जिद गिराने के समय बहुत से जागरुक पत्रकारों और नागरिकों ने प्रेस काउंसिल आफ इंडिया, एडिटर्स गिल्ड समेत कई अन्य संस्थाओं को धार्मिक उन्माद फैलाने, एतिहासिक तथ्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने, एक धार्मिक समुदाय के खिलाफ घृणा फैलाने की तथ्यात्मक शिकायतें भेजीं थीं लेकिन प्रतीकात्मक निंदा के अलावा कुछ नहीं हुआ.
अगर धार्मिक ध्रुवीकरण के कृत्य के लिए राजी होने के अपराध में मीडिया मालिकों पर कानूनी कार्रवाई करना संभव हो तो भी राजनेता इसमें दिलचस्पी नहीं लेंगे क्योंकि एक कमजोर और भ्रष्ट मीडिया होने का सबसे अधिक फायदा उन्हीं को मिलना है.
वे चुनाव में उसे अपने तरीके से इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे. जो मीडिया कंटेन्ट उनके पक्ष में होगा उसे अपनी छवि बनाने में इस्तेमाल करेंगे जो खिलाफ होगा, उसे पेड न्यूज और दलाल मीडिया का कारनामा बताकर पल्ला झाड़ लेंगे.
संस्थाओं को भ्रष्ट बनाकर उनकी विश्वसनीयता खत्म करना, उनका मनमाना इस्तेमाल करना और फिर दूध की मक्खी की तरह फेंक देना सत्ता का पुराना शगल है. यह चलन इन दिनों न्यायपालिका के मामले में भी नंगी आंखों से दिखाई दे रहा है.
सबसे खतरनाक यह है कि मीडिया की विश्वसनीयता का जितनी तेजी से लोप हो रहा है उतनी ही गति से एक सनकी जनमानस की भी निर्माण हो रहा है जिसके लिए मीडिया में सभी चोर हैं- सभी भ्रष्ट हैं. सबसे अधिक नुकसान बचे-खुचे कुछ अच्छे मीडिया संस्थानों और पत्रकारों का होगा जिन्हें अपने मनमाफिक न पाकर कोई जनरल वीके सिंह जैसा जबानदराज “प्रेस्टिट्यूट” का ठप्पा लगाकर मजमा लूट लेता है.
अगर सभी चोर हैं, सभी भ्रष्ट हैं की धारणा स्थापित हो गई तो आम पाठक, दर्शक या जनता तक सही सूचनाएं कैसे पहुंच पाएंगी और उन पर यकीन कौन करेगा? हमारे समाज में परंपरागत तौर पर जनमत बनाने का काम जातीय और धार्मिक गिरोहों के मुखिया करते रहे हैं जो अपने विरोधियों को खत्म करने के लिए सूचनाएं गढ़ते और प्रसारित करते हैं.
इनसे इतर अफवाहें बनाने और फैलाने के उस्तादों का एक विराट कारखाना भी है जो जब चाहे गणेशजी को दूध पिला देता है, मुंहनोचवा और आईएसआई का मानवरूपी भेड़िया पैदा कर देता है, व्हाटसएप से अफवाहें फैलाकर हत्याओं को अंजाम देता है.
मीडिया की विश्वसनीयता खत्म होने का सीधा मतलब यह है कि तकनीक उन्नत होगी लेकिन सूचनाएं मध्ययुगीन होंगी जिनका इस्तेमाल जातीय और धार्मिक गिरोह भीड़ को उकसा कर अपने निहित स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए करेंगे. यह अपने मुनाफे के लिए देश को मध्ययुग में या कहें उससे भी बदतर हालत में ले जाना है.
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