Newslaundry Hindi
पहले जिनपिंग फिर पुतिन, माजरा क्या है?
राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों की शिखर बैठकें कभी भी बिना एजेंडे के या संदर्भ के नहीं होतीं. ऐसी मुलाकातों के खास मकसद होते हैं और वे देश-काल के हालात के साये में आयोजित होती हैं. अप्रैल में चीनी शहर वुहान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की बहुचर्चित बैठक के तुरंत बाद भारतीय प्रधानमंत्री की रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाकात को इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए.
आज वैश्विक भू-राजनीतिक स्थितियां व्यापक उथल-पुथल से गुजर रही हैं जिनसे देशों की आंतरिक और वाह्य राजनीति और व्यापार पर भी असर पड़ रहा है. ऐसे में यह कहना कि ये हालिया बैठकों का पूर्व-निर्धारित एजेंडा नहीं था या फिर यह कि नेताओं के बीच विभिन्न मुद्दों पर खुलकर चर्चा हुई, बेमानी बातें हैं.
यदि हम सरकार के खुद के बयानों पर नजर डालें, तो आसानी से समझा जा सकता है कि मोदी-पुतिन वार्ता का मतलब क्या है. भारतीय विदेश मंत्रालय के बयान में कहा गया है कि दोनों नेता इस बात पर सहमत हैं कि ‘दोनों देशों को एक खुली और समान विश्व व्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है.’
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के प्रमुख पीएस राघवन ने कहा कि ‘इस बैठक के पीछे मुख्य उत्प्रेरक आज का भू-राजनीतिक वातावरण है.’ इन्होंने यह भी कहा है कि अमेरिका के साथ संबंधों को प्रभावित किये बिना हम रूस और ईरान से सहभागिता बनाये रखना चाहते हैं.
आखिर यह भू-राजनीतिक वातावरण है क्या, जिसके कारण भारतीय प्रधानमंत्री को दावोस, वुहान और सोची में बहुध्रुवीय विश्व की बात बार-बार कहना पड़ रहा है? जवाब सीधा है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जिस आक्रामकता के साथ संरक्षणवादी नीतियां अपना रहे हैं, उसका नकारात्मक प्रभाव भारतीय हितों पर भी पड़ रहा है.
मोदी सरकार की विदेश नीति में शुरुआती चरण से ही एक भ्रम की स्थिति रही है तथा नीतियों में न तो स्थायित्व है और न ही कोई दिशा. सबको साधने के चक्कर में नतीजा यह हुआ है कि न तो निवेश के स्तर पर उल्लेखनीय कामयाबी मिल पायी और न ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उनका कद बढ़ सका. इसे राष्ट्रपति पुतिन से मुलाकात के समय प्रधानमंत्री मोदी के बयान से समझा जा सकता है. बीते चार सालों में दोनों नेता सीधे तौर पर और बहुपक्षीय मंचों पर अनेक दफा मिल चुके हैं. इसके बावजूद प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति पुतिन और दोनों देशों के लंबे संबंधों का भावनात्मक हवाला देना पड़ा?
ब्रिक्स मंच को कमजोर करने और सार्क संगठन को तकरीबन बेमानी करने में मोदी सरकार की विदेश नीति का बड़ा हाथ रहा है. अमेरिका से नजदीकी बढ़ाने के फेर में चीन से तनातनी हुई और रूस की उपेक्षा की गयी. नतीजा यह हुआ कि रूस और चीन की घनिष्ठता में इजाफा हुआ, रूस और पाकिस्तान के संबंध बेहतर हुए तथा अफगानिस्तान में रूस की भूमिका बढ़ी.
दो साल पहले अनेक जानकार सरकार को सुझाव दे रहे थे कि रूस के साथ रिश्तों पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि वह एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित हो चुका है. लेकिन अमेरिकी प्यार में पड़ी सरकार ने इन सलाहों पर कान नहीं दिया. अब जब चुनावी साल में सरकार प्रवेश कर चुकी है, तो उसे निवेश की जरूरत है.
बीते कुछ समय से तेल की कीमतों में उछाल और डॉलर की मजबूती ने सरकार को चिंता में डाल दिया है. चीन के साथ अमेरिका का ट्रेड वार वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए परेशानी का सबब बन ही रहा था कि राष्ट्रपति ट्रंप ने खुद को ईरान परमाणु करार से अलग करते हुए ईरान पर कठोर आर्थिक प्रतिबंध लगाने का फैसला कर लिया है. इसी के साथ अमेरिका यूरोप और दुनिया के अन्य देशों को भी ईरान से किनारा करने की बात कह रहा है.
उल्लेखनीय है कि रूस पर अमेरिका के आर्थिक प्रतिबंध भी लगे हुए हैं. ईरान और यूरोप के देशों के साथ रूस के भी अच्छे व्यापारिक संबंध हैं. भारत के साथ तो हैं ही. हम ईरानी तेल के बड़े आयातक हैं. चाबहार बंदरगाह और ईरान से मध्य एशिया होते हुए रूस तक यातायात बनाने की योजना के भी सहभागी हैं. इन दोनों परियोजनाओं का आर्थिक महत्व भी है और रणनीतिक भी. इसमें सीधे तौर पर ईरान के अलावा अफगानिस्तान और रूस के हितों के साथ भारत के हित जुड़ते हैं.
प्रधानमंत्री के रूस दौरे से पहले पिछले महीने रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण तीन दिनों के लिए मॉस्को गयी थीं. वे रक्षा मंत्री बनाये जाने से पहले वाणिज्य मंत्री रह चुकी हैं. विश्व व्यापार संगठन की बैठकों में वे सक्रिय रही थीं. इस महीने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और विदेश सचिव विजय गोखले भी मॉस्को गये थे.
फिलहाल भारत की सबसे बड़ी चिंता तेल की कीमतें हैं. ऊर्जा के क्षेत्र में दोनों देशों के आपसी सहयोग बहुत ठोस हैं. रूस से भारत तक पाइपलाइन बनाने की बात अरसे से चल रही है. एस्सार में रूसी कंपनी रॉस्नेफ्त का निवेश सबसे बड़ा विदेशी निवेश है. रूस के हाइड्रोकार्बन कारोबार में भारतीय निवेश 10 बिलियन डॉलर से अधिक है. इस क्षेत्र में साझा परियोजनाओं की योजनाएं भी हैं.
रूस तेल का बड़ा उत्पादक देश है. मार्च में उसका उत्पादन करीब 11 मिलियन बैरल रोजाना के स्तर पर पहुंच गया था. सीधा हिसाब है कि तेल की बढ़ती कीमतें रूसी खजाने के लिए शानदार खबर है. प्रधानमंत्री मोदी के सोची जाने से कुछ दिन पहले ही जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल भी राष्ट्रपति पुतिन से मिली हैं.
कुछ दिन बाद फ्रांसीसी राष्ट्रपति और जापानी प्रधानमंत्री भी रूसी नेता से मिलेंगे. यह भी उल्लेखनीय है कि चीन और रूस के साथ मिलकर ईरानी करार को बचाने के साथ अमेरिकी दबाव से निकलने की जुगत भी यूरोपीय देश कर रहे हैं. अनेक पर्यवेक्षकों का मानना है कि अमेरिका का रवैया यूरोप को रूस, चीन और ईरान के साथ बेहतर रिश्ते बनाने की ओर धकेल सकता है. आखिर यूरोप को भी तो अपने आर्थिक हितों की चिंता है!
सीरिया से अमेरिकी सेनाओं के हटने के संकेत हैं. नाटो में शामिल देश मध्य-पूर्व में बड़े युद्ध पर सहमत नहीं हैं. ईरान और सीरिया के साथ निकटता साधते हुए रूस इजरायल, सउदी अरब और तुर्की से भी रिश्ते सुधार रहा है. चीन तो बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में बहुपक्षीय संबंधों को अच्छे से निभा ही रहा है.
ऐसे परिदृश्य में भारत को रूस और चीन के साथ रिश्ते सुधारने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है. मुश्किल की बात यह है कि भारत की कवायदें नीतिगत दूरदृष्टि से संचालित होने के बजाय तात्कालिक हितों से तय हो रही हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी की हालिया यात्राएं महज दिलकश तस्वीरें खिंचाने तक सीमित न रहकर आर्थिक और रणनीतिक मोर्चे पर देश को फायदा दिलाने का जरिया भी बनेंगी.
अफसोस की बात यह है कि भारतीय नेतृत्व में बड़ी अर्थव्यवस्था होने और अंतरराष्ट्रीय मंच पर धमक देने के लिए जरूरी इच्छाशक्ति की कमी दिखती है. याद करिये, कब किसी बड़े और विवादित वैश्विक मुद्दे पर भारत ने कोई ठोस बयान दिया हो या फिर कोई बड़ी पहल की हो!
Also Read
-
Billboards in Goa, jingles on Delhi FMs, WhatsApp pings: It’s Dhami outdoors and online
-
Behind India’s pivot in Kabul: Counter to Pak ‘strategic depth’, a key trade route
-
‘Justice for Zubeen Garg’: How the iconic singer’s death became a political flashpoint in Assam
-
Delhi’s posh colonies show how to privatise public space – one footpath at a time
-
Taliban’s male-only presser: How media failed to fact-check Afghan minister’s pro-woman claims