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इतिहास: महाराणा प्रताप हिंदू-मुस्लिम भेद नहीं रखते थे
इतिहास आज़ादी के लिए लड़ने वालों को हमेशा सलामी देता है. राणा प्रताप की वीरगाथा भी इसी श्रेणी में आती है. उन्होंने अपने ‘राज्य’ मेवाड़ को बचाने के लिए उस समय की ‘केंद्रीय सत्ता’ यानी फतेहुपर सीकरी के सामने घुटने नहीं टेके जबकि पूरा राजपूताना अकबर की राजपूत नीति के साथ नत्थी हो रहा था.
लेकिन आज़ाद भारत में इस क़िस्से को राजनीतिक कारणों से हिंदू-मुस्लिम लड़ाई की शक्ल देने की कोशिश हो रही है. आरएसएस निरंतर पूरे इतिहास को इसी नज़रिए से देखने और दिखाने की कोशिश करता है जबकि हल्दीघाटी में राणा की लड़ाई अकबर से नहीं, मुगल सेनापति राजा मान सिंह की सेना से हुई थी, जिसमें राजपूत योद्धाओं की भारी तादाद थी. उधर, राणा प्रताप के सेनापति थे हकीम खाँ सूर जिनके पीछे सैकड़ों अफ़गान सैनिक राणा प्रताप का झंडा उठाकर मुगलों के ख़िलाफ़ जी-जान से लड़े.
सन 1568 ई. में अकबर ने जब खुद चित्तौड़ की घेरेबंदी की थी, तब भी राणा प्रताप किले में नहीं थे. वे शाही फौजों के आने के पहले ही निकल गए थे. किले की रक्षा की ज़िम्मेदारी राजपूत सरदार जयमल के पास थी जो अकबर की बंदूक का निशाना बना था. यानी किसी युद्ध में राणा प्रताप और अकबर का आमना-सामना नहीं हुआ.
यह सही है कि हल्दीघाटी का युद्ध जीतने के बावजूद राणा प्रताप का न पकड़ा जाना अकबर को अच्छा नहीं लगा और वह कुछ दिनों तक मान सिंह से मिला भी नहीं. ऐसी भी अफ़वाहें थीं कि मान सिंह ने जानबूझकर राणा प्रताप को निकल जाने दिया क्योंकि उनका पुराना ख़ानदानी रिश्ता था. लेकिन बाद में इसका फ़ायदा मिला जब राणा प्रताप के बेटे अमर सिंह मुगल दरबार में पाँच हज़ारी मनसबदार हो गए और उन्हें सिंध का सूबेदार बना दिया गया. चित्तौड़ का साथ आना अकबर की राजपूत नीति की एक बड़ी सफलता थी जिसने भारत में मुगल शासन को ऐतिहासिक मज़बूती दी.
दिलचस्प बात है कि आरएसएस-बीजेपी को यह पसंद नहीं है कि जिन राणा प्रताप को वह मुस्लिमों के ख़िलाफ़ लड़ने वाले हिंदू नायक की तरह पेश करती है, वह युद्ध हार गए थे, इसलिए पिछले साल राजस्थान यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में बीजेपी नेताओं की ओर से एक अजीब प्रस्ताव पेश किया गया था. वे चाहते थे कि विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाए कि राणा प्रताप ने 1576 ई. में हल्दी घाटी के युद्ध में जीत हासिल की थी.
इतिहास से जुड़े लोगों के लिए यह चौंकाने वाली घटना थी. हल्दी घाटी युद्ध के विवरण और उसके नतीजे निर्विवाद रूप से स्थापित हैं. आइए देखते हैं कि कवि नरोत्तम ने ‘मानचरित्र रासो’ में इस युद्ध के बारे में क्या लिखा है–
कवि नरोत्तम लिखते हैं–
परिय लोथि तिहिं खेत नांउ तिनि कोउ न जानइ ।
इतहि उतहि बहु जोध क्रोध करि भीरहि भानइ ।।
राउत राजा राउ सूर चौडरा जि केउव ।
कहत न आवहि पारु औरु चंधरया ति तेउव ।।
भिरि स्वाँम काँम संग्राम महि, लगी लोह सब लाज जिहि
जीत्यौ जु माँन नीसाँन हनि, खस्यौ खेत परताप तिहि।।
अर्थात- “जंग इतना ख़ौफ़नाक था कि लाशों पर लाशें गिरने लगीं, इतनी कि उनका नाम तक कोई नहीं जानता था ; दोनों तरफ़ के योद्धाओं ने ग़ुस्से में एक-दूसरे से लोहा लिया ; राजा, रावत, घुड़सवार की क्या गिनती करे, झंडे लेकर चलने वाले भी अपने मालिक की इज़्ज़त के लिए लड़े ; राजा मान सिंह डंके की चोट पर विजयी हुए और महाराणा प्रताप सिंह युद्ध क्षेत्र से खिसक गए.”
कह सकते हैं कि कवि नरोत्तम मानसिंह के दरबारी थे. तारीफ़ तो करेंगे ही. लेकिन यदि राणा युद्ध ‘जीते’ तो फिर हुआ क्या ? उसके बाद हमारे पास राणा के घास की रोटी खाकर लड़ते रहने की कहानियाँ हैं, जो बस इतना बताती हैं कि राणा प्रताप किसी कीमत पर अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं करना चाहते थे जैसा कि दूसरे राजपूत राजाओं ने किया था. लेकिन वे 1567 में हार चुके चित्तौड़ का क़िला दोबारा जीत नहीं पाए.
सच्चाई यह है कि इस लड़ाई का धर्म से कोई लेना-देना नहीं था. राणा प्रताप के कुछ बेहद निकट लोग भी अकबर के साथ थे. इसकी वजह मेवाड़ की गद्दी को लेकर चला विवाद था. दरअसल, राणा प्रताप के पिता उदय सिंह ने 18 शादियाँ की थीं जिससे उनके 24 बेटे और 20 बेटियाँ हुईं. प्रताप बड़े बेटे थे, लेकिन उदय सिंह अपने वारिस बतौर जगमल को राजगद्दी दे गए जो वारिसों में नवें नंबर पर थे. प्रताप सिंह के समर्थकों ने उदय सिंह की मृत्यु के बाद इसका विरोध किया और राणा प्रताप गद्दी पर बैठे. नाराज़ जगमल अकबर के साथ चला गया जिसे जहाजपुर का परगना मिल गया.
देखा जाए तो राणा प्रताप और अकबर की लड़ाई केंद्रीय और स्थानीय सत्ता की लड़ाई थी, हिंदू-मुस्लिम की नहीं जैसा कि आज बताने की कोशिश हो रही है. अकबर राजपूतों को अपने साथ करके भारत में एक विशाल साम्राज्य स्थापित करना चाहता था. जो साथ नहीं आए, उन्हें युद्ध में जीतना एकमात्र रास्ता था.
राणा प्रताप के बाद उनका बेटा अमर सिंह मुगल दरबार में पाँच हज़ारी मनसबदार हुआ. इसलिए यह कहना ग़लत है कि मेवाड़ के सिसोदिया हमेशा मुगलों से लड़ते ही रहे.
राणा प्रताप की महानता असंदिग्ध है, इसके लिए उन्हें 442 साल बाद हल्दीघाटी का युद्ध ‘राजनीतिक छल’ से जितवाने की ज़रूरत नहीं है. हार कर भी प्रेरणा देने वाले नायकों से इतिहास भरा पड़ा है. एक प्रेरणा तो यही है कि राणा प्रताप हिंदू-मुस्लिम भेद नहीं रखते थे वरना उनके सर्वाधिक विश्वासपात्र सेनापति का नाम हक़ीम खाँ सूर न होता.
(साभार: मीडिया विजिल)
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