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राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह: “एक अहंकारी मंत्री की दीवार पर टंगने की ख्वाहिश”
फिल्म समारोह निदेशालय के वेबसाइट पर राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के बारे में विस्तृत अभिलेख प्रकाशित है. उस अभिलेख में स्पष्ट शब्दों में लिखा है,’ राष्ट्रीय पुरस्कार, सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ सम्मान, दादा साहब फालके पुरस्कार के साथ महत्वपूर्ण समारोह में भारत के राष्ट्रपति द्वारा केंद्रीय मंत्री, सूचना एवं प्रसारण, तीन निर्णायक मंडलियों के अध्यक्ष, भारत के फिल्म महासंघ के प्रतिनिधि और अखिल भारतीय फिल्म कर्मचारी संघ और वरिष्ठ कर्मचारियों की उपस्थिति में प्रदान किया जाता है.‘ लाल रंग के चार शब्दों पर गौर कर लें. इसके बाद भी कोई आशंका या बहस की गुंजाइश रह जाती है तो निस्संदेह आगे कोई बात नहीं की जा सकती.
वर्ष 1954 में 1953 की फिल्मों के पुरस्कार के साथ इसकी शुरूआत हुई थी. अभिलेख के मुताबिक ‘भारत सरकार द्वारा भारतीय सिनेमा के समूचे राष्ट्रीय प्रतिबिंब को सम्मिलित करने, देश के उच्चतम संभव मानदण्ड द्वारा योग्यता का निर्णय करने और सबसे लोलुप और प्रतिष्ठित पुरस्कार बनने, कलात्मक, समर्थ और अर्थपूर्ण फिल्मों के निर्माण के लिए भारत सरकार द्वारा वार्षिक प्रोत्साहन के रूप में फिल्मों के लिए राष्ट्रीद पुरस्कार की शुरुआत की गई. अभिलेख में आगे लिखा है, ‘किसी भी अन्य देश में एक के बाद एक वर्ष में अच्छे सिनेमा को ऐसे व्यापक और आर्थिक तौर पर पुरस्कृत रूप में बढ़ावा नहीं दिया जाता है. बदले में इसने कईं वर्षों से सृजनात्मक, गंभीर, सिनेमाई और महत्वपूर्ण फिल्मों के निर्माण को प्रेरित करने और बढ़ावा देने का कार्य किया.
हर साल सबको देखने हेतु बेहतरीन काम तथा व्यक्तिगत उपलब्धि को उच्चतम राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुखता देते हैं. यह स्वयं पहचान और साथ में पर्याप्त नकद पुरस्कार जीतने के आग्रह उत्पन्न करने के ज़रिए बेहतर फिल्म निर्माण के लिए ज़बरदस्त प्रेरणा और नेतृत्व प्रदान करता है.
राष्ट्रीय पुरस्कार का दूसरा प्रशंसनीय पक्ष सभी भाषाओं की अच्छी फिल्मों को बढ़ावा देना है जो भारत द्वारा लगभग बीस भाषाओं और उपभाषाओं में फिल्मों के निर्माण करने को ध्यान में रखते हुए बहुत लम्बा कार्य है। वैसे ही वृत्तचित्रों को, यदि लघु हो या अत्यधिक दीर्घ विभिन्न श्रेणी में पुरस्कृत किया जाता है.
इस परिपेक्ष्य में ताजा विवाद को देखें तो 50 से अधिक फिल्मकारों द्वारा पुरस्कार समारोह के बहिष्कार ने कुछ सवाल खड़े किए. 64 साल पुरानी परंपरा की गरिमा नष्ट हुई. उसकी प्रतिष्ठा को ग्रहण लगा. सारे उद्देश्यों और प्रशंसनीय पक्षों पर पानी फिर गया. जानकार बताते हैं कि अतीत में कभी ऐसी सूचना पुरस्कृतों को नहीं दी गई कि उन्हेंं सूचना एवं प्रसारण मंत्री पुरस्कार देंगी. हालांकि वर्तमान सरकार के सोशल मीडिया समर्थकों ने कुछ चित्रों और तथ्यों से यह बताने और सही साबित करने की कोशिश जारी रखी है कि अतीत में भी कई बार पुरस्कार दूसरे मंत्रियों और अधिकारियों द्वारा दिए जाते रहे हैं. मुमकिन है ऐसा हुआ हो,लेकिन तब विरोध और बहिष्कार की नौबत नहीं आई. एक ही बात समझ में आई कि इस बार पुरस्कृतों के साथ जिस आदेशात्मक निर्देश का रवैया अपनाया गया, वह असंतुष्टों को अपमानजनक लगा.
पुरस्कार वितरण समारोह के लगभग 24 घंटे पहले उन्हें जानकारी दी गई कि राष्ट्रपति केवल 11 पुरस्कार प्रदान करेंगे. बाकी पुरस्कार सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी के हाथों प्रदान किया जाएगा. यह आदेश-निर्देश देश के अनेक पुरस्कृत क्रिएटिव दिमागों को नागवार गुजरा. उन्होंने तभी स्पष्ट कर दिया. 19 पुरस्कृतों ने हस्तारक्षरित ज्ञापन भी दिया. कहते हैं निर्णायक मंडल के अध्यक्ष शेखर कपूर फिल्म बिरादरी के असंतुष्टों को समझाने भी गए लेकिन विफल रहे. दरअसल, शेखर कपूर स्वयं ऐसे विरोधाभासों के खिलाफ बोलते रहे हैं इसलिए वे असंतुष्ट फिल्मकारों की भावना समझ रहे थे. उन्होंने अधिक बहस नहीं की. सरकार की तरफ से असंतुष्ट पुरस्कृतों को समझाने की समर्थ कोशिश नहीं हुई. एक तर्क वर्तमान राष्ट्र्पति के प्रोटोकाल का दिया जा रहा है कि वे पुरस्कार आदि इवेंट में एक घंटे से अधिक का समय नहीं दे सकते. अगर ऐसा है तो इसकी जानकारी पुरस्कृतों को पहले ही दी जा सकती थी. पुरस्कृतों ने नेशनल फिल्म अवार्ड का बहिष्कार नहीं किया है. उन्होंने पुरस्कार वितरण समारोह का बहिष्कार किया है.
राष्ट्रपति के प्रोटोकाल या असमर्थता पर मशहूर साउंड रिकार्डिस्ट रसूल पूकुट्टी ने अपना रोष एक ट्वीट में व्यक्त किया, ‘अगर भारत सरकार अपने समय में से हमें 3 घंटे नहीं दे सकती तो उन्हें हमें राष्ट्रीय पुरस्कार देने के बारे में परेशान नहीं होना चाहिए. हमारी मेहनत की कमाई का 50% से ज्यादा आप मनोरंजन टैक्स के रूप में ले लेते हैं. कम से कम आप इतना तो कर ही सकते थे कि हमारे मूल्यों का सम्मान करें.’
भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के अनेक प्रतिनिधि भारत सरकार के इस रवैए से रुष्ट हैं. उन्हें सही मायने में लगता है कि वर्तमान सरकार फिल्मों से संबंधित सभी संस्थाओं के प्रति तदर्थ और चलताऊ दृष्टिकोण रखती है. तभी तो पुणे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट में गजेन्द्र चौहान की बहाली, सेंट्रल फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड के चेयरमैन के रूप में पहलाज निहलानी की नियुक्ति, चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी, एनएफडीसी, इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया और फिल्म्स डिवीजन जैसी संस्थाओं के संचालन और रखरखाव में फेरबदल कर उन्हें शिथिल या ध्वस्त करने का प्रयास जारी है. पिछले चार सालों में फिल्मों से संबंधित किसी आयोजन या इवेंट से यह उम्मीद नहीं बंधी है कि वर्तमान सरकार कुछ बेहतर करने के मूड में है. यथास्थिति भी नहीं रह गई है. सभी संस्थाएं अस्पष्ट नीतियों और फैसलों की वजह से ‘वेंटीलेटर’ के सहारे धड़क रही हैं. सभी को लग रहा है कि नेहरू ने जिन नेक इरादों से इन संस्थाओं को खड़ा किया था उन सभी को तोड़ने और बिगाड़ने का उपक्रम चालू है. इसी का ताजा नमूना है 50 से अधिक फिल्मी हस्तियों द्वारा राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह का बहिष्कार.
विवाद पहले भी हुए हैं लेकिन बहिष्कार की नौबत नहीं आई. राष्ट्रीय पुरस्कार का एक सम्मान है. मुंबई में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से पुरस्कृत फिल्मकारों के घर या दफ्तर की दीवारों पर मेडल, सर्टिफिकेट और प्रशस्ति पत्र टंगे मिलते हैं. राष्ट्रपति के साथ की तस्वीरें घर-दफ्तर की शोभा बढ़ाने के साथ राष्ट्रीय पहचान का एहसास भी देती हैं. इस बार यह सौभाग्य केवल 11 फिल्मी हस्तियों को मिल पाया. बाकी पुरस्कृतों में से मंत्री महोदया के हाथों से सम्मानित हुए व्यक्तियों के यहां स्मृति ईरानी मुस्कुराती मिलेंगी. स्मृति ईरानी के स्वभाव, कार्य और व्यवहार से परिचित एक भाजपाई की राय में सभी पुरस्कारों के लिए राष्ट्रपति की असमर्थता या नामौजूदगी के पीछे स्मृति ईरानी का फैसला हो सकता है. वह निहायत महात्वकांक्षी महिला हैं. भविष्य के लिए वह अपनी छवि पुरस्कृतों के घरों में सुरक्षित करवा लेना चाहती हैं. दीवारों पर टंगने की ख्वाहिश में ही ऐसा गड़बड़ फैसला ले लिया गया. मुमकिन है कि यह सच्चाई न हो लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि स्मृति ईरानी के जिद्दी फैसलों से पूर्व के मंत्रालयों समेत अभी के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में अनेक गड़बडि़यां पैदा हुई हैं.
कोई पूछ रहा था कि बहिष्कार का क्या असर हुआ ? कार्यक्रम तो हो गया. बहिष्कार करने वाले भी बाद में बसों में भर कर मेडल और सर्टिफिकेट लेने गए. उनके अकाउंट में नगद ट्रांसफर हो गया. इन सारी रुटीन गतिविधियों के बावजूद यह स्वीकार करना पड़ेगा कि बहिष्कार ने यह जाहिर किया कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. कोई बेवजह परंपरा और शालीनता भंग कर रहा है और भुक्तभोगियों ने उसका प्रतिकार किया. वे औरों की तरह झुकने और रेंगने के लिए तैयार नहीं हुए. इन प्रतिरोधों की बदौलत ही लोकतांत्रिक मूल्य जिंदा रह पाते हैं. स्वतंत्र और प्रगतिशील समझ के फिल्मकारों ने सरकार के अपमानजनक फैसले का प्रबल विरोध किया. यही इस बहिष्कार की उपलब्धि है.
पहले भी हुए हैं विवाद
नेशनल फिल्म अवार्ड को लेकर पहले भी विवाद हुए हैं. पिछले साल 2017 में ही ‘पीकू’ के लिए अमिताभ बच्चन को मिले पुरस्कार से अनेक हस्तियां असहमत थीं. ज्यूरी को अलग से पुरस्कार देने का औचित्य और तर्क जुटाना पड़ा था. 2001 में ज्यूरी के सदस्य निर्देशक प्रदीप किशन ने दो अन्य सदस्यों के साथ पुरस्कारों की घोषणा से पहले ही इस्तीफा दे दिया था कि पुरस्कार तो पहले से तय हो चुके हैं. उस साल ‘पुकार’ के लिए अनिल कपूर और ‘दमन’ के लिए रवीना टंडन को अभिनय की श्रेष्ठता के पुरस्कार मिले थे. 2003 में प्रकाश झा की अध्यक्षता वाली ज्यूरी ने अजय देवगन को अवार्ड दिया था तो अदूर बोपालाकृष्णनन ने आपत्ति जाहिर की थी. 2005 में 53 वें नेशनल फिल्मन अवार्ड के समय ज्यूरी की सदस्य श्यमली बनर्जी कोर्ट तक गई थीं. उन्हें ‘ब्लैक’ पर आपत्ति थी. उनके अनुसार वह ‘द मिरैकल वर्कर’ का हिंदी रूपांतरण थी. पुरस्कारों के साथ आगे भी विवाद जुड़े रहेंगे. पुन:श्च: प्रकाश झा के सहायक रहे अनिल अजिताभ ने फेसबुक की वाल पर शेयर किया है- राष्ट्रीय फिल्म पुरष्कार की विश्वसनीयता की एक आंखो देखी कथा सुनाता हूँ.
“बात 86-87 की है. विजयदान देथा की कथा पर आधारित एक फिल्म बनी थी. शूटिंग राजस्थान में हुई थी और मैं भी उस फिल्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था. उस फिल्म को बेस्ट कसट्युम डिजायनींग का राष्ट्रीय पुरष्कार मिला था. कलाकारों के जो कपड़े बने थे उस फिल्म के लिये उसे डुंगरपुर, राजस्थान के लोकल दर्ज़ी ने बनाये थे. जब फिल्म बन कर तैयार हुई तो यह सवाल उठा की कसट्युम डिजायनींग में किसका नाम दिया जाय. तय यह हुआ कि जो कपड़े ख़रीदने गया था और जिसने दर्ज़ी से कपड़े लाने ले जाने का काम किया है उसका नाम दे दो. इस तरह एक प्रोडक्शन मैनेजर को बेस्ट कसट्युम डिज़ायनर का राष्ट्रीय पुरष्कार मिला.”
अत: राष्ट्रीय पुरष्कार को सिनेमा की उत्तमता से जोड कर मत देखिये. यह एक सरकारी प्रक्रिया है जो सिनेमा और कला के नाम पर अपने बुद्धिजीवी तबके का कृत्रिम पुतले तैयार करता है.
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