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रेप और पोर्न

लगातार बढ़ती रेप की संख्या, लगातार बढ़ती उनकी वीभत्सता, लगातार घटती रेपिस्ट और रेप पीड़ित की उम्र… और ज़ेहन में सवाल: कहां से आ रही है हमारी मानसकिता में यह विकृति? समाज को स्वस्थ्य रखने के लिए हमारी कोशिशें मसलन सेंसर आदि आज के समय में किसी चुटकुले, वह भी अश्लील, की तरह हैं. आईटी क़ानून और उसकी तमाम धाराओं और आपकी नेक सोच का, यदि रत्ती भर भी असर पड़ता होता तो क्या रेप की इन अनजानी घटनाओं का जन्म होता? नहीं! सॉरी, लेकिन न तो आपको ज़मीनी हकीक़त का आभास है और न जिन्हें इसका पता है उन्होंने अभी तक कोई ऐसा कदम उठाया है, जिनसे रेप रुके और रेप की नयी परिभाषाओं का जन्म न हो.

फिल्मों के सेंसर पर हो रही बहसों, पद्मावत जैसी फिल्मों पर हो रही राजनीतियों, तम्बाकू से होने वाले कैंसर के विज्ञापनों से समाज को जो ज्ञान दिया जाता दिखता है, ठीक उसके साथ-ही ‘वह दुनिया’ भी मौजूद है, जहां इस ज्ञान के साथ वह हो रहा है, जो रेप की ‘उस मानसिकता’ को जन्म दे रहा है, जिसकी ख़बर सुनने भर से हमारा जी दहलने लगता है.

यदि भारत में मैथुन से जुड़ी क्रियाओं की बात की जाए और बीते दो दशक से पहले का दृश्य सोचा जाए, कमोबेश हमें सेक्स से जुड़ी वही बातें दिख पड़ती हैं, जो हमारे इतिहास, खजुराओ आदि, में दर्ज हैं, वह चाहे गुदा से सम्बंधित हो या मुख से. मगर यह दृश्य बदलता है, जिसकी शुरूआत सेक्स से जुड़ी उन जानकारियों, प्रयोगों आदि से होता है जो भारत के बाहर से आती हैं और सेंसर की पहुंच से परे, विडियो कैसेट के ज़रिये समाज में प्रवेश करती हैं.

इनमें जो सेक्स दिख रहा है वह हमारे तरीके का कतई नहीं है. और यह हमारे सेंसर के नियमों में तो दूर-दूर तक कहीं-भी फिट नहीं होता. खुलापन हमें नयी जानकारियां देता है, हम नए-नए समाजों, और उसके तौर-तरीकों से रूबरू होते हैं, और बहुत कुछ नया सीखते हैं; इसका पक्षधर होना, हमारे अपने विकास के लिए तो ज़रूरी है ही समाज और देश को भी यह आगे बढ़ाता है. और हम क्योंकि समझदार हैं, इसलिए, जानते हैं कि नयी चीज़ को अपनाने से पहले जांचना ज़रूरी है, और हम ऐसा करते भी हैं.

इससे पहले कि हम वापस उस विषय पर आयें जहां सेक्स से जुड़ी नयी बातों की हम तक पहुंच सुलभ होना शुरू हो रही हैं, 70-80 के दशक का एक दृश्य देखिये— सड़क के किनारे किसी ठेले पर, या रेलवे स्टेशन पर, किताबें बिक रही हैं. वहां, 2-4 लोगों के बीच एक किशोर जिसकी उम्र 12 से 16 के बीच होगी, वह भी किताबों को उलटपलट रहा है. उसके हाथ की पहुंच से ज़रा-सी दूर, कुछ किताबें पीली पन्नी में लिपटी रखी हुई हैं. वह औरों से नज़रें बचाता हुआ उन्हें निहार रहा है. उसकी बहुत इच्छा है उन किताबों को खरीदने की, लेकिन दुकानदार से कह सकने की हिम्मत वह नहीं जुटा पाता.

एक दृश्य और देखिये— एक बच्चा मोबाईल से खेल रहा है. एक किशोर अपने मोबाईल पर गूगल कर रहा है. इनमें से किसी को भी अगर पीली पन्नी वाली किताब चाहिए तो उसे किसी-से कुछ मांगने की ज़रुरत नहीं पड़ती. ऐसी लाखों सजीव किताबें: हार्डकोर पोर्नोग्राफी, थैंक्स टू फ्री-डाटा, मोबाईल पर उपलब्ध हैं.

इन दोनों ही दृश्यों में अभिभावक अनभिज्ञ ही बना हुआ है. वह तब भी अनभिज्ञ था, जब आपने उस पीली पन्नी को खोला था और वह आज भी अनभिज्ञ है जब कोई बच्चा अपने मोबाईल पर पोर्न साईट खोलता है! सवाल यह है कि क्या आप इस अनभिज्ञता के पक्ष में हैं? सवाल यह है कि क्या आपको पता है कि उस पीली-पन्नी वाली किताब के अन्दर क्या है और ये पोर्न साईट क्या दिखा रही हैं? सवाल यह है कि क्या आपको इनके होने से दिक्कत है?

या अनभिज्ञता आज जिन खौफ़नाक दृश्यों में बदल रही है उनका आपको कुछ अंदाज़ा, रेप में होने वाली दरिंदगी से कैसे लग सकता है, समझिये: इन पोर्न वेबसाइटों की पहुंच उतनी ही आसान है जितना गूगल का सर्च. और एक बार इनमें प्रवेश किये जाने के बाद जो पोर्न नज़र आता है, उसकी आप ‘कल्पना नहीं कर सकते’.

फर्ज कीजिये बीस वर्ष पहले यदि आप किसी ‘ए’ सर्टिफिकेट फिल्म को देखने जा रहे होते तो क्या अपनी अवयस्क संतान को साथ ले जाते? बिलकुल नहीं, क्योंकि आप समझदार हैं, और जब आप जानते हैं कि अवयस्क-मस्तिष्क इतना परिपक्व नहीं होता कि फिल्म के दृश्यों को मात्र कल्पना समझे, वह उन्हें वह असलियत समझने की गलती भी कर सकता है, वह उन्हें किये जाने योग्य मान कर दोहरा सकता है. लेकिन अब आप क्या करेंगे, जब ‘ए’ सर्टिफिकेट से हजारों डिग्री ऊपर की फ़िल्में सहजता से उपलब्ध हैं. और उनमें होने वाले कृत्यों को देखने के बाद, यदि किसी किशोर के जेहन में, उन्हें दोहराने की इच्छा ज़ोर मारने लगती है, तब आप दोष किसे देंगे?

इन कुत्सित कृत्यों को देखते-देखते यदि कोई बच्चा (या युवा, या प्रौढ़) परवर्ट हो जाता है, जिसकी पूरी सम्भावना है, दोष किसे दिया जाएगा? क्योंकि चिराग तले तो अंधेरा ही होता है इसलिए आप दोषी को नहीं देख पाएंगे. मगर यह जान लीजिये कि उस किशोर ने अब उन कृत्यों को दोहराना शुरू कर दिया है और वह बच्चा (या युवा, या प्रौढ़) परवर्ट में बदल चुका है.

• तसलीमा नसरीन रेप और उसमें बढ़ती हिंसा का जिम्मेवार हिंसक, मर्दानी, स्त्रीविरोधी पितृसत्ता को मानती हैं, अधिकतर पोर्न को स्वस्थ मानते हुए वह उन वेबसाईटों के खिलाफ़ हैं जो रेप के नाम पर अपनी दुकान चला रही हैं. कम उम्र से ही लड़कों के दिमाग में इस बात को बैठाया जाना कि वह स्त्री से ऊंचा है, रेप की बढ़ती घटनाओं और स्त्री पर होने वाले अत्याचारों का बड़ा कारण है. तसलीमा का कहना है, “आप बच्चे को ‘स्त्री का सम्मान कीजिए’ जैसी बातें समझाना बंद कीजिये और सिर्फ उसके दिमाग में भरे ‘मैं पुरुष, स्त्री से ऊंचा हूं’ जैसे ख़्याल को बाहर निकालिए,” परिवर्तन इससे आएगा.

• देश के जाने माने सेक्सोलॉजिस्ट डॉ. प्रकाश कोठारी का मानना है कि पोर्नोग्राफी एक दोधारी तलवार है, अगर वह किसी सर्जन के हाथ में होगी तो जान बचा सकती है लेकिन यदि वह किसी खूनी, विकृत मानसिकता वाले के हाथ पड़ती है, वही होगा जो दिखाई दे रहा है. सेक्स एजुकेशन पर जोर देते हुए उन्होंने कहा, “पोर्न जैसी चीज़ें देखने वाले में सनसनी तो पैदा करती ही हैं अब यदि देखने वाले का दिमाग वयस्क है, उसे सेक्स से जुड़े सच और झूठ का पता है, तो वह इसका आनंद उठाता है, लेकिन यदि उसकी सोच परिपक्व नहीं है, वह मेरी सलाहों को नहीं पढ़ता है, और पोर्न देखने से बढ़े जोश को हस्तमैथुन से जुड़ी भ्रान्ति के चलते कम भी नहीं करता, ऐसे में उसके जोश को कम करने का एक तरीका रेप के रूप में भी सामने आता है.”

• कविता कृष्णन का पोर्न को रेप का ज़िम्मेदार नहीं मानते हुए, कहती हैं, “सहमती! यदि हम अपने पितृसत्तात्मक समाज के पुरुषों को स्त्री की सहमति का मूल्य समझा सकें तब रेप कि घटनाओं पर नियंत्रण पाना संभव हो पायेगा.” कविता रेप की घटनाओं में नज़दीकी लोगों के शामिल होने का जिम्मेदार भी, स्त्री के सम्मान से अपरिचित उस पुरुषवादी सोच को मानती हैं जिसमें ‘सहमति’ का कोई स्थान नहीं होता. दूसरे शब्दों में पुरुष यह मान रहा होता है– (महिला के कपड़ों, आदतों, संबंधों, बातों आदि से) कि स्त्री की सहमति है. और ऐसे में शारीरिक सम्बन्ध पारस्परिक कैसे हो सकते हैं. रेप होते हैं.

• दिल्ली पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने पोर्न और रेप के सम्बन्ध को स्वीकारते हुए, एक ऐसी व्यवस्था लाये जाने का सुझाव दिया जिसमें पोर्न देखने के लिए उम्र का पैमाना लागू हो. उन्होंने एक चौकाने वाली बात यह बतायी कि रेप करने वाले को इस बात का विश्वास होता है कि रेप का पता नहीं चलेगा. उनकी समझ में पोर्न नजदीकी संबंधों में होने वाले रेप की ज़मीन तैयार करने में शामिल होता है.

दरअसल इंटरनेट की जिस दुनिया में हम बसर कर रहे होते हैं: गूगल हमारी हर खोज के समाधानों को सामने रख देता है. इसी दुनिया का बड़ा हिस्सा, शायद हमारी दुनिया से बहुत बड़ा, पोर्न है. वैसे तो हमारे क़ानून में पोर्न दिखाना जुर्म है, लेकिन यह इतना बड़ा व्यापार है कि इसे चलाने वाले लोग, इनके सर्वर जिनमें यह सब, फिल्म आदि स्टोर होती है, उसे वह भारत में रखते ही नहीं, वह स्पेस ऐसे देशों में लेते हैं, जहां पोर्न बैन नहीं है.

प्रतिबंध इलाज नहीं होता, और इसी सोच को केंद्र में रखते हुए भारत में पोर्न के खिलाफ कानून बने हैं. इसी परिपक्वता को सेंसर बोर्ड अपना पैमाना बनाता है. लेकिन जिस स्थिति और देश की यहां बात चल रही है, उसकी तुलना पश्चिमी देशों से किये जाने पर शिक्षा का स्तर, स्त्री का समाज में स्थान, और परिपक्वता में एक बड़ा अंतर दिखता है. यह अंतर जब तक दूर नहीं होता, तब तक तो नियंत्रण ज़रूरी है.

मगर असली मुद्दा तो यह है कि कानूनों, प्रतिबंधों इन सब की धता उतारते हुए, पोर्न अपने धृष्टतम रूप में, इंटरनेट के ज़रिये, हर मोबाईल धारक की आसान पहुंच में है.

वापस पोर्न और रेप के संबंधों की पड़ताल करते हैं. बीते दिनों, दुनिया की टॉप पोर्न साईट पर आसिफा नाम, सबसे अधिक सर्च किये जाने वाले नामों में ट्रेंड कर रहा था. अब यह कोई गूगल तो था नहीं कि लोग वहां आसिफा के बारे में जानकारी तलाश रहे हों, और इसलिए नाम ट्रेंड करने लगे. मतलब हमारे सामने, हमसे ही बने समाज की- आसिफा का नाम पोर्नसाईट पर सबसे अधिक तलाश किये जाने से- वह तस्वीर निकल कर आ रही है जो यह दिखा रही है कि आपकी विकृत मानसिकता आपको उस साईट पर इसलिए ले कर गयी क्योंकि आप उस बच्ची के रेप का वीडियो देखना चाहते थे.

मतलब आप को ऐसा पोर्न पसंद है जिसमें एक बच्ची, एक स्त्री के साथ बलात्कार होता हो. साधारण मानसिकता में यह विकृति फ़िल्मी पर्दे पर सेंसर की कांट-छांट के बाद दिखाए जाने वाले रेप से पैदा हुई मगर आम जन उस सोच को असली रेप, असली पीड़ा, और असली पीड़िता देखना पसंद आ रहा हो तब आप उसकी मानसिकता को क्या कहेंगे और आप ही यह भी बताइए: ऐसी सोच यदि किसी किशोर के ज़ेहन में स्थान बना ले जहां उसे इसके बुरे होने का इल्म तक न छूटे, तब वह किशोर क्या करेगा?

हालांकि यह सब लिखते हुए, इसमें शामिल होने के लिए, राजनीति बार-बार मेरे ज़ेहन पर टक्कर मार रही है मगर मुंबई से आया सरोज ख़ान का बयान, दिल्ली से आया रेणुका चौधरी का बयान और देश के अन्दर और बाहर देश की राजनीति ने रेप पर जितनी अमानवीय टिप्पणियां की हैं, उससे यह सीख नहीं लेना, मूर्खता होगी कि समाज में बढ़ती इस विकृति को ख़त्म करना हमारी अपनी जिम्मेदारी है. और प्रत्येक पुरुष के लिए, स्त्री की सहमति के होने और उस सहमति के अर्थ और दोनों के मूल्यों की अनिवार्यता का समझ जाना, अनिवार्य होना पड़ेगा.