Newslaundry Hindi
प्रसून जोशी: “मोदी अपनी काबिलियत से ऊपर चढ़ रहा है”
यूथ की नजर में आप एक ऐसे कामयाब आदमी हैं जो क्रिएटिव और संवेदनशील भी हैं. आमतौर पर क्रिएटिव और जज्बाती लोगों को इतनी आसानी से कामयाबी नहीं मिलती। आपको कैसे मिल गई?
कामयाबी का मतलब क्या है पहले तो यही तय कर पाना मुश्किल है। दूसरों को लिए जो कामयाबी है वह मेरे लिए कुछ और भी हो सकता है…
यहां गरज आत्मसंतोष या जीवन की सार्थकता जैसी लुकाछिपी खेलने वाली चीजों से नहीं है. कैरियर, मोटी सैलरी, ग्लैमर और फेम से है जिनसेसफल आदमी को झट से पहचान लिया जाता है…
मैं बता नहीं सकता. इतना कह सकते हैं कि मैं अपनी कमजोरियों और स्ट्रांग प्वाइंटस को अच्छी तरह जानता हूं. किसी मुगालते या इल्यूजन में नहीं जीता. अपनी कमजोरियों पर काम करता हूं. मैने देखा है ज्यादातर लोग गलतफहमी के शिकार हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है. ऐसा एहसास मुझे भी होता है कई बार. बेसिकली मैं एक लेखक हूं और लेखन का स्वर हमारे समाज में बहुत धीमा है. लेखक को उसकी मेहनत का हासिल अक्सर नहीं मिलता. ऐसे में इस एहसास का शिकार हो जाना लाजिमी है. फिर भी कामयाबी के लिए यर्थाथवादी होना ही पड़ता है.
हमारे समाज में लिखने की इतनी बेकदरी क्यों है?
वाकई यह चिंता का विषय है. जिनके पास पैसा हो अखबार, चैनल खोलकर बैठ जाते हैं लेकिन उसमें कुछ देना या दिखाना है इस पर लगभग नहीं सोचते हैं. कंटेन्ट को दाल-भात जितनी भी अहमियत नहीं देते. यह हमारे समाज के ह्रास को दिखाता है. शायद पाठक और दर्शक को कंटेन्ट की तलाश ही नहीं है. जब तक पाठक अच्छी चीज की मांग नहीं करेगा, उसके लिए जिद नहीं करेगा, नहीं मिलेगी. मैने “भाग मिल्खा भाग” किसी के लिए नहीं लिखी. किसी ने पैसा नहीं दिया. यह सेल्फ मोटिवेशन का नतीजा है. इसे लिखने में ढाई साल का वक्त लगा. कहने में कोई हिचक नहीं है कि अगर मैं नौकरी नहीं कर रहा होता तो यह फिल्म नहीं लिख पाता. जो भी अच्छा कटेन्ट है वह लेखक अपनी जिद के कारण बना रहे हैं. मेरे लिखने की शुरूआत कविता से हुई थी. मुझे बहुत पहले लग गया था कि कविता मुझे नहीं पाल पाएगी. मुझे ही कविता को पालना होगा क्योंकि वह मेरे जीवन को अर्थ देती है.
बॉलीवुड में और बाहर लेखक की क्या हालत है?
एक बार हाथ से स्क्रिप्ट निकल जाने के बाद लेखक बेचारा होता है. अगर कोई जरा हेर फेर कर उसका दुरूपयोग कर ले, बहुत कम पैसे दे या न दे तो भी कुछ नहीं कर पाता. कई बड़े डाइरेक्टर और फिल्म मेकरों ने मुझे महंगे उपहार वगैरह देकर लिखवाने की कोशिश की लेकिन मैंने साफ मना कर दिया. मैंने कहा, कांट्रैक्ट साइन करो, वरना आपको विदेशी फिल्मों के वीडियो देखकर नकल ही बनानी पड़ेगी. असली माल नहीं मिलेगा. मैंने उनसे कहा भी आप चाहे तो मुफ्त में लिख दूंगा लेकिन ये कांट्रैक्ट साइन करना पड़ेगा. इससे यह होगा कि आगे जो लेखक आएंगे उनके साथ भी कांट्रैक्ट साइन करना पड़ेगा. खुद लेखक को असर्ट करना होगा. जब तक वह ब्रांड नहीं बनेगा, लोग उसे तलाशेंगे नहीं, बात नहीं बनने वाली.
क्या आपको भी घोस्ट राइटिंग करनी पड़ी. मतलब यह कि गीत आपका था नाम किसी और का गया, आपको कुछ पैसे टिका दिए गए?
मैं विज्ञापन जगत का शुक्रगुजार हूं जिसने मुझे सम्मानजनक लिविंग दी. जिस कंपनी की नौकरी करता था पहले उसने मुंबई में घर दिया तब वहां गया. मैंने छोटे कस्बों में बहुत वक्त गुजारा है. बहुत असुरक्षा में रहा. मैने हमेशा अपने लिखे की वाजिब कीमत के लिए स्टैंड लिया. सत्रह साल में मेरी कविता की पहली किताब “मैं और वह” आई थी. मां बाप के समझाने से पहले ही मैं जान गया था कि इससे जीविकोपार्जन नहीं हो सकता. मेरे अंदर पैरे्न्टस के खिलाफ विद्रोह नहीं था. हमारे देश में पैरेन्टस बच्चे के लिए इतना कुछ करते हैं कि उनसे लड़ा नहीं जा सकता. मैं घर से उस तरह गिटार लेकर नहीं निकला जिस तरह फिल्मों में दिखाया जाता है.
आप विज्ञापन की दुनिया को इन एंड आउट समझते हैं. कहा जाता है कि विज्ञापन के जरिए उन चीजों की लालसा को हवा दी जा रही है जिनकी जरूरत वास्तव में भारतीय समाज को नहीं है. आदमी को सारे सरोकारों से काट कर एक आत्मकेन्द्रित उपभोक्ता में बदला जा रहा है. क्या कहते हैं?
इस चिंता को मैं समझता हूं लेकिन इसके लिए विज्ञापन को कोने में खड़ा कर संटी से मारा जाए यह बहुत ज्यादती है. यह सब विकास के एक मॉडल का हिस्सा है. हम अमेरिका मॉडल को फालो कर रहे हैं. जब कंपनियां प्रोडक्ट बनाएंगी तो बेचने के तरीके भी खोजेंगी. विज्ञापन में महिमा मंडन बात कहने का एक तरीका भर है. हमारे यहां तो लोग कहते हैं- मेरी दादी की आंखें इतनी तेज थी कि चांदनी रात में सुई में धागा डाल देती थीं. मैंने तो आजतक ऐसी कोई दादी देखी नहीं. मैं कहूंगा कि विज्ञापन ज्यादा ईमानदार और पारदर्शी होते हैं. वे अपनी मंशा पहले बता देते हैं. यहां तो पेड न्यूज के नाम पर मीडिया की विश्वसनीयता बेची जा रही है. सोचना चाहिए जिन चीजों के विज्ञापन आते हैं उन्हें बनाता कौन है. उन्हें बनाने वाले उद्योगों को प्रमोट कौन करता है. अंतत: यह अर्थव्यवस्था और नीतियों का मामला है. विकास का यह मॉडल ही लालसा का मॉडल है.
इन दिनों गिरता रूपया कैसा लग रहा है?
बुरा लग रहा है. मैं दुनिया की सबसे बड़ी विज्ञापन कंपनी मैकेन में सीईओ हूं. विदेश बहुत जाता हूं वहां रूपए की बात होती है तो मेरे भीतर के राष्ट्रवादी को कचोट लगती है. अमेरिका में कल्चर पर बात नहीं होती, वहां इकॉनमी ही प्रमुख कन्सर्न है. भारत की ढीली होती हालत के जिक्र से तकलीफ होती है.
पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है? कोई न कोई राजनीति तो होगी ही…
अभी तो संवेदना ही मेरी पॉलिटिक्स है. हालांकि यह शब्द बहुत गंदा हो चुका है. मेरा लिखा लोगों के किसी काम का साबित हो सकता है तो मेरी कामयाबी है. कविता, गीत, भाग मिल्खा भाग जैसी इन्सपिरेशनल फिल्म किसी भी रूप में लोगों के काम आना चाहता हूं.
इन दिनों पॉलिटिक्स में सबसे तेज ऊपर चढ़ती चीज का नाम नरेंद्र मोदी है. आपका क्या नजरिया है?
अपनी काबिलियत से चढ़ रहा है जिसे देखकर ऊर्जा ही मिलती है. कोई जरूरी नहीं कि मुझे उनकी सारी बाते सही लगें लेकिन विकास और गवर्नेन्स के प्रति मोदी का रूख मुझे ठीक लगता है. उनकी सारी नीतियों से सहमत नहीं हूं.
आपसे पहले मुंबई से होकर उसी अल्मोड़े के एक जोशी गुजरे हैं जहां के आप रहने वाले हैं. कभी मुलाकात हुई?
मनोहर श्याम जोशी…हमारी पहाड़ की छोटी सी कम्युनिटी है. कहीं न कहीं हम लोग मिल ही जाते हैं. उनसे रामपुर अपने किसी रिलेटिव के यहां शादी में एक बार मिला था. अच्छे राइटर थे पहाड़ के समाज का अच्छा चित्रण किया. उन्होंने टेलीविजन के लिए हम लोग और बुनियाद जैसा जो काम किया वह मील का पत्थर है. उस तरह का कंटेन्ट आसानी से नहीं बनता.
आप हिन्दी के समकालीन लेखकों को पढ़ते हैं? हिन्दी साहित्य का मौजूदा परिदृश्य कैसा लगता है?
मुझे लगता है कि दो साल की छुट्टी लेकर हिन्दी के सभी प्रमुख लेखकों को पढ़ना चाहिए लेकिन अभी ऐसा हो नही पा रहा है. हिन्दी दुनिया भर के प्रभावों के कारण बदल रही है. बदलना अनिवार्यता है. हठधर्मिता नहीं होनी चाहिए कि ऐसी ही हिन्दी लिखी जाएगी. बेसिक स्ट्रक्चर और ग्रामर के साथ इतनी लचक भी होनी चाहिए कि भाषा जिन्दा रहे नए प्रयोगों की गुंजाइश बची रहे. अतत: बोलने वालों की सामूहिक चेतना ही तय करेगी कि कोई भाषा कल कैसी होगी.
ये हिन्दी का औसत लेखक इतना फटेहाल कयों है?
पाठक ही नहीं हैं. सिर्फ लेखन करने वाले लेखक हिन्दी में जिंदा नहीं रह सकते. ज्यादातर लेखकों ने आजीविका के लिए नौकरी करते हुए लिखा. साहित्य लोगों को अच्छा लगता है लेकिन वे उसे हवा पानी की तरह फ्री चाहते हैं. उसकी कीमत नहीं देना चाहते. लोगों को कीमत देना सीखना चाहिए. और तो और हमारा मीडिया भी अच्छी चीजों की चिंता नहीं करता. कोई अच्छी फिल्म आती है तो उसके लेखक के बारे कोई पत्रकार नहीं जानना चाहता. वह तो बस किसी तरह हीरोइन या हीरो से मिलना चाहता है और काम तमाम हो जाता है.
आपने जरूर इस पर सोचा होगा…ये पाठक, दर्शक उर्फ आम आदमी चाहता क्या है?
भूखे भजन न होई गोपाला एक सही बात है. जब जीवन की बेसिक जरूरतें पूरी हो जाती है तब साहित्य, कला वगैरा का नंबर आता है. लेकिन इसी ये समाज तेजी से बदल रहा है. अब बच्चों के कमरों में विवेकानंद की फोटो नहीं मिलती. कैसे भी जल्दी से अमीर हो जाने वाले लोग उनके आदर्श बन रहे हैं.
Also Read
-
Adani met YS Jagan in 2021, promised bribe of $200 million, says SEC
-
Pixel 9 Pro XL Review: If it ain’t broke, why fix it?
-
What’s Your Ism? Kalpana Sharma on feminism, Dharavi, Himmat magazine
-
मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग ने वापस लिया पत्रकार प्रोत्साहन योजना
-
The Indian solar deals embroiled in US indictment against Adani group