Newslaundry Hindi
देवदास से दास देव के बीच सदी भर का सफर
लंबे अंतराल के बाद प्रख्यात फिल्मकार सुधीर मिश्रा अपनी फिल्म ‘दास देव’ के साथ 20 अप्रैल को आ रहे हैं. बांग्ला साहित्यकार शरत चंद्र की बेहद प्रसिद्ध कृति ‘देवदास’ पर कई फिल्में बन चुकी हैं. उनमें से अनेक ने इस उपन्यास और उसकी कथा में नये तत्व जोड़े हैं. मिश्रा की फिल्म एक लिहाज से उसी कड़ी में है क्योंकि सभी मुख्य किरदार उपन्यास से हैं, पर कहानी हमारे मौजूदा वक्त की है.
उत्तर प्रदेश की राजनीतिक हलचलों की पृष्ठभूमि में किरदार नये तेवर में हमारे सामने होंगे. मिश्रा और जयदीप सरकार के स्क्रीनप्ले में रोमांस पर राजनीति हावी है, और इस लिहाज से कथा का स्वरूप बिल्कुल अलहदा होने की पूरी गुंजाइश है. इसमें शेक्सपियर के नाटक ‘हैमलेट’ ने भी घुसपैठ की है. खुद निर्देशक का कहना है कि यह फिल्म देवदास की पुनर्कल्पना है.
बहरहाल, ‘दास देव’ के बहाने शरत बाबू के उपन्यास की सिनेमाई यात्रा पर नजर डालना दिलचस्प हो सकता है.
प्रथमेश चंद्र बरुआ के ‘देवदास’ के सेट पर शरत चंद्र चट्टोपाध्याय कुंदन लाल सहगल के अभिनय से अचंभित थे. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे एक पंजाबी उनके बंगाली किरदार को इस तरह से जी रहा था.
बरुआ खुद फिल्म के बांग्ला संस्करण में देवदास की भूमिका कर चुके थे और अब उसे हिंदी में बना रहे थे. यह 1935 की बात है. अब तक विभिन्न भाषाओं में देवदास के कम-से-कम 15 संस्करण बन चुके हैं. पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी देवदास पर फिल्में बन चुकी हैं. इस संख्या में वे फिल्में शुमार नहीं है जो देवदास के चरित्र और कथानक से काफी हद तक प्रभावित हैं.
दुर्भाग्य से बांग्ला ‘देबदाश’ के सारे प्रिंट न्यू थियेटर्स कंपनी में लगी आग में भस्म हो गये थे. अब सिर्फ एक प्रिंट बचा है, जो बांग्लादेश में है और उसका भी लगभग आधा हिस्सा बरबाद हो चुका है. बचे हुए हिस्से की हालत भी ठीक नहीं.
खैर, बरुआ द्वारा निर्देशित हिंदी का ‘देवदास’ है और इस फिल्म के फोटोग्राफर बिमल रॉय द्वारा निर्देशित देवदास (1955) तो है ही. बरुआ से पहले मूक फिल्मों के जमाने में भी एक देवदास बन चुकी थी. ईस्टर्न फिल्म सिंडीकेट के बैनर तले नरेश चंद्र मित्र ने 1928 में इसे निर्देशित किया था और खुद ही देवदास की भूमिका निभायी थी. इस के फोटोग्राफर थे नितिन बोस जो बरुआ के बांग्ला ‘देबदाश’ के फोटोग्राफरों में भी शामिल थे.
बरुआ की देवदास ने दरअसल न्यू थियेटर्स को एक ब्रांड के रूप में स्थापित किया था. इसकी भारी सफलता के पीछे एक बड़ा कारण था कि बंगाली दर्शक पहले से ही शरत चंद्र के उपन्यास से बखूबी परिचित थे और बरुआ ने उस साहित्य के साथ पूरी ईमानदारी बरती थी. ‘देवदास’ इसलिए भी लोगों को आकर्षित कर रहा था क्योंकि इसमें भारतीय आधुनिकता के विरोधाभास खुल कर सामने आये हैं और नायक उनको सुलझाने में नाकामयाब रहता है और अंततः ख़ुद को बरबाद कर लेता है.
देवदास की कथा, उस पर बनी फिल्मों और विभिन्न चरित्रों पर विद्वानों ने खूब कागज रंगे हैं. फिलहाल सिर्फ परदे पर देवदास की चर्चा. फिल्म देखने के बाद बरुआ से शरत बाबू ने कहा था कि वह देवदास लिखने के लिये ही पैदा हुए थे और बरुआ उसे परदे पर उतारने के लिये. बांग्ला संस्करण में सहगल ने चंद्रमुखी के कोठे पर हारमोनियम बजाने वाले की भूमिका निभायी थी. तिमिर बरन के संगीत में सहगल ने बांग्ला में दो गाने भी गाये थे. ‘देवदास’ ने बरुआ, सहगल और न्यू थियेटर्स को भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमर कर दिया.
न्यू थियेटर्स ने 1936 में देवदास का तमिल संस्करण बनाया जिसे पीवी राव ने निर्देशित किया था और खुद ही देवदास की केंद्रीय भूमिका निभायी थी. इस फिल्म में सहगल ने चंद्रमुखी के कोठे पर गानेवाले की भूमिका की थी और दो गाने भी गाये थे. वी राघवैया ने 1953 देवदास को तमिल और तेलगु भाषाओं में बनाया. ए नागेश्वर राव ने इनमें देवदास, के सावित्री ने पारो और ललिता ने चंद्रमुखी के किरदार को परदे पर उतरा था.
बिमल रॉय ने 1955 में बरुआ और सहगल को श्रद्धांजलि देते हुए देवदास बनायी. दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन, मोतीलाल और वैजयंतीमाला ने इस कथा के सफर को नयी ऊंचाई दी. वर्ष 1974 में ‘देवदास’ एक बार फिर तेलुगु में आई. कृष्ण, विजय निर्मला, जयंती के अभिनय वाली इस फिल्म को निर्देशित किया था विजय निर्मला ने, जिन्होंने पारो की भूमिका भी की थी. इसे प्रतियोगिता देने के लिये 1953 वाले संस्करण को पुनः प्रदर्शित कर दिया गया, जिसे नयी वाली से अधिक सफलता मिली.
साल 1978 में तेलुगु में फिर दासारी नारायण राव ने बनाई जिसमें देवदास का पुनर्जन्म होता है. इसमें पारो बूढ़ी हो चली थी. मलयालम में इसी साल मणि ने नागवल्ली को लेकर कथा को परदे पर उतरा. ‘देवदास’ एक बार फिर बांग्ला में 1979 में बनी. दिलीप रॉय के निर्देशन में मुख्य भूमिकाएं सौमित्र चटर्जी, सुमित्रा मुखर्जी और सुप्रिया चौधरी ने की थीं.
साल 1982 में तमिल ‘देवदास’ आयी जिसमें मुख्य भूमिकाएं कमल हासन, श्रीदेवी और श्रीप्रिया ने निभायी. बांग्ला में 2002 में एक और देवदास बनी. शक्ति सामंता के निर्देशन में प्रसेनजित चटर्जी, अर्पिता पाल और इंद्राणी हलदर ने क्रमशः देवदास, पारो और चंद्रमुखी की भूमिकाएं की थीं. और, हिंदी में संजय लीला भंसाली (2002 ) और अनुराग कश्यप (2009) ने देवदास की कहानी को फिर से कहा.
भोजपुरी में 2011 में किरण कांत वर्मा देवदास को लेकर आये. कई हिंदी फिल्मों पर इस कहानी का या कम-से-कम देवदास की छाप रही- फिर सुबह होगी, प्यासा, कागज के फूल, अमर प्रेम, शराबी, मुकद्दर का सिकंदर, प्रेमरोग आदि.
देवदास के सारे संस्करणों में कथानक लगभग एक जैसा है लेकिन निर्देशकों-अभिनेताओं की अपनी क्षमताओं ने हर फिल्म में कुछ जोड़ा है. अनुराग के ‘देव डी’ में तो कथानक अपने परिवेश और परिस्थितियों से अलहदा हमारे आज के दौर में घटित होता है. किसी समाजशास्त्री ने कभी टिप्पणी की थी कि हर हिंदुस्तानी के भीतर एक देवदास या पारो या चंद्रमुखी बसते हैं. शायद इस बयान में शरत बाबू के उस अचरज का जवाब है, जो उन्हें सहगल की अदाकारी को देखकर हुआ था.
जो चरित्र सुधीर मिश्रा के संस्करण में परदे पर देवदास के चरित्रों को जियेंगे, उनका हिसाब तो देखने के बाद ही होगा, लेकिन इतना तो तय है कि एक बार फिर हम उन किरदारों के बीच होंगे, जो बहुत आम होते हुए भी बेहद खास हैं.
Also Read
-
TV Newsance 253: A meeting with News18’s Bhaiyaji, News24’s Rajeev Ranjan in Lucknow
-
Uttarakhand: Forests across 1,500 hectares burned in a year. Were fire lines drawn to prevent it?
-
Know Your Turncoats, Part 15: NDA has 53% defectors in phase 5; 2 in Shinde camp after ED whip
-
Reporters Without Orders Ep 322: Bansuri Swaraj’s debut, Sambhal violence
-
In Delhi, why are BJP workers ‘helping’ EC officials with election work?