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हैशटैग के छापामार योद्धाओं का दौर

कुछ सवाल हमेशा मौजूद थे. लेकिन उन पर पब्लिक में चर्चा कम होती थी. और उन सवालों पर सड़कों पर उतरना तो और भी कम था. मसलन, क्या लड़कियों को देर रात तक सड़कों पर या सार्वजनिक स्थानों पर होना चाहिए, या क्या महिलाओं के लिए लिपी-पुती होना ही उसके स्त्री होने की निशानी है? क्या महिलाओं को बिना मेकअप के भी रहना चाहिए और ऐसी तस्वीरों को शेयर करना चाहिए? क्या सैनिटरी पैड और मासिक रक्तस्राव पर सबके बीच बातचीत हो सकती है? क्या अपने खून लगे सैनिटरी पैड को सबको दिखाया जा सकता है?

या किसी ने अगर किसी दौर में आगे बढ़ने के क्रम में यौन शोषण झेला है, तो क्या वर्षों बाद उन घटनाओं को सबके सामने लाया जा सकता है? या कि क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को एससी-एसटी एक्ट में बदलाव के खिलाफ सड़कों पर उतरकर आंदोलन करना चाहिए?

कुछ साल पहले तक इन सवालों का जवाब होता- नहीं, यह मुमकिन नहीं है. इन पर चर्चा होना और वह भी सार्वजनिक स्पेस में, बेहद दुर्लभ घटना होती थी और इन सवालों पर महिलाओं या वंचितों के सड़कों पर आने की तो कल्पना भी मुश्किल थी.

लेकिन अब यह होने लगा है. मिसाल के तौर पर, गुड़गांव की एक महिला गीता यथार्थ सोशल मीडिया के कुछ दोस्तों के साथ बातचीत के बाद तय करती हैं कि मेरी रात मेरी सड़क नाम का हैशटैग शुरू किया जाए और उस हैशटैग के तहत दोस्तों के साथ रात में सड़कों पर उतरा जाए. फेसबुक पर एक पेज बनाया जाता है और उस पेज को देश भर से समर्थन मिलने लगता है. फिर एक ही रात को दर्जनों शहरों में महिलाएं सड़कों पर आती हैं, घूमती-फिरती हैं और अपने वीडियो और पिक्चर शेयर करती हैं. इनका उद्देश्य यह दिखाना होता है कि शहरों की सार्वजनिक जगहों पर रात में सिर्फ मर्दों का कब्जा नहीं होना चाहिए. महिलाओं का भी उन पर उतना ही हक है, जितना पुरुषों का. वे मांग करती हैं कि सरकार सार्वजनिक स्थानों को सुरक्षित बनाए और रात में ऐसा जगहों पर लाइट की व्यवस्था करे.

गीता यथार्थ का ही शुरू किया हुआ एक और हैशटैग फाइट अगेंस्ट रेप के लोकप्रिय होने बाद भी कई शहरों में इसके बैनर तले प्रदर्शन हुए और महिलाएं सड़कों पर उतरीं. यह हैशटैग कठुआ में एक बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या और उन्नाव में एक लड़की के बलात्कार और विरोध करने वाले पिता की जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के खिलाफ शुरू किया गया था.

ऐसी ही एक मुहिम मी टू हैशटैग की है. इस मुहिम को अमेरिकी सोशल एक्टिविस्ट टाराना बर्क ने शुरू किया था जिसे अलीशा मिलानो नाम की अभिनेत्री ने हैशटैग के जरिए आगे बढ़ाया. इसका मकसद यह था कि लड़कियां खासकर वर्कप्लेस में होने वाले यौन उत्पीड़न को चुपचाप न सहें और दोषियों के चेहरों से नकाब उठाएं.

देखते ही देखते यह हैशटैग आग की तरह फैल गया और हॉलीवुड के एक प्रमुख फिल्म निर्माता के यौन शोषण की शिकार अभिनेत्रियों ने उसके कारनामों को सार्वजनिक कर दिया. ऐसा करने वालों में ग्वेनेथ पेलट्रॉ, एश्ले जूड, जेनेफर लॉरेंस और उमा थर्मन के नाम प्रमुख हैं. इन अभिनेत्रियो ने बताया कि करियर के शुरुआती दौर में उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में यौन शोषकों के हाथों क्या झेला. देखते ही देखते बड़ी संख्या में लड़कियों ने अपने साथ हुई घटनाओं को सार्वजनिक कर दिया.

मी टू की मुहिम विश्वव्यापी हो गई और इसकी गूंज भारत में भी सुनाई दी. अमेरिका में रह रही भारतीय मूल का एक वकील और एक्टिविस्ट ने इस हैशटैग के तहत भारतीय विश्वविद्यालयों में यौन उत्पीड़क शिक्षकों की एक लिस्ट सार्वजनिक की और लोगों से कहा कि इसे आगे बढ़ाएं. देखते ही देखते यह लिस्ट खासी लंबी हो गई. इसने भारतीय अकादमिक जगत में खूब हलचल मचाई.

अमेरिका में जब एक अश्वेत बच्चे को मारने के जुर्म में पकड़े गए जॉर्ज जिमरमैन को श्वेत ज्यूरी ने जुलाई, 2013 में छोड़ दिया तो उस बच्चे के मित्रों ने ब्लैक लाइव मैटर्स नाम का हैशटैग शुरू किया. यह हैशटैग बहुत तेजी से लोकप्रिय हुआ और लोग इस मसले पर सड़कों पर भी उतरे. यह आंदोलन कई शहरों में फैल गया और राष्ट्रपति चुनाव में भी इसकी खूब चर्चा रही. यह हैशटैग से आगे बढ़कर जमीनी आंदोलन की शक्ल ले चुका है और संभावना है कि इससे एक राजनीतिक दल की शुरुआत हो.

दिल्ली में छात्राओं के हॉस्टल में लगाई गई पाबंदियों के खिलाफ पिंजरातोड़ आंदोलन के विस्तार में भी सोशल मीडिया ने भूमिका निभाई. ऐसा ही एक आंदोलन अपनी सैनेटरी पैड पर मैसेज लिखने और उस पर जीएसटी लगाए जाने के खिलाफ भी चला. सेल्फी विदआउट मेकअप और नेचुरल सेल्फी जैसे हैशटैग भी खूब चले. एससी-एसटी एक्ट में बदलाव के खिलाफ भारत बंद हैशटैग काफी लोकप्रिय हुआ और 2 अप्रैल, 2018 को तो ट्विटर के इंडिया ट्रैंड में यह लगभग पूरे दिन टॉप पर रहा.

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक यह आंदोलन किसी राजनीतिक दल या संस्था ने शुरू नहीं किया. बल्कि कुछ सोशल मीडिया एक्टिविस्ट ने यह हैशटैग शुरू किया. चूंकि दलितों और आदिवासियों का गुस्सा पहले से मौजूद था, इसलिए इसका जमीन पर भी खूब असर दिखा.

देश-दुनिया के अलग अलग हिस्सों में चले हैशटैग आंदोलनों की कुछ समान खासियत है. ये आंदोलन लोकप्रिय राजनीतिक-सामाजिक विमर्श का हिस्सा नहीं हैं. न ही इन्हें चलाने में किसी राजनीतिक दल का कोई योगदान होता है. लेकिन इन आंदोलनों के पीछे स्पष्ट रूप से कोई न कोई विचारधारा होती है. जैसे कि ऊपर जिन आंदोलनों का जिक्र है वे नारीवादी विचारों से प्रेरित हैं.

इन आंदोलनों को चलाने के पीछे संसाधनों का खास महत्व नहीं होता. इनमें से कुछ हैशटैग वर्चुअल से रियल की यात्रा कर पाते हैं और जमीनी आंदोलनों का हिस्सा बनते हैं. कई हैशटैग सोशल मीडिया में ही सिमट कर रह जाते हैं.

हैशटैग की एक खासियत यह है कि अक्सर ये बेहद तात्कालिक होते हैं और मुद्दे के बने रहने तक ही इनका अस्तित्व होता है. हालांकि कुछ हैशटैग बार-बार लौटकर आते हैं और प्रासंगिक बने रहते हैं. हैशटैग के आंदोलन आम तौर पर हाशिए से शुरू होते हैं और मुख्यधारा में कुछ समय तक जगह घेरने के बाद फिर शांत हो जाते हैं. कम से कम भारत में तो यही प्रवृत्ति देखी जा रही है.

ये आंदोलन चूंकि संगठित रूप से नहीं चलाए जा रहे हैं, इसलिए इन्हें नियंत्रित करना भी मुश्किल होता है. संगठित न होने की वजह से ही इनमें अक्सर एकरूपता भी नहीं होती. लेकिन यह बहुत तेजी से बदलती दुनिया है. हैशटैग अभी-अभी आए हैं. ये आखिरकार कैसी-कैसी शक्लें लेंगे, इस बारे में भविष्यवाणी करने का जोखिम लेना ठीक नहीं है.