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गुनाहों का दरवेश: सलमान खान

इतिहास में शायद पहली बार अजीब इत्तेफाक हो रहा है. एक हिरण की मौत पर शेर को सज़ा मिली है. टाइगर जिंदा है की मुनादी से डरे सहमे हिरणों ने अदालत के फैसले से राहत की सांस ली होगी. वे इस बात पर भी उत्साहित होंगे कि देर आये दुरुस्त आये फैसले ने उन सलमानों के हौसले भी पस्त कर दिए होंगे जो अपने रसूख के बल पर हर सलाख को फांदने का हौसला रखते हैं.

सलमान खान को अदालत ने पांच साल की सजा सुनाई परन्तु इस मुकाम पर पहुंचने में न्याय को दो दशक लग गये. इन बीस सालों में सलमान लगातार एक साथ दो विपरीत मानसिकता में जीये होंगे. स्टारडम का रुतबा और दिन रात सर पर लटकती फैसले की तलवार.

जैसा फ्योदोर दोस्तोवस्की ने अपनी पुस्तक ‘क्राइम एंड पनिशमेंट‘ में स्थापित किया है कि सजा से ज्यादा सजा का डर भयानक होता है. इन बीस सालों में सलमान ने क्या नहीं भुगता होगा– एक अदालत से दूसरी अदालत, वकीलों की फौज, गवाहों की मनुहार, न चाहते हुए भी अपने स्वाभिमान को निचले लेवल पर ले जाना, अनगिनत समझौते वह भी दूसरों की शर्तों पर, एक तरफ ग्लैमर की चकाचौंध दूसरी तरफ सजा का खौफ.

चतुर से चतुर अपराधी भी जानता है कि एक दिन उसे कानून के सामने सर झुकाये खड़े होना है. फिर सलमान तो महज एक बिगड़ैल बच्चे से ज्यादा नहीं थे. मासूमियत और उदंडता उनके स्वाभाव में रही है. हमें सलमान से सहानुभूति हो सकती थी अगर यह उनका इकलौता हादसा होता परन्तु हमें उनसे ईर्ष्या हो रही है. जिस तरह वह एक के बाद एक अपराध में फंसते गये और बच निकलते रहे उससे पूरी कानूनी प्रक्रिया बहस बन गई.

अपनी पहली गलती पर उन्हें समझाइश दी गई होती तो शायद उन्हें यह दिन नहीं देखना पड़ता. तब शायद उम्र का दौर या छलांग भरता स्टारडम का अहं था जो उनके विवेक पर हावी हुआ होगा और बीइंग ह्यूमन का मास्क उन्हें कहीं तसल्ली दे रहा होगा कि घबराने की बात नहीं है.

ऐसा भी नहीं है कि उन्हें कोई सहारा नहीं मिला होगा. अभिनय में असफल और लेखन में सफल अपने पिता से मीलों आगे निकले सलमान किस्मत वाले थे जिन्हें अपनी शुरुआती फिल्म ‘मैंने प्यार किया‘ से पहचान मिल गई थी.

उनकी हर हिमाकत पर उनका परिवार उनके साथ खड़ा नजर आया है. उनके जीवन में आने वाली समस्त महिलाएं भी उनके खिलंदड़ स्वभाव की वजह से उनसे दूर हो गई. रिश्तों का खालीपन उनकी अपनी पसंद थी. वे क्यों किसी के हमसफ़र नहीं बने यह उनका अपना निर्णय था. भीड़ में रहते हुए बंजारा बन जाना उन्होंने ही स्वीकारा था.

न्याय की लम्बी प्रक्रिया किसी के लिए राहत हो सकती है और किसी के लिए प्रताड़ना. अगर सलमान न्याय को खरीद सकते तो शायद बीस बरस पहले ही मुक्त हो गए होते. या वे अपना गुनाह कबुल कर लेते तो शायद अब बेफिक्र होकर जी रहे होते.

मानसिक यंत्रणा के बीस बरस उनकी सज़ा से कही ज्यादा हैं. लेकिन नहीं! वे अपनी नियति को भोगे बगैर मुक्त नहीं होने वाले थे. शायद सलमान आज सोच रहे होंगे कि ‘हम साथ साथ हैं’ कहने वालों ने अगर उस दिन उन्हें काले हिरण को निशाना बनाने से पहले ही रोक दिया होता या शिकार का थ्रिल उन्हें नहीं उकसाता या गांव वालों ने उनकी बन्दूक से निकली गोली की आवाज़ नहीं सुनी होती तो आज दृश्य कुछ और ही होता. बीस साल तक एक हिरण की तरह अपने मुक़दमे के लिए दौड़ते हुए सलमान को एकाध बार तो ख़याल आया होगा कि आखिर उस हिरण को मार कर हासिल क्या हुआ?

किसी फिल्म के किरदार की तरह लोग सलमान में वो सब देखना चाहते हैं जो उनकी स्क्रीन इमेज है. परंतु यह जान लेना भी जरूरी है कि वह एक सामान्य इंसान ही हैं.

(सौतुक डॉट कॉम से साभार)