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चरण सिंह के अहं से टकराकर एक दलित प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गया
कद्दावर किसान नेता और उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार के प्रणेता चरण सिंह एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री रहे जिन्हें बतौर प्रधानमंत्री कभी सदन जाने और संसद सत्र में हिस्सा लेने का अवसर नहीं मिला. चंद्रशेखर अकेले ऐसे प्रधानमंत्री रहे जो कभी लाल क़िले पर झंडा फहराकर राष्ट्र को संबोधित नहीं कर पाए. दोनों पुराने कांग्रेसी होते हुए भी कांग्रेस की चालबाजी समझ नहीं पाए.
चरण सिंह को उनकी ख़ूबियों के साथ-साथ इस बात के लिए भी इतिहास में याद रखा जाएगा कि उन्होंने जगजीवन राम के समर्थन में पर्याप्त सांसदों की संख्या होने की जानकारी के बावजूद लोकसभा भंग करने की सिफ़ारिश तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से कर दी. और इस तरह से सबसे ज़्यादा 32 साल तक कैबिनेट मंत्री रहने वाला देश का एक सामर्थ्यवान दलित नेता, जिनकी सभी वर्गों में राष्ट्रीय स्वीकार्यता थी, प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गया.
1946 की अंतरिम सरकार में श्रम मंत्रालय, आज़ादी के बाद नेहरू के कार्यकाल में क्रमशः संचार मंत्रालय, परिवहन व रेलवे मंत्रालय और परिवहन व संचार मंत्रालय (उड्डयन भी), इंदिरा गांधी के कार्यकाल में क्रमश: श्रम, रोजगार व पुनर्वास मंत्रालय, खाद्य व कृषि मंत्रालय (हरित क्रांति के प्रणेता), रक्षा मंत्रालय (71 का मुक्ति युद्ध जिताने वाला कुशल रणनीतिकार), कृषि व सिंचाई मंत्रालय एवं मोरारजी देसाई के कार्यकाल में रक्षा मंत्रालय संभालने वाले जगजीवन राम भारत के उपप्रधानमंत्री भी रहे.
कुल मिलाकर यह वह दौर था, जब संपूर्ण क्रांति और व्यवस्था-परिवर्तन के नाम पर बनी सरकार ने कांग्रेस की ज़्यादतियों और संजय गांधी की अतिरिक्त-संवैधानिक शक्तियों के दोहन से आज़िज जनता के आक्रोश को पलीता लगा दिया था.
इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ अभद्रतम भाषा में आग उगलने वाले व रायबरेली से उन्हें शिक़स्त देने वाले राज नारायण उसी कांग्रेस से मिलकर चरण सिंह को पोंगापंथी व ज्योतिष विद्या के मायाजाल में उलझाते चले गए. मोरारजी देसाई के अपने नखरे थे, वे जेपी को भी नहीं गिनते थे.
नेताओं की यह वयोवृद्ध जमात किसी को भी अपने से बड़ा नेता मानने को तैयार नहीं थी, अव्वल हर कोई दूसरे की लकीर को छोटा करने पर तुला हुआ था. लम्बे-चौड़े वादे-दावे व भ्रष्टाचार-विरोध में मुट्ठियां तान कर जनता के बीच विश्वास हासिल करने के बाद जनता का मोहभंग कराने का आज़ाद भारत का इसे पहला एपिसोड माना जाना चाहिए.
बहरहाल, चरण सिंह एक सफल मुख्यमंत्री, गृहमंत्री व वित्त मंत्री ज़रूर रहे, और वक़्त मिलता, तो अच्छे प्रधानमंत्री भी साबित हो सकते थे. पर, प्रधानमंत्री बनने की ओर तेजी से अग्रसर जगजीवन राम का रास्ता रोककर उन्होंने महत्वाकांक्षाओं की टकराहट का कुरूप नमूना पेश किया.
हां, इतिहास उनके दबे-कुचलों के प्रति हमदर्दी और शरद, मुलायम, लालू, रामविलास, नीतीश जैसे नए-नए लोगों की हौसलाअफजाई करने व सियासी मंच मुहैया कराने के लिए ज़रूर याद करेगा. उन्होंने ठीक ही कहा था-
“हिन्दुस्तान की ख़ुशहाली का रास्ता गांवों के खेतों व खलिहानों से होकर गुज़रता है.”
वहीं जगजीवन राम ऐसे लड़ाका थे जो आज़ादी की लड़ाई और दबे-कुचले समाज की उन्नति की लड़ाई साथ-साथ लड़ रहे थे. मतलब सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक सभी मोर्चे पर वे भिड़े हुए थे. उन्होंने खेतिहर मज़दूर सभा एवं भारतीय दलित वर्ग संघ का गठन किया.
1936 में इस संघ के 14 सदस्य बिहार के चुनाव में जीते थे. वे अंग्रेज़ों की फूट डालो-राज करो की चाल को समय रहते समझ चुके थे. इसलिए, जब उन्हें मोहम्मद युनूस की कठपुतली सरकार में शामिल होने का लालच दिया गया, तो उन्होंने ठुकरा दिया. गांधीजी कहते थे– “जगजीवन राम तपे कंचन की भांति खरे व सच्चे हैं. मेरा हृदय इनके प्रति आदरपूर्ण प्रशंसा से आपूरित है.”
1942 के आंदोलन में उन्हें गांधीजी ने बिहार व उत्तर पूर्वी भारत में प्रचार का जिम्मा सौंपा. पर 10 दिन बाद ही वे गिरफ्तार हो गये. 43 में रिहाई हुई. वे उन 12 राष्ट्रीय नेताओं में थे, जिन्हें लार्ड वावेल ने अंतरिम सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था.
बाबू जगजीवन राम ने भारत सरकार में सभी महत्वपूर्ण मंत्रालय संभालते हुए न्यूनतम मेहनताना, बोनस, बीमा, भविष्य निधि सहित कई क़ानून बनाये. देश में डाकघर व रेलवे का जाल उन्हीं के नतृत्व में विस्तारित हुआ. हरित क्रांति की नींव रखकर देश को अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनाया. विमान सेवा को देशहित में करने के लिए निजी कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करके वायु सेना निगम, एयर इंडिया व इंडियन एयरलाइंस की स्थापना की. रक्षा मंत्री के रूप में उन्हीं का कथन था- “युद्ध भारत के सुई की नोंक के बराबर भूभाग पर भी नहीं लड़ा जायेगा.” 71 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका भी उन्होंने निभाई.
आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव से ठीक पहले उन्होंने इंदिरा से अपनी राहें जुदा कर लीं. पांच मंत्रियों के साथ कैबिनेट से बाहर निकलकर उन्होंने कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बनाई. यह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए ज़बरदस्त झटका था. विपक्षी पार्टियों की रामलीला मैदान में होने वाली विशाल जनसभा में जब उन्होंने जाना तय किया, तो उसे फ्लॉप करने के लिए पब्लिक ब्रॉडकास्टर दूरदर्शन ने उस रोज़ टेलिविज़न पर बॉबी फ़िल्म दिखाई ताकि लोग घर से निकल कर रामलीला मैदान न पहुंचे और उस दौर की मशहूर ब्लॉकबस्टर फिल्म का आनंद लें. पर, लोग निकले और ऐतिहासिक सभा हुई. अगले दिन अख़बारों की हेडलाइन थी- “बाबू बीट्स बॉबी.”
1936 से 1986 तक, 50 वर्षों का उनका जनहित को समर्पित सार्वजनिक जीवन कुछ अपवादों को छोड़कर शानदार रहा. इस देश में राष्ट्रपति तो कोई दलित-मुसलमान बन जाता है, पर अफ़सोस कि ख़ुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहकर गर्व से भर जाने वाला यह मुल्क आज भी एक दलित या मुसलमान को प्रधानमंत्री बनाने की सदाशयता दिखाने को तैयार नहीं हो पाया है.
उम्मीद है, स्थितियां बदलेंगी और जो काम अमेरिका के व्हाइट् हाउस में बराक ओबामा के रूप में एक ब्लैक को बिठाकर वहां के लोगों ने किया, वो हिन्दुस्तान में भी निकट भविष्य में दिखेगा.
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