Newslaundry Hindi
यह कमंडल के विजय रथ के आगे मंडल का अड़ना है
सुप्रीम कोर्ट के अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम (जिसे दलितों के विरोध के कारण अब हरिजन एक्ट कहना बंद कर दिया गया है) को कथित तौर पर कुंद करने वाले फैसले के खिलाफ भारत बंद का आह्वान किसने किया था? आपको इस सवाल के जवाब में सन्नाटा मिलेगा क्योंकि किसी ने किया ही नहीं था.
यह खबर व्हाट्सएप और फेसबुक के जरिए फैली थी. यह दलितों के बहुत दिनों से सुलगते गुस्से का स्वतःस्फूर्त विस्फोट था जिसके पीछे सिर्फ एक अकेला कानून नहीं है.
यह मोदी सरकार का आखिरी साल है. चुनाव सामने हैं, जिन्हें हिंदुत्व की पूर्व लिखित पटकथा के मुताबिक, धारावाहिक सांप्रदायिक दंगों (जो बिहार-बंगाल में शुरू भी हो चुके हैं) के बीच संपन्न होना था. मकसद चार साल की विफलताओं और बैंक घोटालों पर पर्दा डालते हुए आसानी से चुनाव जीतने का था. ऐसे में बाढ़ की तरह शहरों और कस्बों में अचानक सामने आए दलित उभार के गहरे मायने हैं. हमारे बेढब लोकतंत्र के इंडिकेटर बता रहे हैं कि राजनीति एक बार फिर से पलटने वाली है.
आंदोलन के झटके से हड़बड़ाई केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटीशन दाखिल कर डैमेज कंट्रोल की कोशिश की है लेकिन वह दलितों के लिए नकली आंसू बहाते हुए रंगे हाथ पकड़ी गई है. कायदे से सरकार को दलित उत्पीड़न की एफआईआर बिना जांच के दर्ज नहीं करने के अदालती फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए संसद में अध्यादेश लाना चाहिए था लेकिन सरकार सुप्रीम कोर्ट से ही अपना फैसला बदलने के लिए कह रही है.
जब खुद देश के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ भेदभाव के आरोप में महाभियोग चलाने की तैयारी हो रही है और वरिष्ठतम जज न्यायपालिका और सरकार की दोस्ती को लोकतंत्र के लिए खतरनाक बता रहे हैं, ऐसे में यह यकीन दिला पाना कि एससी/एसटी एक्ट को कुंद करने के प्रयास से सरकार का कोई लेनादेना नहीं था, असंभव की हद तक मुश्किल होगा. वैसे भी दलितों के बिदकने का कारण सिर्फ यही एक कानून नहीं है.
इस धमाके से पहले पलीते से उठती छिटपुट चिंगारियां दिखाई दे रही थीं लेकिन मीडिया का एक हिस्सा, व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी और भाजपा आईटी सेल के धुंआधार प्रचार के शोर में ध्यान नहीं दिया गया. त्रिपुरा विजय के उन्माद में पेरियार की मूर्ति तोड़े जाने के बाद तमिलनाडु में ब्राह्मणों का जनेऊ काटना ऐसी ही मानीखेज घटना थी.
यह अनायास नहीं है कि रामविलास पासवान, रामदास अठावले, उदित राज और सावित्री बाई फुले समेत कई दलित मंत्री और सांसद मोदी के सर्वनियंत्रक महानायकत्व की अवहेलना कर अपनी ही सरकार के खिलाफ बोलने लगे हैं. वे पिछले आमचुनाव में, मोदी के करिश्मे के चलते दलितों के भाजपा को वोट देने से निराश होकर, सत्ता का मजा लेने के चक्कर में अपनी साख भले गंवा चुके हैं लेकिन उन्हें अपने चुनाव क्षेत्रों में वफादार कार्यकर्ताओं के नेटवर्क के जरिए दलितों के गुस्से की आंच महसूस होने लगी है. वे कल किसी सरकार में शामिल होने के लायक बचे रहें, इसके लिए चुनाव जीतना जरूरी है. इसके लिए नए समीकरण बनाने और नए साथी तलाशने की शुरुआत वे कर चुके थे.
पिछले आमचुनाव में सबसे बड़े राज्य यूपी के दलितों ने मायावती से चुपचाप हाथ छुड़ाकर अपनी नाराजगी जताई जिसकी कल्पना भाजपा ने सपने में भी नहीं की थी. उत्साहित आरएसएस ने सत्ता के संरक्षण में विराट हिंदुत्व की परियोजना शुरू कर दी जिसके एक छोर पर मलिन बस्तियों में खिचड़ी भोज थे तो दूसरे छोर पर एक दलित को राष्ट्रपति के आसन पर बिठाया गया.
मुसलमानों से घृणा का उन्मादी शोर जैसे-जैसे ऊंचा होने लगा, व्हाट्सएप से शिक्षित किए गए शंभुलाल रैगर जैसे दलित वालंटियर सामने आने लगे जो एक मुसलमान को बोटी-बोटी काटकर राजनीति में अपना कैरियर बनाना चाहते थे. रैगर की शोभायात्रा निकालने से पता चला कि हिंदुत्व को ऐसे ही खूनी दलितों की दरकार थी.
लेकिन चार सालों में इन प्रतीकात्मक कारनामों और शब्दों की बाजीगरी के बावजूद जातीय घृणा और ऊंच-नीच की बुनियाद पर आधारित हिंदुत्व की दरारें छिपाए नहीं छिप रही थीं. मूंछ रखने, घोड़ी पर चढ़ने, मंदिर जाने, जानवरों की खाल उतारने, अंतरजातीय विवाह करने, बेगार से इनकार करने पर दलितों की हत्याएं, बलात्कार, उत्पीड़न और अंबेडकर प्रतिमा का तोड़ना भी पूर्व की तरह धड़ल्ले से जारी थे.
गाहे बेगाहे आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत संविधान और आरक्षण की समीक्षा करने की जरूरत बता रहे थे. देखा देखी अनंत हेगड़े जैसे मंत्री भी हिंदुत्व के पक्ष में संविधान बदलने की बात करने लगे थे. इस दोहरेपन से दलितों में बार-बार संदेश जा रहा था कि आरएसएस-भाजपा उनका इस्तेमाल दोबारा सत्ता पाने के लिए तो करना चाहते हैं लेकिन अंततः बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का बनाया संविधान बदलना चाहते हैं, और आरक्षण खत्म करना चाहते हैं. दलितों के लिए अंबेडकर का दर्जा उससे भी अधिक है जो भाजपा के लिए भगवान राम का है.
इस स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन में बहुत कम नारे एससी/एसटी एक्ट के बारे में लगे. ज्यादातर तख्तियों पर अंबेडकर की फोटो थी, आरक्षण और संविधान पर आसन्न खतरे की चेतावनी थी. पहली बार दलितों के साथ पिछड़े दिखाई दिए जो मायावती के स्टेट गेस्ट हाउस कांड का अपमान भूलकर दुश्मन समाजवादी पार्टी से हाथ मिला लेने का ज़मीनी अनुवाद था.
एक और बात गौरतलब है कि सहारनपुर की नीले गमछे वाली भीम आर्मी पूरी हिंदी पट्टी में फैल गई है जिसके नेता चंद्रशेखर रावण को जमानत मिलने के बावजूद जेल में रखा गया है. इसके पीछे कोई सांगठनिक कोशिश नहीं है. यह फैलना उसी प्रक्रिया से घटित हुआ है जिससे एक भगवा गमछा और तलवार-त्रिशूल थाम लेने से रातोंरात आरएसएस के तमाम नए नामों वाले आनुषांगिक संगठन बन जाया करते हैं.
इस गुस्सैल प्रदर्शन से राजनीति नई करवट लेने वाली है. एक बार फिर कमंडल (धार्मिक कट्टरपंथ) के आगे मंडल (सामाजिक न्याय) अड़ गया है जो मुसलमानों से नफरत नहीं करता लेकिन उन्हें बदलना जरूर चाहता है.
मोदी सरकार और आरएसएस के विरोध में हिंदुओं के बीच से ही एक नई ताकत खड़ी हो रही है जो दरअसल सबसे बड़ा वोट बैंक है और उसका अभी कोई नेता नहीं है. एक बात तय है कि जो भी नेता होगा उसे यकीन दिलाना होगा कि वह पुराने आजमाए हुए दलित नेताओं की तरह उनके भरोसे का सौदा उन्हीं ताकतों से नहीं कर लेगा जिसके खिलाफ खड़े होने की हिम्मत वे बहुत दिनों बाद कर पाए हैं. जाहिर है एक नया दलित नेतृत्व बन रहा है.
Also Read
-
Adani met YS Jagan in 2021, promised bribe of $200 million, says SEC
-
Pixel 9 Pro XL Review: If it ain’t broke, why fix it?
-
What’s Your Ism? Kalpana Sharma on feminism, Dharavi, Himmat magazine
-
मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग ने वापस लिया पत्रकार प्रोत्साहन योजना
-
The Indian solar deals embroiled in US indictment against Adani group