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रिपब्लिक टीवी के बोर्ड से राजीव चंद्रशेखर का इस्तीफ़ा
अपनी पैदाइश से ही रिपब्लिक टीवी जिस वजह से आलोचना का शिकार होता रहा, वह वजह 31, मार्च को समाप्ती हो गई. चैनल की प्रवर्तक कंपनी एआरजी आउटलायर एशिया न्यूज प्रा. लि. के मुख्यक निवेशक राजीव चंद्रशेखर ने कंपनी के बोर्ड निदेशक के पद से इस्तीोफ़ा दे दिया है.
चंद्रशेखर के मुताबिक उन्होंने यह फैसला इसलिए लिया क्यों कि हाल ही में वे भाजपा के राज्यसभा सांसद बने हैं. उन्होंने इस आशय का एक प्रेस वक्तव्य अपनी ट्विटर टाइमलाइन पर जारी किया है.
चंद्रशेखर ने अपने पत्र में कहा है कि वे जब तक स्वतंत्र तौर पर राज्यसभा सांसद थे तब तक वे रिपब्लिक टीवी से जुड़े रहे लेकिन अब चूंकि वे एक पार्टी से जुड़ गए हैं तो यह रिपब्लिक टीवी के ब्रांड के साथ न्याय होगा कि वे उसके साथ न रहें.
तकनीकी रूप से चंद्रशेखर भले ठीक कह रहे हों कि वे पहले भाजपा से नहीं जुड़े थे और निर्दलीय सांसद थे, लेकिन यह सार्वजनिक तथ्य है कि वे केरल में एनडीए के संयोजक थे और पहले भी राज्यसभा में भाजपा के समर्थन से पहुंचे थे. जाहिर है एनडीए की मुख्य संचालक पार्टी भाजपा ही है. इसी वजह से उनके रिपब्लिक टीवी में पैसा लगाने और अर्नब गोस्वामी के साथ चैनल शुरू करने पर हितों के टकराव को लेकर सवाल भी उठे थे.
मीडियाविजिल ने 26 जनवरी, 2017 को रिपब्लिक की लांचिंग के मौके पर लिखा था:
“मसला केवल निवेश का नहीं है बल्कि इस गणतंत्र को लेकर जैसी परिकल्पना इसके मालिकों ने रची है, उसी हिसाब से अपना गणतंत्र रचने के लिए उन्हें कामगार फौज की भी तलाश है. इंडियन एक्सप्रेस की 21 सितंबर की एक ख़बर के मुताबिक चंद्रशेखर की कंपनी जुपिटर कैपिटल के सीईओ अमित गुप्ता ने अपनी संपादकीय प्रमुखों को एक ईमेल भेजा था जिसमें निर्देश दिया गया था कि संपादकीय टीम में उन्हीं पत्रकारों को रखा जाए जिनका स्वर दक्षिणपंथी हो”, “जो सेना समर्थक हों,” “चेयरमैन चंद्रशेखर की विचारधारा के अनुकूल हों” और “राष्ट्रवाद व राजकाज” पर उनके विचारों से “पर्याप्त परिचित” हों.
बाद में गुप्ता ने हालांकि इस ईमेल को “इग्नोर” करने के लिए एक और मेल लिखा, लेकिन बंगलुरू में अंडर 25 समिट में अर्नब ने अपने रिपब्लिक के पीछे का विचार जब सार्वजनिक किया तो यह साफ़ हो गया कि टीवी के इस नए गणतंत्र को दरअसल वास्तव में पत्रकारों की एक ऐसी फ़ौज चाहिए जो मालिक के कहे मुताबिक पूंछ हिला सके. अर्नब का कहना था कि वे लुटियन दिल्ली की पत्रकारिता से पत्रकारिता को बचाने का काम करेंगे क्यों कि वे लोग समझौतावादी हैं और उन्हें जनता का प्रतिनिधित्व करने का कोई हक़ नहीं है.
क्या वास्तव में पत्रकार जनता का प्रतिनिधि हो सकता है? अगर चैनल ‘रिपब्लिक’ हो सकता है तो पत्रकार उसका प्रतिनिधि भी हो सकता है. ज़ाहिर है, सच्चा प्रतिनिधि वही होगा जो रिपब्लिक के मालिकान की अवधारणा के साथ हो.
बहरहाल, इंडियन एक्सप्रेस ने जब लिखकर अर्नब से यह सवाल पूछा कि क्या उनके मालिक चंद्रशेखर का चैनल में निवेश हितों का टकराव नहीं है क्यों कि वे खुद रक्षा सौदों से जुड़े हैं और रक्षा पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य भी हैं, साथ ही रक्षा मंत्रालय की परामर्श समिति में भी हैं. इस पर अर्नब की ओर से अख़बार को कोई जवाब नहीं मिला.
अब हो सकता है कि राजीव चंद्रशेखर के रिपब्लिक के बोर्ड से हटने के बाद पिछले एक साल के दौरान उठे तमाम सवालों के जवाब अर्नब गोस्वामी दे सकेंगे, लेकिन इस अवधि में चैनल ने अपने नाम का सहारा लेकर गणतंत्र को तोड़ने की जो कार्रवाइयां की हैं और साजिशें रची हैं, क्या चंद्रशेखर का इस्तीफा उनका जवाब भी दे पाएगा? क्या अर्नब राष्ट्रवाद की सलीब अकेले दम पर ढो पाएंगे?
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