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निकाह हलाला: हलाल या हराम?
सुप्रीम कोर्ट की एक संवैधानिक पीठ मुस्लिम बहुविवाह और निकाह हलाला जैसी प्रथाओं की संवैधानिकता पर सुनवाई करने जा रही है. इन प्रथाओं की संवैधानिकता को पहले भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है. शायरा बानो की जिस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया था, उस याचिका में निकाह हलाला और बहुविवाह जैसे मुद्दे भी उठाए गए थे. लेकिन तब पीठ ने इन दोनों मुद्दों पर अलग से सुनवाई किये जाने की बात कहते हुए सिर्फ तीन तलाक पर ही अपना फैसला दिया था.
अब चार अलग-अलग याचिकाओं के जरिये निकाह हलाला और मुस्लिम बहुविवाह को चुनौती दी गई है. इन चार याचिकाओं में से दो याचिकाएं समीना बेगम और नफीसा ख़ान नाम की दो मुस्लिम महिलाओं ने दाखिल की हैं जिन्होंने खुद को इन प्रथाओं से पीड़ित बताया है. इसके अलावा दो जनहित याचिकाएं भी इस मुद्दे पर दाखिल की गई हैं जिनके याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय और हैदराबाद के रहने वाले मोअल्लिम मोहसिन हैं.
इन चारों याचिकाओं पर संयुक्त सुनवाई करने के लिए ही संवैधानिक पीठ का गठन किया जा रहा है. याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि निकाह हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाएं संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन करती हैं. इनका कहना है कि ऐसी प्रथाओं का बने रहना सीधे तौर से संविधान के अनुछेद 14,15, 21 और 44 का उल्लंघन है. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सरकार के सभी सम्बंधित मंत्रालयों से जवाब दाखिल करने को कहा है.
निकाह हलाला जैसी प्रथा की न्यायिक समीक्षा होना कितना सही या गलत है, इस पर चर्चा करने से पहले इस प्रथा को संक्षेप में समझना सही रहेगा. मुस्लिम समुदाय में किसी महिला से तलाक होने के बाद यदि पुरुष दोबारा उसी महिला से शादी करना चाहे तो ऐसा करने से पहले निकाह हलाला जरूरी होता है. इसके अनुसार तलाकशुदा महिला को अपने पति से दोबारा शादी करने से पहले किसी दूसरे मर्द से शादी करनी होती है और उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने होते है. फिर इस दूसरे आदमी से भी तलाक लेने बाद ही वह महिला अपने पहले पति से शादी कर सकती है. इसी प्रथा को निकाह हलाला कहते हैं.
इस प्रथा को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं का कहना है कि ऐसी प्रथा बलात्कार जितना ही गंभीर अपराध है क्योंकि इसके तहत महिलाओं को किसी अन्य मर्द से जबरन शारीरिक संबंध बनाने को मजबूर किया जाता है. इसके अलावा बहुविवाह को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह प्रथा मुस्लिम महिलाओं से समानता का अधिकार छीनती है. क्योंकि मुस्लिम समुदाय में सिर्फ पुरुषों को ही बहुविवाह की अनुमति है, महिलाओं को नहीं.
वैसे आंकड़े इस मसले की एक अलग तस्वीर पेश करते हैं. इनके मुताबिक बहुविवाह की प्रथा देश में मुस्लिम समुदाय से ज्यादा अन्य समुदायों में देखने को मिलती है. हालांकि इससे जुड़े ठोस आंकड़े मिलना काफी मुश्किल है क्योंकि आखिरी बार साल 1961 की जनगणना में ही इस तरह के आंकड़े जुटाए गए थे. इन आंकड़ों के अनुसार मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह का चलन मात्र 5.7 प्रतिशत था. जबकि आदिवासियों में यह 15.25 प्रतिशत, बौद्ध धर्म में 7.9 प्रतिशत, जैन धर्म में 6.7 प्रतिशत और हिन्दू धर्म में 5.8 प्रतिशत था.
इन्हीं आंकड़ों के आधार पर कई लोग यह तर्क भी देते हैं कि कानून बना देने भर से किसी भी प्रथा पर रोक नहीं लगाई जा सकती. लेकिन यहां ये समझना भी जरूरी है कि कानून किसी कुप्रथा को जड़ से उखाड़ने के लिए ही नहीं बल्कि इसलिए भी बनाए जाते हैं कि ताकि ऐसी कुप्रथाओं से पीड़ित होने वाले लोगों के लिए उनकी इच्छा पर न्याय का रास्ता खुल सके.
उदाहरण के लिए, दहेज़ प्रथा के खिलाफ कानून बन जाने के बाद भी इस प्रथा को जड़ से ख़त्म नहीं किया जा सका है. लेकिन कानून बन जाने से इतना जरूर हुआ है कि अब दहेज़ से पीड़ित कोई भी महिला न्यायालय जाकर इसकी शिकायत कर सकती है और दोषियों को सजा दिए जाने की मांग कर सकती है.
ऐसा ही बहुविवाह के मामले में भी है. मुस्लिम समुदाय के अलावा अन्य सभी समुदाय की महिलाओं के पास यह अधिकार है कि अगर उनका पति उनकी इच्छा के विरुद्ध दूसरी शादी करता है तो वे न्यायालय जाकर उसके खिलाफ कार्रवाई की मांग कर सकती हैं.
मुस्लिम समुदाय के अलावा बहुविवाह सभी धर्मों में अपराध माना जाता है. इसाई धर्म में ‘क्रिस्चियन मैरिज एक्ट-1872’ के तहत यह एक अपराध है, ‘पारसी मैरिज एक्ट-1963’ भी बहुविवाह को अपराध मानता है और ‘हिन्दू मैरिज एक्ट-1955’ के अनुसार हिन्दू, सिख, बौद्ध और जैन धर्म के लोगों के लिए बहुविवाह एक अपराध है.
इनमें से किसी भी समुदाय या धर्म का व्यक्ति अगर बहुविवाह करता है तो उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत सात साल तक की सजा हो सकती है. लेकिन मुस्लिम समुदाय के लोगों पर यह धारा लागू नहीं होती क्योंकि ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के तहत मुस्लिम पुरुषों के लिए बहुविवाह अपराध नहीं है.
भारतीय संविधान का अनुछेद 25 धर्म की स्वतंत्रता की बात करता है. इसी के चलते किसी भी धर्म के व्यक्ति को अपने धार्मिक रीति-रिवाजों और परंपराओं को मानने और मनाने की छूट मिली हुई है. लेकिन यह अनुछेद भी ऐसी किसी परंपरा को जारी रखने की छूट नहीं देता जिससे किसी अन्य व्यक्ति के मौलिक अधिकार प्रभावित होते हों.
बहुविवाह को असंवैधानिक घोषित करने वालों की मांग कर रहे लोगों का यही तर्क है कि ये परंपरा मुस्लिम महिलाओं के साथ असामनता पैदा करने के साथ ही उनके मौलिक अधिकारों का भी हनन कर रही है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि मुस्लिम पुरुष अगर अपनी पहली पत्नी की इच्छा के विरुद्ध भी दूसरी शादी करता है, तो भी मौजूदा कानून उसे ऐसा करने से नहीं रोक सकता. ऐसे में मुस्लिम महिलाओं के पास कोई कानूनी विकल्प नहीं रह जाता जिसके जरिये वो न्याय की मांग कर सकें.
कुछ महीनों पहले आए सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को देखें जिसके जरिये तीन तलाक को रद्द किया गया है तो यह साफ़ संकेत मिलते हैं कि निकाह हलाला और बहुविवाह को भी कोर्ट असंवैधानिक घोषित कर सकता है. विशेषकर बदले हुए सामाजिक परिवेश और समानता की आधुनिक मांग परिभाषा के दायरे में यह संभव है.
समस्या या सियासत?
लेकिन ये ऐसे मुद्दे हैं जो कानूनी पहलुओं से ज्यादा अपने राजनीतिक पहलुओं के चलते भी चर्चा में रहते हैं. बहुविवाह को ही देखें तो मुस्लिम समुदाय के अलावा अन्य समुदायों में भी इस प्रथा का चलन दस्तूर जारी है, लेकिन इसकी चर्चा न के बराबर ही होती है. हालांकि इसका एक कारण ये भी है कि अन्य समुदायों में महिलाओं के पास इससे बचने के लिए कानूनी प्रावधान मौजूद हैं.
मुस्लिम समुदाय में प्रचलित बहुविवाह का विरोध राजनीतिक कारणों से भी होता है. भारतीय जनता पार्टी से जुड़े कई नेता अनेकों बार ये बयान दे चुके हैं कि ‘मुस्लिम मर्द चार शादियां करके चालीस बच्चे पैदा कर रहे हैं और अपनी जनसंख्या तेजी से बढ़ा रहे हैं.’
ऐसे बयानों को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए जमकर इस्तेमाल किया जाता है. मौजूदा समय में तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया बेहद तेज हो गई है. आए दिन कभी किसी अल्पसंख्यक की हत्या की ख़बरें सामने आ रही हैं तो कभी ऐसी हत्याएं करने वाले अपराधियों का महिमामंडन किये जाने और उनकी झाकियां निकाले जाने की ख़बरें आती हैं. ऐसे में कई लोग स्वाभाविक तौर से यह भी मान रहे हैं कि मुस्लिम परंपराओं में हस्तक्षेप करके उन्हें पूरी तरह से हाशिये पर धकेला जा रहा है.
लेकिन निकाह हलाला और बहुविवाह जैसे मामलों को राजनीतिक नहीं बल्कि सिर्फ न्यायिक पहलुओं पर ही परखा जाना चाहिए. ऐसे मामलों में राजनीतिक हस्तक्षेप के परिणाम कितने घातक हो सकते हैं, इसके परिणाम देश में पहले भी देखे जा चुके हैं.
साल 1985 में जब सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो मामले में ऐतिहासिक फैसला दते हुए मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण भत्ता दिए जाने का अधिकार दिया था तब तमाम मुस्लिम संगठनों ने इसका विरोध किया था. दबाव में आकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ‘मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम-1986’ पारित करवा दिया और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया गया.
इस फैसले ने हिंदूवादी संगठनों को राजीव गांधी पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप लगाने और उनकी जमकर निंदा करने का अवसर दे दिया. इससे विचलित हुए राजीव गांधी बहुसंख्यक तुष्टिकरण की राह पर निकल पड़े. राजीव गांधी एक गलती से बचने के चक्कर में दूसरी गलती करते गए और उनके हर क़दम से सांप्रदायिक ताकतों को लगातार बल मिलता गया. इसका परिणाम ये हुआ कि कुछ सालों बाद बाबरी मस्जिद गिरा दी गई और मस्जिद गिराने वाले एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर स्थापित हो गए.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई के लिए स्वीकार किए गए मौजूदा मसले को अगर हम सिर्फ न्यायिक पहलु से देखें तो निकाह हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाओं का समाप्त होना ही ज्यादा उचित नज़र आता है. अगर सिर्फ राजनीतिक कारणों से ऐसी प्रथाओं का समर्थन किया जाता है तो इससे बिलकुल उसी तरह की सांप्रदायिक ताकतें मजबूत होंगी जैसी शाह बानो मामले के दौरान हुई थी. लिहाजा धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वालों को तो इस मामले में यह ख़ास ध्यान रखने की जरूरत है कि वे ऐसी प्रथाओं का निराधार विरोध करके सांप्रदायिक ताकतों के ही हाथ मजबूत न करने लगें.
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