Newslaundry Hindi
‘श्यू द मैसेंजर’ लोकतंत्र के लिए खतरा है
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का पंजाब के पूर्व मंत्री व प्रकाश सिंह बादल के दामाद बिक्रम मजीठिया, भाजपा नेता नितिन गडकरी और कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल से माफी मांगने पर उनके समर्थकों के भीतर गुस्सा है.
केजरीवाल और ‘आप’ हमेशा से पत्रकारों के चहेते विषय रहे हैं. नीरव मोदी का पीएनबी घोटाला खुलने के दो ही दिन बाद दिल्ली सरकार और मुख्य सचिव का विवाद गहराने लगा था. बहुत संभव है यह इत्तेफाक हो लेकिन हमेशा देखा गया है कि केजरीवाल के मुद्दे मोदी सरकार के कारनामों पर परदा डालने के काम आते रहे हैं.
इस बार माफीनामे पर आप समर्थकों से ज्यादा आहत मीडिया के लोग दिख रहे हैं. वे केजरीवाल को नई राजनीति की याद दिला रहे हैं. दरअसल मैंने कभी नहीं देखा कि मीडिया केजरीवाल सरकार के शिक्षा, स्वास्थ्य या एमसीडी और सरकार की शक्तियों के बारे में चर्चा करता हो.
पर हम मीडिया को यह नहीं बता सकते कि वे क्या दिखाएं. चूंकि ‘जो लोग लोग नहीं बताना चाहते वही ख़बर है बाकी सब विज्ञापन है’. यह पत्रकारिता का अमर वाक्य है. यहां मैंने सिर्फ यह बताने के लिए लिखा है कि जितना आलोचनात्मक मीडिया का रूख दिल्ली सरकार की तरफ है, काश उतना ही मोदी सरकार पर भी होता. कम से कम सीलिंग के मुद्दे पर भाजपा-कांग्रेस शासित एमसीडी पर कठिन प्रश्न पूछ लिए जाते. खैर, मीडिया से नाराजगी एक अलग मुद्दा है.
सवाल है कि केजरीवाल ने माफी क्यों मांगी? क्या लगाए गए आरोप झूठे थे?
देश के 16 शहरों में केजरीवाल पर दो दर्जन से ज्यादा मानहानि के मुकदमें हैं. और ये मुकदमें सौ-पचास रुपए के नहीं बल्कि करोड़ों के हैं. इसका मतलब है कि इन केसों को लड़ने के लिए वकील चाहिए. उनकी मोटी फीस चाहिए. बहुत सारा वक्त और ऊर्जा चाहिए.
ऐसा बिल्कुल न लगे कि मैं केजरीवाल का समर्थन कर रहा हूं. मैं सिर्फ एक व्यक्ति और भारतीय कानून व्यवस्था के रिश्ते को समझने-समझाने की कोशिश कर रहा हूं.
याद कीजिए, जब दिल्ली के मुख्यमंत्री के दफ्तर पर छापा मारा गया था. केजरीवाल ने वित्त मंत्री अरुण जेटली पर डीडीसीए से जुड़ी फाइलें जब्त करवाने का आरोप लगाया था. इसपर जेटली ने केजरीवाल के खिलाफ 10 करोड़ का मानहानि का मुकदमा दायर किया था. राम जेठमलानी, केजरीवाल के वकील बने और उन्होंने बीच में ही केस छोड़ दिया. टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक जेठमलानी की कुल फीस बनी 3.42 करोड़ रुपए. वे केजरीवाल की ओर से कोर्ट में 11 बार मौजूद हुए और उनकी हर सुनवाई की फीस थी 22 लाख रुपए. मतलब दस करोड़ के मानहानि को लड़ने के लिए केजरीवाल ने लगभग साढ़े तीन करोड़ रुपये लगा दिए. इसके बाद दूसरे वरिष्ठ वकील अनूप जॉर्ज चौधरी ने भी केस छोड़ दिया. हालांकि अभी केजरीवाल ने अरुण जेटली से माफी नहीं मांगी है लेकिन संभवत: उनसे भी माफी मांग सकते हैं.
इन दर्जनों मामलों में से कई मामले आपराधिक मानहानि के हैं, जिसमें उन्हें जेल भी हो सकती है. कई मामले केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने के कारण दर्ज हैं.
अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस की 20 मार्च को छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, इनमें दस मामलों की सुनवाई अगले एक महीने के दौरान अलग-अलग न्यायालयों में होनी है. इनमें से ज़्यादातर भाजपा नेताओं के द्वारा किया गया है.
उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने साफ़ कहा कि वे और केजरीवाल इन मामलों में समय बर्बाद करने के बदले दिल्ली के कामों पर ध्यान लगाएंगे.
इनके पास इन मानहानि के केसों में लड़ने के लिए पैसे और समय नहीं हैं. 15 मार्च को पंजाब के पूर्व मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया से माफ़ी मांग लेने से उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई बंद हो गई या फिर आरोप हट गए, ऐसा नहीं है. पंजाब के मौजूदा मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने कहा, ‘मजीठिया के ख़िलाफ़ ड्रग्स व्यापार मामले में विशेष जांच दल (एसटीएफ) के पास प्रमाण मौजूद हैं.’ साफ़ है कि पंजाब सरकार अब इस कार्रवाई को आगे बढ़ाए और एसटीएफ की मदद करें. केजरीवाल के बहाने एसटीएफ के पास प्रमाण (मंत्री के अनुसार) तो आ गए.
भारत के वर्तमान मानहानि के कानून की बनावट कुछ ऐसी है कि ताक़तवर व्यक्ति करोड़ों रुपये की मानहानि का केस दर्ज कर हमेशा अपने ख़िलाफ़ विरोध को दबाता आया है. जो पैसे से मजबूत और संगठित है वो लड़ाई जारी रखता है.
ऐसे में यह प्रश्न भी उठेगा कि क्या माफी मांग लेने से लगाए गए आरोप झूठे हो गए?
यह सवाल फिसलन भरी ज़मीन पर टिका है. चूंकि केजरीवाल एक पब्लिक फिगर हैं और सक्रिय राजनीति में हैं, इसलिए ये प्रश्न लाजमी हैं. गौर फरमाइए, ऐसे मुकदमें एक नागरिक पर लगे होते तो उसकी मुसीबतें क्या होती? शायद वही जो आज केजरीवाल की है. क्योंकि केजरीवाल के मुकदमे टैक्स पेयर्स के पैसे से नहीं लड़ा जाना है.
ये पैसे उन्हें अपनी जेब से देने होंगे. इसका मतलब यह नहीं हुआ कि लगाए गए आरोप झूठे साबित हो गए बल्कि उन्होंने खुद को कोर्ट-कचहरी के चक्करों से मुक्त कर लिया है.
इसे पत्रकारिता के संदर्भ में भी समझने की कोशिश कर सकते हैं. हाल ही में ‘द वायर’ पर जय शाह ने सौ करोड़ का मानहानि का मुकदमा दायर किया है. क्या द वायर के पास सौ करोड़ देने को हैं या जेठमलानी जैसी फीस वे दे सकते हैं?
एक स्वतंत्र रूप से चल रहे मीडिया संस्थान पर यह मुकदमा सिर्फ इसी उद्देश्य से किया गया कि वे शांत हो जाए. बाकी मीडिया संगठनों को यह संदेश देने कि कोशिश की गई कि वे भी जय शाह को हाथ न लगाएं. इसी तरह से परंजॉय गुहा ठाकुरता पर अंबानी का मानहानि का मुकदमा है. ऐसे तमाम उदाहरण है जहां समझौता करने की मजबूरी आ पड़ती है. आपको लंबी लड़ाई लड़ने के लिए छोटी-छोटी कुर्बानियां देनी पड़ती है.
इस समय बहस की जरूरत है मानहानि कानून के मौजूदा स्वरूप पर, जहां बोलने और लिखने की मूल आजादी पर पहरेदारी लग जाती है. यह भी कोई कैसे तय करता है कि उसके मानहानि की सामाजिक और आर्थिक कीमत दस करोड़ या सौ करोड़ है?
जब तक मानहानि का कानून बना रहेगा, कानून सामंतों के हाथ की डुगडुगी बना रहेगा. कमजोर फंसता रहेगा. एक पर एक केस कर सैकड़ों को खामोश करने की कोशिश की जाते रहेगी. ‘श्यू द मैसेंजर’ का यह तरीका दरअसल लोकतंत्र के लिए ख़तरा है.
Also Read
-
Presenting NewsAble: The Newslaundry website and app are now accessible
-
In Baramati, Ajit and Sunetra’s ‘double engine growth’ vs sympathy for saheb and Supriya
-
A massive ‘sex abuse’ case hits a general election, but primetime doesn’t see it as news
-
Mandate 2024, Ep 2: BJP’s ‘parivaarvaad’ paradox, and the dynasties holding its fort
-
Know Your Turncoats, Part 9: A total of 12 turncoats in Phase 3, hot seat in MP’s Guna