Newslaundry Hindi
भगत सिंह: सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज
भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है. यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें. किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है.
यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है. बस किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था. जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है.
ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है. इन ‘धर्मों’ ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं.
कोई विरला ही हिंदू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाकी सब के सब अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डंडे लाठियां, तलवारें-छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सिर फोड़-फोड़कर मर जाते हैं. बाकी कुछ तो फांसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिए जाते हैं. इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डंडा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है.
यहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिंदुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाए चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं.
सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो सांप्रदायिक आंदोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और सांप्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आई हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.
दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था. आज बहुत ही गंदा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम हैं, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत हो.
अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों के भीतर से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं मिटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है. कहां वे दिन थे कि स्वतंत्रता की झलक सामने दिखाई देती थी, कहां आज यह दिन कि स्वराज एक सपना मात्र बन गया है. बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है. जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गई, कल गई, वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी है कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है.
यदि इन सांप्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है. असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियां दीं. उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गई थी. असहयोग आंदोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से सांप्रदायिक नेताओं के धंधे चैपट हो गए. विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है. कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धांतों में से यह एक मुख्य सिद्धांत है. इसी सिद्धांत के कारण ही ‘तबलीग’, ‘तनकीम’, ‘शुद्धि’ आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है.
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है. दरअसल, भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है. भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धांत ताक पर रख देता है.
सच है, मरता क्या न करता. लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यंत कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती. इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए और जब तक सरकार बदल न जाए, चैन की सांस नहीं लेना चाहिए.
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है. गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं. इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो. इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जाएंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी.
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहां भी ऐसी ही स्थितियां थीं, वहां भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूतम-पैजार करते रहते थे. लेकिन जिस दिन से वहां श्रमिक-शासन हुआ, वहां का नक्शा ही बदल गया था. अब, वहां कभी दंगे नहीं हुए. अब वहां सभी को ‘इंसान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं. जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी. इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे. लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गई है और उनमें वर्ग-चेतना आ गई है इसलिए अब वहां से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आती.
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आई. वह यह कि वहां दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन सभी हिंदू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे. यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे. वर्गीय-चेतना का यही सुंदर रास्ता है, जो सांप्रदायिक दंगे रोक सकता है.
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से, जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं. उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से- हिंदू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन सभी को पहले इंसान समझते हैं, फिर भारतवासी. भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहरा है. भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए. उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं.
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था. वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं. न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सबको मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता. इसलिए गदर पार्टी जैसे आंदोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिंदू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे.
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं. झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुंदर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं. यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं. धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें.
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताए इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमें बचा लेंगे.
Also Read
-
A conversation that never took off: When Nikhil Kamath’s nervous schoolboy energy met Elon Musk
-
Indigo: Why India is held hostage by one airline
-
2 UP towns, 1 script: A ‘land jihad’ conspiracy theory to target Muslims buying homes?
-
‘River will suffer’: Inside Keonjhar’s farm resistance against ESSAR’s iron ore project
-
Who moved my Hiren bhai?