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भाजपा-कांग्रेस के दरवाजे तक पहुंची फेसबुक की डाटा चोरी
कैंब्रिज एनालिटिका द्वारा फेसबुक यूजर्स की सूचनाएं चुरा कर राजनीतिक इस्तेमाल के लिए बेचने का मसला गंभीर होता जा रहा है. अमेरिका और ब्रिटेन के बाद अब भारत में भी दो बड़ी पार्टियां- भाजपा और कांग्रेस- आमने-सामने हैं. ये पार्टियां एक-दूसरे पर कैंब्रिज एनालिटिका की सेवाएं लेने का आरोप लगा रही हैं.
भारत में कैंब्रिज एनालिटिका एक सहयोग कंपनी ओवलेनो के जरिए अपना कारोबार करती है. इसके मालिकों में से एक जदयू के सांसद केसी त्यागी के पुत्र अमरीश त्यागी है. ओवलेनो की वेबसाइट पर बुधवार तक क्लाइंट लिस्ट में भाजपा, जदयू और कांग्रेस का नाम दर्ज था.
अब फेसबुक के मुखिया जुकरबर्ग भी चौतरफा दबाव में गड़बड़ियों को दुरुस्त करने का भरोसा दे रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि फेसबुक पर पहली बार निजता के उल्लंघन या फेक न्यूज़ को बढ़ावा देकर आमदनी करने का आरोप लगा है. मौजूदा प्रकरण उसके लिए बहुत बड़ा झटका है.
‘वैनिटी फेयर’ में निक बिल्टन ने जुकरबर्ग और शेरिल सैंडबर्ग को करीब से जाननेवाले के हवाले से लिखा है कि इस स्कैंडल ने फेसबुक के किसी भी बड़े अधिकारी के किसी सरकारी पद के लिए गंभीरता से चुनाव लड़ने की संभावनाओं पर पानी फेर दिया है तथा चीन में अपने पांव पसारने की मार्क जुकरबर्ग की कोशिशों को जोरदार धक्का लगा है.
इन शंकाओं की आहट हम बीते दिनों की घटनाओं में देख सकते हैं. फेसबुक का बाजार मूल्य इस हफ्ते करीब पचास बिलियन डॉलर गिर चुका है. अभी हफ्ते का आधा बाकी ही है. कंपनी के एक शेयरधारक फान यूआन ने अनेक निवेशकों की तरफ से बीस मार्च को सैन फ्रांसिस्को की संघीय अदालत में फेसबुक पर मुकदमा दायर कर दिया है. इन निवेशकों में वे लोग शामिल हैं जिन्होंने पिछले साल तीन फरवरी और इस वर्ष 19 मार्च के बीच फेसबुक के शेयर खरीदे हैं.
दो अमेरिकी सीनेटरों ने जुकरबर्ग को कांग्रेस के सामने हाजिर करने की मांग की है. ऐसी ही मांग ब्रिटेन की एक संसदीय समिति ने की है. अमेरिका का संघीय व्यापार आयोग इस बात की जांच कर रहा है कि कहीं फेसबुक ने निजता के कुछ प्रावधानों का उल्लंघन तो नहीं किया है. यह भी कहा जा रहा है कि 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में रूसी हस्तक्षेप के आरोपों पर फेसबुक के रवैये से नाराज कंपनी के मुख्य सुरक्षा अधिकारी एलेक्स स्टामोस नौकरी छोड़ रहे हैं. फिर फेसबुक डिलीट करने का अभियान, जिसका समर्थन व्हाट्सएप्प के सह-संस्थापक ब्रायन एक्टन ने भी किया है. दिलचस्प है कि एक्टन और जैन कोम ने 2014 में व्हाट्सएप्प को 16 बिलियन डॉलर में फेसबुक को बेच दिया था. कोम अभी भी व्हाट्सएप्प के प्रमुख हैं, पर एक्टन ने इस साल के शुरू में उसे छोड़ दिया था.
शुक्रवार (16 मार्च) को जब रात में फेसबुक के वाइस प्रेसीडेंट पॉल ग्रेवाल ने जब फेसबुक के न्यूजरूम पेज पर लिखा कि फेसबुक डेटा कंपनी स्ट्रेटेजिक कम्यूनिकेशंस लैबोरेटरी और इसकी पोलिटिकल ईकाई कैम्ब्रिज एनालिटिका से नीतियों के उल्लंघन के कारण संबंध तोड़ रहा है.
इस बयान से पर्यवेक्षकों को ऐसा लगा कि ट्रंप के चुनाव के समय फेक न्यूज फैलाने के मामले में फेसबुक जैसे बहानेबाजी कर रहा था, वैसा इस बार नहीं हैं. पर फेसबुक के इस बयान के साथ मामला कुछ और था. अगले दिन ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने लंदन के ‘द गार्डियन’ के साथ एक धमाकेदार खबर छापी. इस खबर में बताया गया था कि कैम्ब्रिज एनालिटिका ने करीब पांच करोड़ फेसबुक यूजर्स की सूचनाओं को हासिल किया था और उनका राजनीतिक इस्तेमाल हुआ था. इस खबर के आते ही लोगों को यह समझते देर नहीं लगी कि शुक्रवार रात का फेसबुक का बयान असल में इस खबर के असर को कम करने की कोशिश थी.
बहरहाल, एक नजर डालते हैं कि आखिर यह पूरा प्रकरण है क्या.
संग्रहित सूचना और इसे पाने की प्रक्रिया- डेटा के तौर पर यूजर की पहचान, दोस्तों का विवरण और उनके लाइक्स जैसी सूचनाओं को इकठ्ठा कर लोगों का आकलन किया गया और आकलन के आधार पर उनको खास डिजिटल विज्ञापन भरजे गये. साल 2014 में यूजर को एक व्यक्तित्व सर्वेक्षण में हिस्सा लेने और एक एप्प डाउनलोड करने को कहा गया. यह एप्प यूजर और उसके दोस्तों की कुछ निजी सूचनाओं को हासिल कर लेता था. उस समय ऐसा करने की इजाजत फेसबुक की ओर से थी, पर अब यह प्रतिबंधित है.
इस तरह से सूचनाएं जुटा कर उनके विश्लेषण का तौर-तरीका ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के साइकोमेट्रिक्स सेंटर ने तैयार किया था, किंतु यह सेंटर एनालिटिका के साथ काम करने को तैयार न था. उसी विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर एलेकसांद्र कोगन को इस परियोजना में रूचि थी. अमेरिकी-रूसी मूल के इस प्रोफेसर ने अपना एक एप्प बनाया और जून, 2014 से काम में लग गया.
यह खुलासा किया है क्रिस्टोफर वाइली ने, जो डेटा उगाहने के काम का गवाह है. उसके मुताबिक अपने एप्प के जरिये कोगन ने पांच करोड़ के लगभग प्रोफाइल एनालिटिका को दिया. इन लोगों में से सिर्फ लगभग 2.70 लाख ने डेटा लेने पर सहमति दी थी, पर उन्हें भी यह कहा गया था कि यह सब अकादमिक शोध के लिए जुटाया जा रहा है. ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ की रिपोर्ट के मुताबिक, फेसबुक इसे डेटा ब्रीच नहीं मानता है क्योंकि कंपनी अकादमिक शोध के लिए डेटा देती रही है और यूजर भी अपना प्रोफाइल बनाते हुए इसकी मंजूरी देता है. लेकिन इस डेटा को किसी व्यावसायिक हित के लिए तीसरी पार्टी को देने की मनाही है.
अब एनालिटिका प्रोफेसर पर फेसबुक के नियम तोड़ने का आरोप लगा रही है और प्रोफेसर का कहना है कि उसे बलि का बकरा बनाया जा रहा है. एनालिटिका का यह भी दावा है कि मामले का पता चलने पर दो साल पहले सारा डेटा डिलीट कर दिया गया था, पर अखबार का दावा है कि यह डेटा या उसकी कॉपी अभी भी मौजूद हैं. माना जा रहा है कि एनालिटिका के डेटा के आधार पर ट्रंप के चुनाव अभियान ने अपनी रणनीति बनायी थी और वोटरों को प्रभावित किया था. बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन के स्टाफ के साथ फेसबुक के अधिकारियों की निकटता के सबूत सार्वजनिक हुए हैं.
इधर भारत में भी भाजपा, जदयू और कांग्रेस के एनालिटिका या उसकी सहयोगी कंपनियों- ओवलेनो और एससीएल इंडिया – से संबंधों पर चर्चा गर्म है. कई तरह के ‘सबूत’ स्क्रीन शॉट और प्रेस रिलीज के रूप में मीडिया और सोशल मीडिया में हैं. बीते कुछ सालों से चुनाव प्रबंधन को टेक्नोक्रेट्स के हाथों में देने की परिपाटी हमारे यहां बढ़ी है और यह बात बेहिचक मानी जा सकती है कि सोशल मीडिया के डेटा का इस्तेमाल भारत में भी मार्केटिंग और पॉलिटिक्स के लिए होता है. यह अलग बात है कि इसमें कितना वैध है और कितना अवैध. इसका हिसाब तो ठोस जांच से ही हो सकता है जिसकी कोई उम्मीद नहीं है.
इस संबंध में हमें यह ख्याल रखना होगा कि फेसबुक या किसी अन्य सोशल मीडिया पर रखी सूचना से कहीं अधिक डेटा आधार संख्या और उससे जुड़ी सेवाएं के जरिए उपलब्ध है तथा उसकी सुरक्षा को लेकर कोई भी पुख्ता दावा नहीं किया जा सकता है. आधार ऑथोरिटी के अलावा इस काम में लगे कुछ अन्य (विदेशी भी शामिल हैं) एजेंसियों के पास आधार का डेटा है. रोड पर और गली-मोहल्लों में आधार बनाते और विभिन्न कंपनियों के लिए आधार लिंक कराते ठेले-खोमचे भी डेटा से लैस हैं. हद लापरवाही की यह है कि देश का अटॉर्नी जनरल सर्वोच्च न्यायालय में कह देता है कि आधार कार्यालय की दीवार ऊंची और मोटी है.
यह सिर्फ मूर्खता नहीं है, यह डेटा को लेकर गंभीर न होने की पराकाष्ठा है. और, यह भी न भूला जाए कि प्रधानमंत्री मोदी दावोस में डेटा का लालच दिखा कर निवेशकों को ललचा आये हैं और यहां आकर मन की बात बताये हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को बढ़ावा देना है. डेटा सुरक्षा के कानून बनाने से कुछ नहीं होगा. डेटा रहेगा, तो उसकी लूट भी होगी.
भले ही फेसबुक के मुखिया जुकरबर्ग गलती मानते हुए सुधार का उपाय करने का भरोसा दिला रहे हैं, पर इससे कुछ होना नहीं है. और, फिर यह भी कि फेसबुक के अलावा हजारों एप्प भी हैं. वे सब कोरस में गा रहे हैं- हमारे जुनून से बच कर कहां जाओगे!
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