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इच्छामृत्यु: जब मृत्यु ही इलाज हो
जीवन में ऐसी परिस्थितियां आती हैं जब जीवन बोझिल लगते लगता है और मौत ही एकमात्र विकल्प दिखने लगता है. स्वतंत्र विचार करने में समर्थ व्यक्ति के लिए कहा जा सकता है कि वह अपने जीवन के अच्छे-बुरे फैसले स्वंय ले सकता है. साथ ही वह यह भी तय कर सकता है कब उसे अपने जीवन की गति को विराम देना है.
जीवन समाप्त करने का फैसला एक आसान फैसला नहीं है. इच्छामृत्यु (यूथेनासिया) तभी एक विकल्प है जब बीमारी का निदान सिर्फ उम्मीदों और आशाओं पर टिका है. जब जीवन, वक्त के साथ अपने और परिजनों के लिए कठिनाईयों, पीड़ा, बोझ और निर्भरता में तब्दील हो जाती है.
हाल ही में, भारतीय उच्चतम न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में पैसिव यूथेनासिया को कानूनी मंजूरी दे दी है. हालांकि इच्छामृत्यु को तभी इस्तेमाल में लाया जा सकेगा जब पेशेवर चिकित्सकों द्वारा पीड़ित को जिंदा रखने के लिए सभी जरूरी प्रयास किए जा चुके हों.
अगर कोई भी पुरुष या स्त्री लंबे समय से कोमा की हालात में पड़ा है और वह जीना नहीं चाहता, तो उसे ‘लिविंग विल’ की अनुमति दी जानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते वक्त महात्मा गांधी का कथन दोहराया, “जैसे छुरी लिया हुआ एक सर्जन निस्वार्थ भाव से अहिंसा का पालन करता है, ऐसे ही कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में, उन्हें पीड़ित के पक्ष में जाकर उसके प्राण को कष्ट से मुक्त करना चाहिए.”
पैसिव यूथेनासिया के साथ एक नैतिक विरोधाभास है. यह कि व्यक्ति अपने जीवन का अंतिम व निर्णायक फैसला खुद नहीं ले सकता. ज्यादातर मामलों में वह अपने होशोहवास में नहीं होगा या कोमा में होगा. यह एक विशिष्ट स्थिति है और एक्टिव यूथेनेसिया से अलग है.
यहां एक ऐसा ही केस है जिससे इस मामले की जटिलता को समझने में आसानी होगी, जब जीवन दुख का बायस है और मौत दुखों से मुक्त हो जाने का जरिया.
फ्रेंच बोलने वाली 26 वर्षीय बेल्जियम निवासी ‘एम’ फिलहाल अस्थाई रूप से दिल्ली में रह रही हैं. नवंबर 2016 में, उनकी मां को हुई एक लाइलाज बीमारी का पता चला. इसमें सम्मानजनक जीवन जीने की आशायें न्यूनतम थी. इसलिए, अपने परिवार के सलाह मशविरा से उन्होंने एक्टिव यूथेनेसिया का विकल्प चुना.
एम के परिवार में चार सदस्य हैं, जिसमें उनके माता-पिता और एक बड़ा भाई (जिससे वह बहुत करीब हैं) हैं. एम की मां उनके लिए हिम्मत का स्रोत थीं. एम यह बात अच्छे से समझती हैं कि उनकी बीमार मां, जो बिल्कुल स्वतंत्र हैं, वे अपने परिवार पर बोझ नहीं बनना चाहती थीं.
जब एम की मां खुद को इस फैसले के लिए तैयार कर रही थी, वह वक्त परिवार के लिए बहुत ही कठिन था. उनकी मां ने कुछ वक्त लिया, कुछ सप्ताह बाद, लेकिन जब उन्होंने तय कर लिया, उनकी अंतिम विदाई से एक सप्ताह पहले, वे शांत रहीं. अमूमन वो बातूनी थी. एम का परिवार उनके जाने के पहले, अंतिम सप्ताह में उन्हें सारी खुशियां देना चाहता था.
उन्होंने घर में एक सरप्राइज़ पार्टी का आयोजन किया. घर की सजावट हुई. मां की पसंद के केक और पकवान बनाए गये. “मां भी उत्साहित थी और पार्टी में सक्रिय भूमिका निभा रहीं थीं. उन्होंने बेड के साथ खड़े होकर डांस स्टेप भी किए. वह वक्त परिवार के लिए बेहद भावुकता भरे थे”, एम याद करती हुई कहती हैं.
इसके बाद वह दिन आया, जब उन्हें ब्रसेल्स के अस्पताल ले जाया गया. एक बड़े से खाली कमरे में, वे मृत्युशैया पर लेटी थी, उनकी पीठ परिवार की तरफ थी. उनके सामने खिड़की थी जिससे सुबह के सूर्य की किरणें अंदर आ रही थीं. परिवार व्याकुल था.
एम अपनी मां से बात कर रही थी, वे अपने अंतिम क्षणों में क्या सोच रही थीं. हालांकि उनकी मां ने किसी तरह की कोई भावना प्रकट नहीं की. वे शांतचित्त पड़ी रहीं.
पहले इंजेक्शन से उन्हें नींद आ गई और दूसरे से वे हमेशा के लिए सो गईं. ऐसा लगा जैसे मृत्यु गहरी नींद में तब्दील हो गई. उनके पिता और भाई ने कमरा छोड़ दिया, एम वहीं रहीं. वे अपनी मां के साथ अकेली थी. वे उनके साथ लेट गईं, उन्हें पीछे से लिपटकर पकड़ा, उनके शरीर का ताप महसूस कर रही थी. उन्होंने वे बातें कहीं जो वे अपनी मां से कहना चाहतीं थीं लेकिन पहले कभी कह नहीं सकी थी. महत्वपूर्ण और सांसारिक बातें. मोहब्बत और नुकसान की बातें. जीवन और मृत्यु की बातें. एम ने अपनी मां को जोर से पकड़ा. इस अंत से एम को एहसास हुआ, एक नई शुरुआत हो रही है.
“मां के साथ समय बिताना जरूरी था,” एम कहती हैं. “वे मुझे सुन रही थी,” अंतिम क्षणों को याद करते हुए एम कहती हैं. एम की आंखों में आंसू छलक आते हैं. वे खुद को संभालने का प्रयास करती हैं.
ये आंसू उनकी मां के जीवन के अंत के गवाह हैं, जिन्होंने एक उदासीन जीवन के बरक्स मौत को चुना. लेकिन एम को लगता है कि उनकी मां उनसे जन्नत से भी संवाद करती हैं. उन्होंने अपने जीवन और मौत में स्वतंत्रता से फैसले लिए.
जीवन और मृत्यु दो उलझे हुए पहलू हैं. विभिन्न साहित्यों, आध्यात्म, धर्म और यहां तक की विज्ञान भी इस रहस्य को पूरी तरह से समझने में नाकाम रहा है. जीवन और मौत से जुड़ी कई धारणाएं हैं, किसी को भी साबित या खारिज करना मुश्किल है.
हालांकि, मृत्यु का अधिकार जीने के अधिकार का ही हिस्सा है लेकिन इच्छा-मृत्यु का विमर्श अभी भी पूरी दुनिया में सुलझाया नहीं जा सका है.
यह एक सरल दार्शनिक सिद्धांत पर आधारित है- “शांति से रहिए और शांति से जाइए.”
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