Newslaundry Hindi

पत्थलगड़ी: आदिवासियों की परंपरा, सरकार की नज़र में अपराध

पिछले साल नवंबर में झारखंड के हिन्दी अखबारों में कई दिनों तक पहले पन्ने पर एक विज्ञापन नमूदार होता रहा. यह विज्ञापन झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास की ओर से दिया गया था. विज्ञापन का मजमून था कि पत्थलगड़ी संविधान विरोधी और गरीबों को हमेशा गरीब रखने की साजिश है.

यहां साफ करते चलें कि पत्थलगड़ी झारखंड के मुंडा आदवासी समुदाय की परंपरा का हिस्सा है और सदियों से वे इस परंपरा का निर्वाह करते आ रहे हैं. पहले वे दो तरह की पत्थलगड़ी करते थे- ससंदिरी और सीमांदिरी.

ससंदिरी या दफन पत्थर के तहत मुंडा समुदाय पत्थर के नीचे अपने पूर्वजों की अस्थियां रखते हैं और पत्थर पर अपने मृत पूर्वज का नाम, जन्म तिथि और मृत्यु तिथि लिखते हैं. मुंडा समुदाय का मानना है कि ये पत्थर पूर्वजों की आत्मा का घर हैं. वे पर्व-त्यौहारों में इन पत्थरों को नहलाते हैं और फूल-मालाएं अर्पित करते हैं.

इसी तरह अपने रिहाइशी क्षेत्रों का सीमांकन करने के लिए मुंडा आदिवासी एक और पत्थर स्थापित करते हैं, तो उसे सीमांदिरी कहा जाता है.

ससंदिरी और सीमांदिरी के अलावा एक तीसरे तरह की पत्थलगड़ी भी होती है. हालांकि यह परंपरा हाल फिलहाल में शुरू हुई है. इस पत्थलगड़ी की शुरुआत सन 1996 में तब हुई थी, जब पंचायत (एक्सटेंशन टू शिड्यूल्ड एरियाज) एक्ट, 1996 यानी पेसा एक्ट आया. यह एक्ट संविधान की पांचवीं अनुसूचि में चिन्हित अनुसूचित क्षेत्रों में रहनेवाले लोगों को पारंपरिक ग्राम सभा के जरिये स्वशासन का अधिकार देता है.

खैर, हम बात कर रहे थे रघुवर दास सरकार द्वारा दिए गए विज्ञापन की. यह विज्ञापन प्रकाशित होने के बाद आदिवासियों की तरफ से तीखी प्रतिक्रिया दी गयी, तो राज्य के मंत्री नीलकंठ मुंडा को इस पर स्पष्टीकरण देना पड़ा. उन्हें यह कहना पड़ा कि पत्थलगड़ी अदिवासी परंपरा है. यह आदिवासियों की पहचान है और खाता-खतियान से भी बड़ी चीज है. सरकार इसके खिलाफ नहीं है बल्कि फर्जी पत्थलगड़ी के खिलाफ है.

झारखंड के जंगल में की गयी सीमांदिरी[/caption]

इस पूरे मामले को लेकर अखबारों में उतना ही छपा जितना सरकार की तरफ से कहा गया. सरकार के इस उटपटांग विज्ञापन से मुंडा समुदाय की नाराजगी और विज्ञापन में पोशीदा सरकार की मंशा को लेकर अखबारों में चुप्पी ही रही.

पेसा एक्ट स्वशासन के साथ ही यह एक्ट ग्राम सभा को और भी कई तरह के हक़ देता है. इसमें अनुसूचित क्षेत्रों के लिए राज्य व केंद्रीय बजट में ट्राइबल सब प्लान व अन्य योजनाओं पर ग्राम सभा व स्थानीय लोगों को नियंत्रण का अधिकार भी शामिल है. इसके साथ ही इस एक्ट में इन क्षेत्रों के ग्रामीणों को यह अधिकार भी दिया गया है कि सरकार अगर अनुसूचित क्षेत्रों की जमीन का अधिग्रहण करती है, तो उसे पहले ग्रामीणों से मशविरा करना होगा और उनसे सहमति लेनी होगी.

यही नहीं, एक्ट में ग्रामीणों को यह आजादी भी है कि वे अपनी जमीन से हटाये जाने का विरोध कर सकते हैं और इसे रोक सकते हैं. एक्ट में यह भी कहा गया है कि अदिवासियों की जमीन गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित नहीं की जा सकती है और अनुसचित क्षेत्र के लघु खनिज की नीलामी ग्राम सभा की अनुमति पर ही की जा सकती है. इस एक्ट में आदिवासियों को कुल 13 अधिकार मिले हुए हैं.

सन 1996 में इस एक्ट के पास होने के बाद आदिवासी अपने गांवों में 10 से 12 फीट के पत्थर गाड़ कर उसपर एक्ट में मिले अधिकारों के बारे में लिखने लगे, ताकि अपने अधिकारों को लेकर अदिवासियों में जागरूकता बढ़े.

यहां तक सबकुछ ठीक था. समस्या शुरू हुई वर्ष 2016 में, जब अंग्रेजी हुकूमत के वक्त अदिवासियों की जमीन की सुरक्षा को लेकर बनाये गये दो कानून छोटा नागपुर काश्तकारी और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव भाजपा की रघुवर दास सरकार ने राष्ट्रपति के पास भेजा.

कानून में संशोधन हो जाने से आदिवासियों की खेती योग्य जमीन का उपयोग ग़ैर कृषि कार्य में इस्तेमाल करने और बुनियादी ढांचा विकसित करने का हवाला देकर अधिग्रहण करने का अधिकार राज्य सरकार को मिल जाता है. हालांकि, सीएम रघुवर दास ने कहा था कि सरकार कानून से छेड़छाड़ नहीं करने जा रही है, बल्कि इसे और सरल किया जायेगा.

इधर, आदिवासियों ने कानून में संशोधन के प्रस्ताव की पुरजोर मुखालफत की और वे सड़कों पर उतरने लगे. 22 अक्टूबर, 2016 में प्रकाशित बीबीसी की एक रिपोर्ट बताती है कि जमीन अधिग्रहण के खिलाफ जगह-जगह हिंसक झडपें हुईं थीं, जिनमें 55 दिनों में आधा दर्जन गांववालों की मौत हो गयी थी.

आदिवासियों के कड़े विरोध को देखते हुए सरकार को संशोधन प्रस्ताव वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा. लेकिन, आदिवासियों में तब तक भय घर कर चुका था. उन्होंने पेसा एक्ट-1996 के तहत मिले अधिकारों को पत्थर पर उकेर कर उन्हें जगह-जगह लगाना तेज कर दिया. पत्थलगड़ी को संविधान विरोधी बताने का काम यहीं से शुरू होता है.

मुंडा समुदाय के लोगों का मानना है कि सरकार के इस विज्ञापन के पीछे एक सोची-समझी रणनीति है.

हालांकि, अखबार में विज्ञापन के बाद यह मामला शांत था, लेकिन अब फिर एक बार यह उफान पर है. 25 फरवरी को आदिवासियों ने कई इलाकों में बड़े पैमाने पर पत्थलगड़ी की. इस मामले में कई लोगों को गिरफ्तार किये जाने की खबरें हैं.

वहीं, झारखंड के सीएम रघुवर दास ने 28 फरवरी को एक कार्यक्रम में कहा कि पत्थलगड़ी की आड़ में देश विरोधी शक्तियां सक्रिय है और सरकार इन्हें कुचलकर रख देगी।

पत्थलगड़ी को संविधान विरोधी बतानेवाले सरकारी विज्ञापन के सवाल पर खूंटी के सिगीद गांव के उदारकांत मुंडा कहते हैं, ‘पत्थलगड़ी आदिवासियों की सदियों पुरानी परंपरा है. गैर आदिवासी सीएम रघुवर दास को संविधान के बारे में पता नहीं है. असली बात तो यह है कि सरकार चाहती है कि आदिवासी अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में जाने ही नहीं. चूंकि पत्थलगड़ी के तहत संवैधानिक अधिकारों को पत्थर पर लिखकर जगह-जगह लगाया जाता है और आदिवासी इन्हें पढ़कर अपने अधिकारों के बारे में जान रहे हैं, इसलिए सरकार इसे संविधान विरोधी बता रही है ताकि ऐसे पत्थर न लगे.’

उन्होंने उल्टे कहा कि आदिवासी सलाहकार परिषद में सभी 30 सदस्य आदिवासी होने चाहिए, लेकिन इसके अध्यक्ष रघुवर दास खुद गैर-आदिवासी हैं. यह संविधान के खिलाफ है.

अख़बारों में छपे उक्त विज्ञापन में यह भी कहा गया था कि गरीबों के लिए किये जा रहे विकास कार्यों में बाधा पहुंचानेवालों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई की जायेगी और गरीब को हमेशा गरीब बनाये रखने की साजिश है पत्थलगड़ी. इसके जवाब में उदारकांत मुंडा कहते हैं, ‘हम विकास विरोधी नहीं हैं और न ही पत्थलगड़ी गरीबों को गरीब बनाये रखने की साजिश है. हम भी चाहते हैं कि हमारे गांवों में विकास हो. लेकिन, संविधान के मुताबिक विकास योजनाओं का फंड ग्राम सभा को मिलना चाहिए, किसी निजी ठेकेदार को नहीं. मगर, ऐसा नहीं हो रहा है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘आदिवासी गरीब नहीं हैं. हमलोग भारत सरकार हैं. भारत हमारा है. केंद्र और राज्य सरकार हमारी नौकर है. हमारे पास इसका सबूत भी है. आप जो एक रुपये का नोट देखते हैं, वही नोट हमारा है.’

उदारकांत की बातों से इत्तेफाक रखते हुए आदिवासी जन परिषद के महासचिव प्रेमशाही मुंडा कहते हैं, “पत्थलगड़ी आदिवासियों की बहुत पुरानी परंपरा है और संविधान विरोधी कतई नहीं है. सरकार नहीं चाहती है कि आदिवासी संविधान प्रदत्त अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हों और इसलिए वह पत्थलगड़ी को संविधान विरोधी बताने की कुचेष्टा कर रही है.”

प्रेमशाही मुंडा की यह बात कुछ हद तक सही भी है. संवैधानिक अधिकारों को पत्थरों पर उकेरकर जगह-जगह लगा दिये जाने से आम आदिवासियों में अपने हक को लेकर जागरुकता बढ़ रही है. आज संविधान की पांचवीं अनुसूचि व छोटानागपुर काश्तकारी और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम में प्रदत्त अधिकार उदारकांत और उनके जैसे आम आदिवासियों की जुबान पर हैं.

आदिवासियों को लेकर काम करनेवाली सामाजिक कार्यकर्ता व झारखंड की पत्रकार दयामनी बारला इस संबंध में कहती हैं, ‘संविधान में अनुसूचित क्षेत्रों में रहनेवाले अदिवासियों व ग्राम सभा को जो अधिकार दिये गये हैं, रघुवर सरकार उन अधिकारों से आदिवासियों को वंचित करना चाहती है. जबरन आदिवासियों की जमीन छीनना चाहती है. इसके विरोध में आदिवासी संविधान में मिले अधिकारों को पत्थर पर उकेरकर सार्वजनिक स्थलों पर लगा रहे हैं. इससे आदिवासियों में जागरूकता बढ़ रही है. इसके साथ ही पत्थलगड़ी के द्वारा आदिवासी संगठित भी होने लगे हैं. यह सरकार को नागवार गुजर रही है इसलिए सरकार ने आदिवासियों की एकता तोड़ने और संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखने के लिए उनकी संस्कृति को ही असंवैधानिक घोषित कर दिया है.’

अखबारों में छपे उक्त विज्ञापन के खिलाफ आदिवासी सड़कों पर नहीं आये, तो इसके पीछे एक वजह यह भी है कि वे सरकार से उलझना नहीं चाहते थे. लेकिन, इसका यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि वे आगे भी इसी तरह चुप्पी साधे रहेंगे. पूर्व में आदिवासी कोएल-कारो हाइडल प्रोजेक्ट के खिलाफ अपनी ताकत दिखा चुके हैं.

सन् 1957 में दूसरी पंचवर्षीय योजना के तहत अस्तित्व में आयी कोएल-कारो हाइडल पावर प्रोजेक्ट को ठंडे बस्ते में इसलिए डाल देना पड़ा था कि इससे एक लाख अदिवासियों को न केवल अपना घर-बार छोड़ना पड़ता बल्कि उनके पूर्वजों की अस्थियों पर रखे पत्थर भी बह जाते, जो आदिवासियों को मंजूर नहीं था. इस प्रोजेक्ट के खिलाफ आदिवासियों ने अहिंसक तरीके से विरोध किया था. जब सरकार ने आदिवासियों के लिए दो मॉडल गांव बनाने की पेशकश की थी तो आदिवासियों ने कहा था कि पहले ससंदरी के लिए ठिकाना ढूंढा जाये.

उक्त प्रोजेक्ट का काम शुरू करने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों की तरफ से तमाम तरह के हथकंडे अपनाये गये, लेकिन आदिवासी अपनी मांगों को लेकर अडिग रहे और अंततः लड़ाई जीत ली थी.
आदिवासियों का कहना है कि वे ऐसी और भी लड़ाइयां लड़ने के लिए तैयार हैं.