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हरियाणा की खाप पंचायतें: समरथ को नहिं दोष गोसाईं
भारतीय न्यायालयों के समानांतर अपनी आक्रान्ता छवि कायम करने वाली हरियाणा की खाप पंचायतें आज अपना वजूद बचाने को विवश हो गयी हैं. मुग़ल काल से चली आ रही ये गोत्रीय खाप पंचायतें अलग-अलग क्षेत्र में बसे बहुमत वाले गोत्र के आधिपत्य में अपने-अपने क्षेत्र विशेष की सभी जातियों तथा अल्प गोत्रीय समूहों पर अपने गोत्र के हित में नियमों व शर्तें थोप कर राज करती रही हैं .
कहने को तो ये खाप पंचायतें अपने क्षेत्र विशेष की सभी जातियों व सभी गोत्रों का प्रतिनिधि होने का दावा करती हैं और सर्वजातीय खाप कहलाती हैं, आज भी ऐसा ही प्रचारित किया जा रहा है, परन्तु वास्तविकता इसके एकदम विपरीत है. इन खापों के प्रधान अपने गोत्र विशेष से ही बनाए जाते हैं, अन्य गोत्र या जाति का व्यक्ति कभी इनकी प्रधानगी नहीं पा सकता फिर भी वे बाकी अल्पसंख्यक गोत्रों का प्रतिनिधि होने का दम भरती हैं.
हरियाणा में प्रमुख खाप पंचायतें– मलिक गोत्र की गठवाला खाप, लोहारू बावनी के बावन, बाढडा के पच्चीस तथा जींद के पास के सात गांव को मिलाकर स्योरण गोत्र की चौरासी खाप, दादरी के सांगवान गोत्र के चालीस गांव को मिलाकर सांगवान खाप और निकट लगते राजस्थान के पूनिया गोत्र के 360 गांव के क्षेत्र को पूनिया खाप कहा जाता है.
आमतौर पर किसी खाप क्षेत्र में निवास करने वाले बहुमतीय गोत्र के अलावा अन्य जातियों तथा अल्प गोत्रीय लोगों को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता रहा है तथा उन्हें अरड़-फरड़ कहकर हतोत्साहित किया जाता रहा है. इन खाप पंचायतों में जातीय बहिष्कार तथा गांव निकाला के आदेशों का प्रहार ज्यादातर इन्हीं अरड़-फरड़ लोगों को झेलना पड़ता है.
जाट और खाप का रिश्ता
गोत्र आधारित खाप पंचायतों का चलन प्रारम्भ से ही जाट जाति में ज्यादा रहा है. जिस प्रकार हिन्दू धर्म में शुद्र वर्ग को हिन्दू होते हुए भी धर्म के तमाम अधिकार कभी प्रदान नहीं किये गए, हमेशा दुत्कारा गया, उसी प्रकार खापों द्वारा भी बहुमत वाले गोत्र को ही सभी विशेष अधिकार मिले हुए हैं और अन्य अल्प गोत्रीय जातियां शुद्रों के समान मानी जाती हैं.
हमारे देश की राजनैतिक पार्टियों ने भी खाप व्यवस्था का खूब फायदा उठाया और विधानसभा, लोकसभा तथा जिला परिषद् व ब्लाक समिति के चुनावों में भी खाप की ताकत के आधार पर टिकट दी जाने लगी.
1990 के बाद जब ओबीसी के लिए रिजर्वेशन की व्यवस्था बनी. इसी समय जाटों ने भी खुद के लिए ओबीसी में आरक्षण की मांग रखी. इसे आरक्षण का लाभ पाने वाले वर्ग को लगा कि अब उनको मिले हक़ में जाट डाका डालेंगे. इस स्थिति ने अन्य पिछड़ी जातियों और जाटों के बीच वैमनस्य पैदा कर दिया. सवर्ण जातियों की ऊपरी सतह (ब्राह्मण, वैश्य, राजपूत) में पहले से ही जाटों में बढ़ती राजनैतिक चेतना के कारण जलन शुरू हो चुकी थी.
जल्द ही जाट- गैर जाट के धड़े बनने प्रारम्भ हो गए और गोत्रीय खाप पंचायतों की सत्ता क्षीण होने लगी. सदियों से खापों के फतवों से प्रताड़ित अल्प गोत्रीय जाट तथा अन्य जातियां इन खापों के स्वम्भू कानूनों को तोड़ने लगी. ये जातियां खापों द्वारा निर्देशित फतवों के विरुद्ध जा कर अंतरजातीय या खाप द्वारा निषिद्ध गोत्रों में भी विवाह करने लगे. ऐसे लोगों को खापों द्वारा दी गई गांव निकाला या जातीय बहिष्कार या ऑनर किलिंग का विरोध कोर्ट-कचहरी में भी उठने लगा.
एक एनजीओ शक्ति वाहिनी द्वारा दायर खाप पंचायतों के हस्तक्षेप पर रोक लगाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हाल में फरवरी माह में अपनी कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा– “जहां विवाहयोग्य दो बालिग अपनी सहमति से विवाह करना चाहते हों, वहां किसी भी व्यक्ति या समूह को हस्तक्षेप करने तथा बालिग जोड़े को प्रताड़ित करने का कोई अधिकार नहीं है. किसी को भी समाज या कानून के “कानसाइंसकीपर” की भूमिका अदा करने की जरुरत नहीं है, चाहे वो समाज हो, माता–पिता हों या कोई अन्य.
कोर्ट के कड़े रुख तथा समाज में आ रहे बदलाव के कारण अब इन खापों को लगने लगा है कि उनकी खोखली हो चुकी जड़ों को किसी ऐसी खाद की जरूरत है जो उन्हें मृत्यु शैय्या पर जाने से पहले संबल दे सके. इसी धारा पर काम करते हुए अब खाप पंचायतें अपने राजनैतिक आकाओं का आसरा ले रही हैं. मलिक गोत्र की गठवाला खाप के पुरोधा दादा घासी राम मलिक की इसी फरवरी, 2018 में आयोजित जयंती समोराह में बिहार के राज्यपाल सतपाल सिंह मलिक, केंद्रीय इस्पात मंत्री बिरेंदर सिंह तथा हरियाणा के कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनखड़ की मौजूदगी खापों की राजनेताओं संग गलबहियां कर अपना प्रभाव बढ़ाने तथा अपना अस्तित्व कायम रखने की एक अहम कोशिश ही माना जा रहा है.
समाज हितैषी छवि खोजते खाप
समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज करने तथा अपनी समाज हितैषी छवि प्रदर्शित करने हेतु अब खापें नकारात्मक की बजाय कुछ ऐसे निर्देश जारी करने लगी हैं जिससे किसी को कोई आपत्ति न हो और खाप का रुतबा भी दिख जाए. इसी कड़ी में मलिक खाप ने भी एक छह सूत्री प्रस्ताव पारित किया है जिसमें कन्या भ्रूणहत्या, घूंघट प्रथा, मृत्यु भोज, विवाह समारोह में बंदूक चलाना, दहेज़ लेना-देना तथा डीजे बजाने पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कही गयी है.
इनमें से शिक्षा के प्रसार तथा खापों की दाब ढीली पड़ने के कारण घूंघट तथा मृत्यु भोज जैसी कुरीतियां तो पहले ही काफी हद तक कमजोर हो गयी हैं. विवाह समारोहों में बंदूक से हवाई फायर करने की कारवाई कोई सामजिक प्रथा नहीं है बल्कि यह कुछ तथाकथित धनाढ्य लोगों का एक दिखावा करने का प्रपंच मात्र है. आम आदमी का इससे कोई लेना देना नहीं हैं.
दहेज़ की मार और भ्रूण हत्या का दंश समाज को झेलना पड़ रहा है, इस क्षेत्र में समाज को जागरूक करने व नियंत्रात्मक कानूनों की अनुपालना में कड़ाई बरतने की आवश्यकता है.
खाप पंचायतों पर मुख्य दाग है अंतरजातीय या निषिद्ध गोत्रों में विवाह की प्रक्रिया पर इन खापों का अड़ियल रवैया. ऐसे कड़े फतवे जारी करना, जिनका अंत ‘आनर किलिंग’ के कदम में ही परिणति है. अब बदलते समय तथा शिक्षा के प्रादुर्भाव के कारण युवक/युवतियां अपना साथी स्वयं चुनने का अधिकार मांगने लगे हैं. इसमें कई बार अलग जाति तथा खापों द्वारा निषिद्ध गोत्र व्यवस्था इसमें अवरोध पैदा करती है तथा प्रेमी जोड़े को या तो स्वयं जीवन लीला समाप्त करनी पड़ती है या खापों/समाज के दवाब में आनर किलिंग का दंश झेलना पड़ता है.
हां, हाई सोसाइटी के लोगों पर इसका न कोई प्रभाव पड़ता और ना ही खाप की हिम्मत पड़ती है कि उसमें हस्तक्षेप करें. इसलिए यदि समाज के ऊंचे वर्ग के लोग इन तथाकथित रीति रिवाजों को अमान्य कर पहल करें तो एक शुभ संकेत समाज को मिलता है. भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय बंसीलाल की सांसद पुत्री श्रुति चौधरी के अंतरजातीय विवाह का उदाहरण एक प्रकाश स्तम्भ का काम कर सकता है.
लिंगानुपात और खापों का रवैया
हरियाणा में चिंताग्रस्त स्तर तक घट चुके लिंगानुपात के कारण विवाह योग्य लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में काफी कम है. ऐसे माहौल में खापों द्वारा अंतरजातीय विवाह का विरोध तथा लम्बी निषिद्ध गोत्रीय सूचि की कड़ाई से अनुपालना ने समाज में एक अजीब स्थिति पैदा कर दी है. हर गांव में 20 से 35 वर्ष के बीच की आयु के सैंकड़ों युवक विवाह के लिए तरस रहे हैं, जिसके परिणाम प्रदेश में बढ़ते बलात्कारों के रूप में परिलक्षित हो रहे हैं.
अब लड़के दूसरे प्रदेशों मसलन बिहार, बंगाल, असम तथा अन्य राज्यों से दलालों के माध्यम से लड़कियों की अवैध खरीद-फरोख्त का धंधा चल रहा है. ऐसे दस से बीस उदाहरण लगभग हर गांव में देखने को मिल रहे हैं. इन खरीद कर लाई गयी लड़कियों को ‘मोलकी’ बोला जाता है.
दलाल इन्हें कुछ दिन के लिए एक को बेचकर, बाद में फिर से किसी दूसरे को बेंच देते हैं. अगर प्रथम क्रेता कोई अड़चन पैदा करता है तो उसे गैर कानूनी खरीद–फरोख्त का हवाला देकर पुलिस केस का भय दिखाकर चुप करने को बाध्य कर दिया जाता है. हरियाणा सरकार को इस ओर विशेष ध्यान देने की जरुरत है. सरकार सम्बंधित गांव या क्षेत्र के थाना, ग्राम सचिव, पटवारी, नम्बरदार तथा सरपंच को ऐसे विवाहों को तुरंत नोट कर एसडीएम या तहसीलदार के पास दर्ज करवाना सुनिश्चित करे. ये विवाह एक बहुत बड़े संगठितक सेक्स गिरोह को बढ़ावा दे रहे हैं. बार-बार के खरीद फरोख्त के कारण युवकों में बहुत बड़े स्तर पर एड्स की महामारी को निमंत्रित किया जा रहा है.
हरियाणा की खाप पंचायतों की कार्यप्रणाली पर प्रतिक्रिया करते हुए हरियाणा के रोहतक में रहने वाले समाजसेवी एवं जाट जाति से सम्बन्ध रखने वाले राजेश नांदल कहती हैं, “खाप पंचायतों द्वारा ऐसे निर्णय लिए जाने चाहिए जो हम सब के हित में हो यदि विवाह हेतु उत्तम वर मिले और तीसरा गोत्र अड़चन बन जाए तो तीसरा छोड़ देना चाहिए. लेन देन पूर्ण रुप से खत्म होना चाहिए . बेटियों को शिक्षित कर आत्मनिर्भर बनाया जाए और पैतृक संपत्ति का उसका हिस्सा भी उसे दे देना चाहिए, क्योंकि कुछ अभागी बेटियों को घर नसीब ही नहीं होता. सारी उम्र इधर उधर डोल कर जीवन समाप्त हो जाता है. या मार खाती रहती है.”
बैंक अधिकारी तथा खाप पंचायतों के मामले में विशेष रूचि रखने वाले रमेश राठी का मानना है कि खाप निजी हित का मंच बन गयी हैं और बुजुर्गों की समाज हित कि आवाज गौण हो चुकी है.
युवा अमित कहते हैं, ”निर्णय लेते समय सही गलत की जगह अपने–पराये का ध्यान रखकर फैसले किये जाते हैं.”
अखिल भारतीय किसान सभा के हरियाणा प्रदेश सचिव एवं आरटीआई एक्टिविस्ट डॉ. बलबीर सिंह खाप पंचायतों को आड़े हाथ लेते हुए कहते हैं, “वैवाहिक व आपराधिक मामलों में खापों का हस्तक्षेप हमेशा ही “समरथ को नहीं दोष गोसाईं” की अवधारणा पर होता है. अगर व्यक्ति सामाजिक व आर्थिक तौर पर समर्थ है तो खांपे चूं नहीं करती. यदि व्यक्ति सामाजिक व आर्थिक तौर पर कमजोर है तो खांपें देश निकाला व सबंध विच्छेद से कम कुछ स्वीकार नहीं करती है. यह अपवाद नहीं, सिद्धांत है. इसलिए खांपों की कोई नैतिक, सामाजिक और कानूनी हैसियत नहीं है. कानून के मुताबिक समस्याओं का समाधान हो, यही सभ्य समाज की आवश्यकता है. विवाह संबंध बनाना या ना बनाना व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर है.”
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