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मीडिया का श्रीदेवी प्रेम और शंकराचार्य से विछोह

शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती के निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं ने शोक प्रकट किया था. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ट्विटर पर उनके साथ अपनी तस्वीरें भी शेयर की. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी एक पत्रक के माध्यम से अपनी शोक संवेदना प्रकट की. लेकिन इन सबके बावजूद श्रीदेवी के निधन की ख़बर को तीन दिनों तक लगातार चलाने वाली भारतीय मीडिया ने शंकराचार्य के लिये एक छोटा सा बुलेटिन बनाना भी ज़रूरी नहीं समझा, और जिसने कुछ बनाया भी उसे देखने सुनने वाला भी कोई नहीं था.

कामकोटि पीठ में हिंदुओं के 69 वें शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती के महाप्रयाण और महासमाधि तक के कार्यक्रम में भारतीय हिंदी मीडिया और विशेषकर टीवी चैनलों की अरुचि इस बात का स्पष्ट संकेत है कि हिंदी इलेक्ट्रानिक मीडिया पर देशभक्ति की आड़ में जो आक्रामक हिंदुत्व चल रहा है वो असली हिंदुत्व से इतर है.

गुरुवार को उनकी महासमाधि की अंतिम प्रक्रिया के दौरान मंत्रोच्चार के साथ उनके शरीर पर भभूत लगाया गया और पुष्पांजलि अर्पित करने के उपरान्त उन्हें महासमाधि दे दी गयी. किसी भी धर्माचार्य के पार्थिव शरीर को दफनाने की पूरी क्रिया को वृंदावन प्रवेशम कहा जाता है. इसकी प्रक्रिया की शुरुआत अभिषेकम (स्नान) से होती है जिसमे दूध और शहद जैसी चीजों का इस्तेमाल किया जाता है. पार्थिव शरीर पर भभूत लगाकर संत, महंत, ऋषि और आचार्य मंत्रोच्चार करते हैं. इस पूरी प्रक्रिया को कवर करने के लिए न तो किसी राष्ट्रीय चैनल की ओबी वैन वहां पर थी और न ही स्टूडियो में उनकी तस्वीरों का क्रोमा बनाकर किसी विशेष कार्यक्रम का प्रसारण किया गया.

क्या किसी घटना ने रोक रखा था?

अगर इतिहास में हुई एक घटना को सच मानते हुए टीवी चैनलों ने इस ख़बर से दूरी बनाई है तो तस्वीर साफ़ है कि भारतीय हिंदी टीवी चैनलों का इतिहासबोध भी बहुत कमजोर है और सनातनी हिंदू परंपरा के मामले में भी वे एक ख़ास किस्म के पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं. शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती के निधन की ख़बर को प्रमुखता न दिये जाने के पीछे का कारण इतिहास में हुई एक घटना भी है.

जब 1969 में कांग्रेस के दो धड़े हो गए, कामराज का कांग्रेस (ओ) और इंदिरा का कांग्रेस (आर). कामराज गुट को इलेक्शन सिम्बल के तौर पर चरखा मिला और इंदिरा ने कांग्रेस (आर) के लिए अपने पहले सिम्बल से मिलता जुलता सिम्बल चुना जो था बैलों के जोड़े की जगह गाय और बछड़ा. 1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी की बुरी हार होने के बाद कांग्रेस में फिर से दो फाड़ हो गई, कुछ नेताओं ने एक नई पार्टी बना ली और इलेक्शन कमीशन ने इंदिरा को कहा कि वो अपनी नई पार्टी के लिए एक नया सिम्बल चुने. इंदिरा गांधी की नई पार्टी का नाम रखा गया कांग्रेस (आई). उसी दौर में इंदिरा गांधी आंध्र प्रदेश के दौरे पर थीं, और पीवी नरसिंहाराव उस दौरे में उनके साथ-साथ थे. दौरे के क्रम में एक दिन वे कांची पीठ के शंकराचार्य से मिलने गई थीं. उन दिनों जयेन्द्र सरस्वती के गुरु चंद्रशेखरेन्द्र सरस्वती कांची पीठ के शंकराचार्य थे. शंकराचार्य उस दिन मौन व्रत पर थे, इंदिरा गांधी ने उनसे उस समय का सारा घटनाक्रम बताया और पूछा कि उन्हें संन्यास लेना चाहिये या आगे लड़ाई जारी रखनी चाहिये. मौन व्रत के कारण शंकराचार्य जवाब दे पाने में असमर्थ थे और जवाब के इंतज़ार में एक घंटा बीत गया और इंदिरा गांधी वहां से उठने लगी, उसी समय शंकराचार्य ने उन्हें लिख कर दिया कि उन्हें धर्म का पालन करना चाहिये और उसके बाद उन्होंने इंदिरा की तरफ आर्शीवाद मुद्रा में अपने दाहिना हाथ उठा दिया.

उस घटना के कुछ ही दिन बाद तत्कालीन वरिष्ठ नेता बूटा सिंह के साथ कुछ नेता जब अगली प्रक्रिया के निबंधन के लिये दिल्ली में चुनाव आयोग के कार्यालय पहुंचे तो उन्हें चुनाव आयोग की तरफ से उन्हें तीन सिम्बल दिए गए. वे सिम्बल थे साइकिल, हाथी और हाथ का पंजा, चुनाव आयोग ने उन्हें एक दिन के भीतर एक सिम्बल को चुनने के लिये कहा. जानकारों की माने तो इंदिरा गांधी ने कई घंटों तक अपने सहयोगियों से चर्चा करने के बाद उन्हें ‘हाथ का पंजा’ सिम्बल चुनने को कहा. अब भले इस बात में सच्चाई हो न हो कि उस वक़्त इंदिरा गांधी ने शंकराचार्य का आशीर्वाद वाला हाथ देखकर ही पंजा चुनाव चिन्ह चुना था या किसी और कारण से इस चिन्ह को चुना था लेकिन व्हाट्सएप पर चल रहे ज्ञान के आदान प्रदान के क्रम में इस घटना को भी तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया और बेचारे टीवी चैनल वालों ने इस ख़बर से भी खुद को दूर रखना ही उचित समझा.

नयी नहीं है यह दूरी

अधिकांश भारतीय हिंदी समाचार चैनल वाराणसी और इलाहाबाद जैसे धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शहरों के अपने संवाददाताओं का मानसिक और शारीरिक शोषण साल भर मौनी अमावस्या, कार्तिक पूर्णिमा और छठ के नहान या अन्य पर्व त्योहारों पर गंगा या संगम स्नान की खबरों में दिन भर 6-7 बार लाइव टेलीकास्ट करवा कर करते हैं. बेचारे संवाददाताओं के पास एक दो बुलेटिन के बाद शब्दों का अकाल पड़ जाता है और “आस्था का सैलाब”, “आस्था की डुबकी” जैसे शीर्षक चलाते हुए दिन भर एक ही दृश्य दिखाते हैं. लेकिन जब बात हिंदू होने के मर्म पर आती है तो यही हिंदी चैनल उनसे दूर भागते हैं. अभी पिछले दिनों ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती की पीठ से सम्बंधित विवाद पर चल रही न्यायिक प्रक्रिया से जुडी ख़बर सिर्फ न्यूज़ नेशन ने प्रमुखता से चलायी. अन्य कई नामचीन चैनलों ने इसी ख़बर को सिर्फ एक छोटे पैकेज में समेट दिया. अयोध्या विवाद के कारण सारा ध्यान अयोध्या और लखनऊ पर है. चैनलों को फुर्सत नहीं है कि वे धर्म में जारी कुछ सराहनीय और सकारात्मक कार्यक्रमों को राष्ट्रीय टीवी चैनलों की सुर्खियां बनाएं.

वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य इसे “सेलेक्टिव बायस्डनेस” का नाम देते हुए कहते हैं, “देखिये भारतीय टीवी चैनलों में पिछले एक दशक में कार्यक्रम के चयन के सन्दर्भ जितनी गिरावट आयी है उतनी शायद ही दुनिया में कहीं आयी हो, बिकाऊ कंटेंट दिखाने के क्रम में क्या दिखाना है और कब दिखाना है की बहस अब लम्बी हो चली है, लेकिन कभी नाग नागिन का जोड़ा और स्वर्ग की सीढ़ी दिखाने वाले चैनल अब श्रीदेवी के बाथ टब तक पहुंच चुके हैं. इन चैनलों का कथित हिंदुत्व भी आयातित है वरना शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की मृत्यु की ख़बर और उनका जीवन प्रसंग चैनल पर चल रहा होता.”

बहरहाल टीवी चैनलों की इस दूरी के पीछे शायद असल धार्मिक मसलों से जुड़ी सूचनाओं, जानकारियों और विशेषज्ञों का अभाव भी एक मजबूरी हो सकती है. लेकिन जिस प्रकार चुन-चुन कर कुछ बिंदुओं को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है उससे साफ़ ज़ाहिर है की भारतीय टीवी चैनलों के लिये धर्म सिर्फ एक ज्वलनशील मुद्दा है, उसकी सार्थक परंपराएं, उसकी मूल प्रवृत्ति को खोजने दिखाने की सलाहियत किसी में नहीं है. चैनलों के लिए धर्म सिर्फ दंगों के दौरान ध्रवीकृत समाज की भावनाओं की सवारी करना भर रह गया है, जिनसे टीआरपी आती है.