Newslaundry Hindi
होली: प्रवासी पति और इंतजार करती पत्नियां
भीड़ पर लगाम लगाने के लिए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर प्लेटफार्म टिकट की बिक्री बंद कर दी गयी है. ऊपर से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की तरफ जाने वाली स्पेशल ट्रेनों की घोषणा भीड़ में होने वाली हाथापाई को और बढ़ा रही है. कुछ लोग भाग्यशाली होंगे जो मवेशियों की तरह ट्रेन में सफर करने के लिए अंदर घुस जायेंगे, बहुत से ऐसे लोगों भी होंगे जिन्होंने बुद्धिमानी दिखाते हुए काफी पहले से टिकट बुक करवा लिए होंगे. विशाल संख्या में लोग वातानुकूलित कोच में एक ही गंतव्य की ओर जा रहे हैं. कई लोग किसी भी कोच में नहीं घुस पाएंगे, वे सदियों से घर नहीं लौटे हैं.
वे तब भी उतने भाग्यशाली थे जब वे जहाजों से फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम या त्रिनिडाड जैसे दूर-दराज के देशों में काम करते थे और वहां से जहाज से आते थे. तब से उनकी पत्नियां या फिर प्रेमिकाएं उनके लिए गाना गाती हैं. इसमें वह अपनी पीड़ा व्यक्त करती हैं, उनसे विनती करती हैं कि वो वापस आ जाएं और उनकी बेरुखी के प्रति उनसे शिकायत भी करती हैं और कभी-कभी गरीबी की झिड़क भी होती हैं. औपनिवेशिक काल में भिखारी ठाकुर द्वारा बनाये गए बिदेशिया लोक संगीत से लेकर डिजिटल युग के कामोत्तेजक भोजपुरी होली गीतों तक, प्रवासी, विस्थापित पति की वापसी एक अनवरत जारी रहने वाला मुद्दा बन गया है.
कई मायनों में यह भी पता चलता है कि इतनी शताब्दियों में कितना कम बदलाव हुआ है क्योंकि अभी भी कामगार गांवों और कस्बों में अवसरों की कमी की वजह से वहां से निकलने को मजबूर होते हैं.
देश के बाकी हिस्सों में लोकप्रिय धारणाओं के विपरीत, भोजपुरी बिहार में बोली जाने वाली पांच भाषाओं/बोलियों में से एक है (मगही, मैथिली, बज्जिका और अंगिका बाकि की चार हैं). हालांकि, भोजपुरी लोक कवि, गायक, नाटककार और थिएटर अभिनेता भिखारी ठाकुर (1887-1971) की एक अपील ने बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों को अलग किया जिसमें उन्होंने प्रवासी श्रमिकों की चिंताओं को आवाज़ दी खासकर इस मुद्दे को बहुत पैने तरीके से रखा जिसमें यह दर्शाया गया कि उन्होंने अपने परिवार को छोड़ा है.
दिलचस्प बात यह है कि, पूर्वी महानगर कोलकाता – जो कि अनुबंधित श्रम के लिए जाना जाता है, बिदेशिया के गीतों में एक रूपक के रूप में दिखता है, जबकि यह दूसरे राज्य में स्थित है. सामाजिक वैज्ञानिक और क्षेत्रीय लोक संस्कृति के जानकार, प्रोफेसर बद्री नारायण कहते हैं, “बिदेशिया लोक परंपरा औपनिवेशिक काल के दौरान शुरू हुई. कोलकाता इन गानों में प्रवास का रूपक है. अनुबंधित श्रमिकों को कोलकाता बंदरगाह से ले जाया जाता था और इसका उल्लेख उन स्त्रियों द्वारा गाये हुए गानों में किया गया है जिनको वहीं छोड़ दिया गया.” यहां हाल ही में गाये गए
गीत पियवा गइले कलकत्ता ऐ सजनी का अनुवाद है:
यह गीत सुधीर मिश्रा की हज़ारों ख्वाहिशें फिल्म में भी लिया गया है.
जब ये गाना 2017 में फिर से लोकप्रिय हो रहा था तब कोलकाता प्रवासियों के लिए प्रमुख स्थलों में से एक नहीं रह गया है और ना ही अब यहां से दूर टापूओं वाले देशों को जहाज जाते हैं. लेकिन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश (पूर्वांचल कहना ज्यादा ठीक होगा) के लोग पूरे देश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत प्रवासी श्रमिकों में सबसे ज्यादा है. भोजपुरी पॉप संस्कृति की वर्तमान लहर की बहुत से लोगों ने आलोचना की है क्योंकि यह ज्यादा अश्लील हो गया है और भोजपुरी बोले जाने वाले क्षेत्रों के रोजमर्रा की जिंदगी की वास्तविक भावना से भी दूर हो गया है. यह असल में बॉलीवुड के भौंडे संस्करण में बदल रहा है. इसका मतलब यह नहीं है कि भोजपुरी पॉप संगीत ने अपने लोकप्रिय गीतों में घर से दूर गए पति या प्रेमी को भुला दिया है.
दो कारणों से होली इस पर बात करने का सही समय है. सबसे पहले, हर साल भोजपुरी इंडस्ट्री बहुत सारे नए गाने रिलीज़ करती है, जिसमे होली जैसे त्यौहार की हुल्लड़ छवि को दर्शाया जाता है. दूसरा, भोजपुरी में इस त्यौहार के समय अपने परिवार के साथ रहने का बहुत महत्त्व है, आपके सामाजिक व्यक्तित्व का एक सूचकांक आपका वैवाहिक बंधन भी है. भोजपुरी गानों का मूड और धुन बेहूदा हो सकती हैं, लेकिन भोजपुरी संगीत उद्योग द्वारा होली पर रिलीज़ किये हुए गानों में स्पष्ट रूप से ये दिखता है कि प्रवासी पति अभी भी होली के गीतों के केंद्र में है. पिछले कुछ वर्षों के भोजपुरी होली के गीतों में प्रवासी श्रमिकों की विविध प्रकृति भी परिलक्षित होती है. अब इसमें व्हाइट कॉलर प्रवासियों की बढ़ती संख्या के बारे में भी कई सन्दर्भ है जैसे कि पहले परंपरागत ब्लू कॉलर श्रमिकों के बारे में होते हैं.
प्रतीक्षा कर रही पत्नियों की शिकायत में एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, वे यात्रा सलाह भी देती हैं. उदहारण के लिए, अनु दुबे के इस गीत में बिहार जाने वाली मगध एक्सप्रेस, जो कि नई दिल्ली से देर से आने के लिए बदनाम है, के खिलाफ विलाप है. ट्रेन के देर से आने की वजह से निराश पत्नी अपने पति के इंतजार में गाती है-
“सुनके ई हो गइल मनवा आधा,
ओ राजाजी, बड़ी चली लेट मगधवा ओ राजाजी/
लेवा कैसे होली के स्वाद,
ओ राजाजी, बड़ी चली लेट मगधवा ओ राजाजी”.
एक और गीत में वो कान के झुमके और लिपस्टिक की मांग करती हैं, लेकिन उत्तर बिहार की ओर जाने वाली सबसे तेज़ गति वाली तीन ट्रेनों में से एक पकड़ने के लिए सलाह भी देती हैं. गीत इस प्रकार है-
“बाली ले आइहा न बालम/
होंठलाली ले आइहा न/
छोड़ के लिछवि अउ आम्रपाली,
वैशाली से आइहा न”.
एक पत्नी अपने पति, जो कि बैंगलोर में काम करता है, फागुन के महीने में घर आने के लिए को फ़ोन करके कहती है कि यही एक तरीका है जिससे वो गर्भवती हो सकती है. यही बात पवन सिंह अपने गाने में कहते हैं जिसमे वो तात्कालिता का पुट डालते हुए कहते हैं कि तत्काल टिकट से वो घर आ सकता है. पवन, जो कि भोजपुरी के प्रसिद्ध गायक हैं, गाते हैं-
“लेला तत्काल टिकट, फागुन आएल बा निकट/
जियवा के पीड़ा बूझा राजाजी/ हरदम जे रहब बैंगलोर/
न होएब लरकोर राजाजी”.
इन सभी दलीलों का परिणाम हमेशा सकारात्मक ही नहीं होता. क्या होगा अगर प्रवासी पति होली पर घर नहीं आ पायेगा? पवन सिंह ने अपनी आवाज़ में एक निराश पत्नी की पीड़ा को बयान किया है-
“असरा धरा के भुला गेला राजाजी/ होलिया में काहे न अइला ए राजाजी?”
औपनिवेशिक दौर से लोकप्रिय भोजपुरी गीतों में प्रवासी श्रम विषय की ऐतिहासिक निरंतरता को बहुत अधिक देखे जाने का मामला ओवरएनालिसिस का मामला हो सकता है. हालांकि, ऐसी स्थितियां जो इन क्षेत्रों में आर्थिक रूप से निचले पायदान पर खड़े समाज को अपना परिवार चलाने और उनको खिलाने-पिलाने के लिए अपने मूल स्थान को छोड़ने के लिए मजबूर कर रही हैं, वो निश्चित रूप से हमारी असफलताओं का एक स्मारक है. और अभाव के इस तरह के पैटर्न इतिहास में भी देखे गए हैं. इतिहासकार डीडी कोसंबी ने तर्क दिया था कि ढाई हज़ार साल पहले अर्थशास्त्र (जिसमे मगध साम्राज्य को पाटलीपुत्र कहा गया है, आधुनिक पटना को राजधानी के रूप में सम्बोधित किया है) में लिखा है कि कामचलाऊ श्रम के लिए सबसे कम वार्षिक मजदूरी साठ पन्नों की दी गयी थी (एक पन्ना 3.5 ग्राम के चांदी के सिक्के को माना जाता था).
इसका मतलब है कि न्यूनतम मजदूरी 210 ग्राम चांदी तय की गयी थी, जो कि “अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारतीय श्रम को किया गया लगभग सबसे कम भुगतान था.” निरंतरता को दर्शाते हुए डॉ अरविन्द एन दस ने द रिपब्लिक ऑफ़ बिहार में 25 साल पहले लिखा था, “आज चांदी की कीमत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आज कामचलाऊ लेबर को उतना ही पैसा दिया जाता है जितना उसके पूर्वजों को चांदी में भुगतान किया जाता था.”
पिछले 25 वर्षों में मजदूरी दर काफी ऊपर गयी है, यह बात आंकड़े भी बताते हैं और लोगों की विविध प्रोफाइल से भी पता चलता है. फिर भी रेलवे स्टेशन पर होली के लिए घर जाने वाले भोजपुरी लोगों की भारी संख्या को देख कर लगता है कि मजदूरी के दर में बढ़ोत्तरी के लिए कई प्रतीक्षारत और शिकायत करने वाली पत्नियां दांव पर हैं.
Also Read
-
‘Not a Maoist, just a tribal student’: Who is the protester in the viral India Gate photo?
-
130 kmph tracks, 55 kmph speed: Why are Indian trains still this slow despite Mission Raftaar?
-
Supreme Court’s backlog crisis needs sustained action. Too ambitious to think CJI’s tenure can solve it
-
Malankara Society’s rise and its deepening financial ties with Boby Chemmanur’s firms
-
The Constitution we celebrate isn’t the one we live under