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इलाहाबाद: साहित्य और सियासत का संगम

इलाहाबाद ऐतिहासिक संदर्भों में बेहद महत्वपूर्ण शहर रहा है.

बनारस की छाया में, कुछ सौ किलोमीटर दूर, इलाहाबाद पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र कभी नहीं रहा है. लेकिन हर 12 साल पर इलाहाबाद में मानवता का सबसे बड़ा संगम होता है, कुंभ मेला. उत्तर भारत की सबसे लंबी नदियों- गंगा और यमुना यहां आपस में मिलती हैं.

शहर का नाम प्रयाग पड़ने की यही वजह रही, जिसका अर्थ है नदियों का संगम.

ऐतिहासिक शहर, प्रयाग या इलाहाबाद दशकों तक देश की राजनीति का केंद्र रहा है- स्वतंत्रता आंदोलन के दौर से लेकर 20वीं सदी की शुरुआत तक. यह शहर नेहरू-गांधी परिवार का पैतृक जिला भी रहा है. और उनके दो पुशतैनी मकान, स्वराज भवन और बाद में आंनद भवन शहर में मौजूद हैं. ये दोनों भवन एक लिहाज से उस दौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मुख्यालय हुआ करते थे.

देश के छह प्रधानमंत्रियों का नाता इलाहाबाद से रहा है, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, वीपी सिंह और चंद्रशेखर. 1940 और 50 के दशक में कई छात्रनेता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, जैसे एचएन बहुगुणा, वीपी सिंह और एनडी तिवारी.

इतने सक्रिया राजनीतिक माहौल के साथ ही उसी दौर में साहित्य का आंदोलन भी इस शहर में बेहद तीव्रता से चल रहा था. इसका एक महत्वपूर्ण तत्व था इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जिसे एक वक्त यहां के पूर्व छात्र ‘पूर्व का ऑक्सफोर्ड’ कहा करते थे.

पिछली सदी में इस शहर ने हिंदी और उर्दू साहित्य के कुछ बेहद बड़े और प्रतिष्ठित साहित्यकार दिए.

इलाहाबाद से संबंधित कुछ अहम रचनाकार जैसे सुमित्रनंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, रघुपति सहाय (जिन्हें फिराक़ गोरखपुरी के नाम से जाना जाता है) और हरिवंश राय बच्चन- जिनकी एक पहचान फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन के पिता के रूप में भी है.

हिंदी और उर्दू के इन साहित्यकारों में दरअसल कुछ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे- जैसे गोरखपुरी और हरिवंश राय बच्चन.

हालांकि पंत का जन्म कौसानी में हुआ पर उनका सारा जीवन इलाहाबाद में बीता. पंत अपने समय के चर्चित और प्रगतिशीत वाम लेखकों में से एक थे. उनकी प्रख्यात कविताएं प्रकृति और आंतरिक सौंदर्य को प्रतिबिंबित करती हैं. इसीलिए उन्हें प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है.

वर्मा एक नारीवादी थीं. वह भी तब से जब यह शब्द सार्वजनिक बहसों का हिस्सा भी नहीं हुआ करता था. विवाह के कुछ ही वर्षों बाद उनके पति ने उनका साथ छोड़ दिया. उनकी शक्ल सूरत वैसी नहीं थी जैसा सौंदर्य मानकों पर एक महिला से अपेक्षा की जाती है. शरीर का व्यक्ति की अंतरात्मा और समझ से क्या रिश्ता है भला.

और अगर फैशन खुद को अभिव्यक्त करने का नाम है तो वर्मा के व्यक्तित्व की हकीकत उनकी सादगी और स्पष्टता थी. उनके पति ने उन्हें अपने जीवन से बेदखल जरूर कर दिया लेकिन वह वर्मा के लिए वरदान साबित हुआ. उन्होंने अपने साहित्यिक सफ़र की शुरुआत एक शिक्षाविद् के रूप में की और दोनों में सफल रहीं. उनकी मृत्यु के बाद उनके अशोक नगर वाले घर को स्मारक में तब्दील कर दिया गया और अब वह घर धूल फांक रहा है.

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के प्रपौत्र शहर के अशोक नगर के समीप ही दो बंगलों में रहते हैं. वर्मा और बच्चन इसी पड़ोस में पहले रहा करते थे. जिस बंगले में बच्चन रहा करते थे वह ढह चुका है और अब वहां बहुमंजिला इमारत खड़ी कर दी गई है.

शहर की साहित्यिक आत्मा की एक झलक वर्मा की मशहूर कविता ‘अतृप्त’ से मिलती है. इस कविता में वो बताती हैं कि किस तरह से आत्मसंतोष का भाव जीवन के प्रवाह में सबसे बड़ा बाधक बनता है. वे कामना करती हैं कि जीवन में उनके साथ यह भाव कभी न पैदा हो. उनकी कविता की अमर पंक्ति है- “जो अपने जीवन में ही तृप्ति का भाव पा लेते हैं, वे मौत से पहले ही मृतप्राय हो जाते हैं.”

इलाहाबाद बदलाव से गुजर रहा है. बुद्धिजीवियों का शहर अब पुरानी बात हो चली है. बंगलों का शहर, बहुमंजिला इमारतों के शहर में तब्दील हो रहा है. सिविल लाइन्स मार्केट भीड़भाड़ और कारों से खचाखच भरा है. सड़कें चौड़ी हो गई हैं और हाल ही में अंडर ग्राउंड नाले बने हैं.

इलाहाबाद भी केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी आवासन व शहरी कार्य मंत्रालय के अंतर्गत, स्मार्ट सिटी योजना का हिस्सा है. ‘स्थानीय क्षेत्रों का विकास व तकनीक के इस्तेमाल’ से ‘आर्थिक विकास और लोगों के जीवन के स्तर में बेहतरी’ इस योजना का लक्ष्य है.

इलाहाबाद बदल गया है और बढ़ती जनसंख्या का भार झेलने के लिए तैयार है. लेकिन जैसा कहते हैं, पुरानी आदतें जल्दी नहीं जाती. नदी के लिए प्यार, मिलनसार संस्कृति- गंगा-जमुनी तहजीब- ये सब उत्प्रेरक हैं. हालांकि जाति और धर्म शहर की राजनीति का अभिन्न हिस्सा है.

शहर की जिंदादिल साहित्यिक संस्कृति ने शमसुर रहमान फारूकी जैसा मशहूर फारसी और उर्दू रचनाकार दिया है. अंग्रेज़ी में अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा शहर की शान हैं.

आज के इलाहाबाद के पास पिछले शताब्दी जैसा उत्साह और आवेग नहीं है जिससे दोबारा साहित्यिक व राजनीतिक क्रांति की लौ जलाई जा सके. हालांकि, आज भी बनारस के साथ यह क्षेत्र बौद्धिक व अध्यात्मिक संपदा का ढेर बना हुआ है.

(यह लेख पैट्रियट में प्रकाशित हो चुका है.)