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श्रीदेवी की मौत ने आपकी कमज़ोर नस पर हाथ रख दिया
“किसी दिन नस फ़ट जाएगी और सब कुछ यहीं पर, धरा का धरा रह जाएगा”
अपने मित्रों, क़रीबी लोगों और परिवार वालों से अक्सर ये कहा करता हूं. उन लोगों से कहा करता हूं, जिन्होंने बहुत कुछ पा लिया है और सब कुछ पा लेने की लालसा में आंख बंद करके दौड़ रहे हैं. और यही बात जाते-जाते श्रीदेवी ने भी कह दी. श्रीदेवी की मौत ने मेरी, आपकी और हम सबकी कमज़ोर नस पर हाथ रख दिया. मानो वो खुद बग़ल में बैठकर हौले से कह रही हों कि “मौत का ये सच सिर्फ मेरा नहीं तुम्हारा भी है.”
ख़बर फैली तो हर ज़ुबान और चेहरे पर विस्मयबोधक चिन्ह लगते चले गये.
“अभी उम्र ही क्या थी”
“अभी तो और जी सकती थी”
“श्रीदेवी ऐसे अचानक कैसे मर सकती है”
घंटों तक श्रीदेवी को निहारने वाले युवा और अधेड़ प्रेमी, हाथ में चाय का कप या सिगरेट फंसाकर बहुत देर तक ये सोचते रहे कि जिस दिल के लिए करोड़ों दिल जलते हों, वो दिल ठंडा कैसे पड़ सकता है?
श्रीदेवी का जीवन जिस बिंदु पर रुक गया था, करोड़ों लोग अचानक उस बिंदु से आगे की रेखाएं अपने मन में खींचने लगे. ज़िंदगी की आंच तेज़ थी. और उसे इस आग में तपकर चमकना था. शायद इसीलिए चमकते-चमकते ख़र्च हो गई.
श्रीदेवी का जीवन सौंदर्य के स्मारकों और उपमाओं से भरा हुआ है, वो भारतीय लावण्य से भरी हुई एक ऐसी प्रेयसी हैं, जिनके स्वप्न सिनेमा के पर्दे से सीधे मन में उतरते रहे हैं. उनका जीवन काव्यात्मक है, लेकिन उनकी मौत वैसी ही है जैसी शशि कपूर की थी, जयललिता की थी, या असंख्य अनाम लोगों की होगी. चाहे आप हों या श्रीदेवी, मौत से आपको कोई स्पेशल ट्रीटमेंट नहीं मिलेगा.
सूखे पेड़ की सबसे ऊंची शाख़ पर मौजूद आख़िरी हरी पत्ती
श्रीदेवी को एवरग्रीन लीफ ऑफ़ इंडियन सिनेमा (Ever Green leaf of Indian Cinema) कहूं तो ग़लत नहीं होगा. यानी एक सदाबहार हरी पत्ती, जिसका रंग, सिनेमा को नई उम्मीद देता है. वैसे इस संज्ञा के पीछे एक कहानी और एक फ़िल्म है. ओ हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’ (The Last Leaf) में और उसी पर आधारित हिंदी फ़िल्म लुटेरा में, शाख़ से बांधी गई एक पत्ती ज़िंदा रहने और सांस लेते रहने की उम्मीद देती है.
श्रीदेवी ने ये उम्मीद हमें दी है. वो एक पीढ़ी के लिए चांदनी हैं, तो दूसरी पीढ़ी के लिए मॉम हैं, अटक-अटककर शर्म के साथ अंग्रेज़ी बोलने वाले हम लोगों को, इंग्लिश-विंग्लिश की श्रीदेवी में कोई अपना सा दिखाई देता है. ये काम फ़िल्मी कलाकार ही कर सकते हैं, और शायद इसीलिए उन्हें किसी के भी मुक़ाबले, ज़्यादा याद किया जाता है. चाहतों के ये असंख्य पुल, किसी नेता, वैज्ञानिक या खिलाड़ी के लिए नहीं दिखते.
अपने सौंदर्य की चांदनी से पूरे भारतवर्ष को स्नान करवाना हो, अपने प्रेम और परिवार के लिए फ़िल्मों को छोड़ना हो, या फिर पचास साल की उम्र में अपनी पूरी शक्ति इकठ्ठा करके पूरे संसार से ये कहना हो कि मैं ख़र्च नहीं हुई. मुझमें अब भी बहुत कुछ बाक़ी है. मैंने उम्र को आभूषण बना लिया है, मेरा चेहरा गीली मिट्टी जैसा लचीला हो गया है, जीवन और अभिनय को बहुत क़रीब ले आई हूं मैं.
“कई बार अप्सराएं भी गृहिणी बन जाती हैं”
वैसे श्रीदेवी के जीवन और अभिनय का फ़र्क़ क्या था इसे राम गोपाल वर्मा ने अपने जीवन की सच्ची कहानियों पर आधारित किताब गन्स एंड थाईज़ (Guns & Thighs) में लिखा है. रामगोपाल वर्मा ने श्रीदेवी पर बाक़ायदा एक अध्याय लिखा है. इसमें उन्होंने बताया है कि कैसे वो चेन्नई में श्रीदेवी के बंगले को घंटों निहारते रहते थे, श्रीदेवी का स्टारडम क्या था? और बोनी कपूर के घर में श्रीदेवी को एक सामान्य गृहिणी की तरह चाय बनाते देखकर उनका दिल कैसे टूट गया? रामगोपाल वर्मा की ये किताब पढ़ने लायक है.
“भारत के दिल में जो सिनेमाघर है, वहां श्रीदेवी की फ़िल्म 50 साल बाद भी लगी रहेगी”
सिनेमा किसी को भी एक से ज़्यादा जीवन जीने की सुविधा देता है. हर भूमिका एक नई ज़िंदगी की तरह सामने आती है. श्रीदेवी हों या शशि कपूर, हर अदाकार लोगों के सामने बार-बार पुनर्जन्म लेकर आता है.
श्रीदेवी ने तीन सौ फ़िल्मों में काम किया, यानी वो तीन सौ बार नया जन्म लेकर लोगों के सामने आई होंगी और लोगों ने उनके बारे में अपनी राय बनाई होगी. ये बहुत कठिन परीक्षा है जो अभिनेताओं को देनी होती है और यही बात उन्हें समय के पार ले जाती है.
नेता और अभिनेता की मौत होती तो एक जैसी ही है, लेकिन समय दोनों को बांट देता है! इसके बाद अभिनेताओं को किसी रत्न की तरह अलग पहचान मिल जाती है जबकि नेता खो जाते हैं समय की रेत में. जिस दिन शशि कपूर मरे थे, उस दिन उनकी मृत्यु की तुलना जयललिता से कर रहा था. अब श्रीदेवी की मृत्यु ने उस तुलना को और भी अधिक साफ़ और प्रासंगिक बना दिया है.
एक तरफ अभिनेता हैं और दूसरी तरफ राजनेता. दोनों में ही सपनों को यथार्थ में बदलने की कला थी. श्रीदेवी और शशि कपूर ने समाज की घटनाओं को अपने अभिनय से जीवंत बनाया और सिनेमा वाले सपने बुने. जबकि जयललिता ने राजनीति के अभिनय को साधने के लिए.. अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया. उन्होंने राजनीति के बहुत से उतार-चढ़ाव देखे. फिर भी वो अपनी आखिरी सांस तक प्रासंगिक बनी रहीं. लेकिन अब जयललिता सिर्फ एक प्रतीक, एक Symbol या एक तस्वीर बनकर रह गई हैं. एक ऐसी तस्वीर जिस पर माला पड़ी हुई है. और उस माला में गुंथे यादों के फूल हर गुज़रते वर्ष के साथ सूखते जाएंगे.
हालांकि श्रीदेवी और शशि कपूर जैसे अभिनेता, समय के इस महासागर में इतनी जल्दी विलीन नहीं होंगे, क्योंकि इन अभिनेताओं ने पूरे जीवन अपने आसपास के समाज को फिल्मों में उतारा. उनकी फिल्में समय के इस महासागर में किसी नाव की तरह तैरती रहेंगी. उनके अभिनय पर आज से पचास साल बाद भी तालियां और सीटियां बजती रहेंगी.
किसी राजनेता ने कैसा काम किया, कैसे सत्ता हासिल की, इसकी चर्चाएं धीरे-धीरे फीकी होती जाएंगी और हो सकता है कि समय के साथ उस नेता की छवि भी पूरी तरह बदल जाए. राजनीति में कौन सा काम अच्छा होगा और कौन सा काम बुरा होगा, इसका निर्णय काल, व्यक्ति और परिस्थितियों के अनुसार बदल जाता है. इसलिए अगर यादों की कसौटी पर राजनीति और सिनेमा को तौला जाए तो सिनेमा वाली यादें राजनीति की यादों पर हमेशा भारी पड़ती हैं. फिल्मों के डायलॉग सालों-साल याद रहते हैं जबकि राजनीति के ज़्यादातर भाषण और डायलॉग्स खो जाते हैं.
लेकिन इस फ़र्क के बावजूद मृत्यु सबको बराबरी पर लाकर खड़ा कर देती है. चाहे कोई नेता हो या अभिनेता, मृत्यु के बाद उसके व्यक्तित्व के मायने नहीं रहते. सिर्फ उसका काम ज़िंदा रहता है. और वो भी तब जब वो काम वैश्विक (Universal) हो. यानी वो काम देश, काल और स्थिति से परे हो और बार-बार, हर किसी के अंतर्मन को छूता रहे.
…और अंत में युधिष्ठिर और यक्ष का संवाद भी याद कर लेना चाहिए
महाभारत में पांडवों के अज्ञातवास के दौरान यक्ष और युधिष्ठिर के बीच एक संवाद होता है. इसमें 100 से भी ज़्यादा प्रश्न पूछे गये थे और उन्हीं में से एक प्रश्न मृत्यु से संबंधित था.
यक्ष: दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
युधिष्ठिर: हर व्यक्ति ये जानता है कि मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है, फिर भी वह यही सोचता है कि उसके जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु नहीं है.
मृत्यु अंतिम सत्य तो है, लेकिन श्रीदेवी के संदर्भ में इसे स्वीकार करने का मन नहीं करता. भारत के दिल में श्रीदेवी का एक बड़ा सा कमरा है, जो उन्होंने ख़ाली कर दिया है, लेकिन श्रीदेवी वहां से गई नहीं हैं. उस कमरे में बहुत सारी सीटियां और तालियां गूंज रही हैं, सिनेमा के कुछ आधे फटे टिकट वहां पड़े हैं.
श्रीदेवी को अपनी प्रेमिका की तरह देखने वाली आंखें अंधेरे में टिकट चेक करने वाली टॉर्च की तरह है. जगह-जगह दरवाज़ों के ऊपर ख़ूनी लाल रंग में एक्ज़िट (Exit) लिखा हुआ है. लेकिन कोई यहां से जाना नहीं चाहता. भारत के दिल में जो सिनेमाघर है, वहां श्रीदेवी की फ़िल्म अब भी लगी हुई है. अपार भीड़ ला रहे हैं, रोज़ाना चार शो.
(यह लेख सिद्धार्थ त्रिपाठी की वेबसाइट www.sidtree.co से साभार प्रकाशित है)
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